Special - Hanuman Homa - 16, October

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शिव तांडव स्तोत्र

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आपकी वेबसाइट अद्वितीय और शिक्षाप्रद है। -प्रिया पटेल

वेदधारा सनातन संस्कृति और सभ्यता की पहचान है जिससे अपनी संस्कृति समझने में मदद मिल रही है सनातन धर्म आगे बढ़ रहा है आपका बहुत बहुत धन्यवाद 🙏 -राकेश नारायण

Om namo Bhagwate Vasudevay Om -Alka Singh

वेदधारा की सेवा समाज के लिए अद्वितीय है 🙏 -योगेश प्रजापति

आपकी मेहनत से सनातन धर्म आगे बढ़ रहा है -प्रसून चौरसिया

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जटाटवीगलज्जल- प्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद- वड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्।
जटाकटाहसम्भ्रम- भ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-
विलोलवीचिवल्लरी- विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाट- पट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम।
धराधरेन्द्रनन्दिनी- विलासबन्धुबन्धुर-
स्फुरद्दिगन्तसन्तति- प्रमोदमानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणी- निरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि।
जटाभुजङ्गपिङ्गल- स्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदम्बकुङ्कुमद्रव- प्रलिप्तदिग्वधूमुखे।
मदान्धसिन्धुर- स्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि।
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेष- लेखशेखर-
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः।
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जय- स्फुलिङ्गभा-
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालिसम्पदे शिरोजटालमस्तु नः।
करालभालपट्टिका- धगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनञ्जयाहुतीकृत- प्रचण्डपञ्चसायके।
धराधरेन्द्रनन्दिनी- कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम।
नवीनमेघमण्डली- निरुद्धदुर्धरस्फुरत्-
कुहूनिशीथिनीतमः- प्रबन्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः।
प्रफुल्लनीलपङ्कज- प्रपञ्चकालिमप्रभा-
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे।
अखर्वसर्वमङ्गला- कलाकदम्बमञ्जरी-
रसप्रवाहमाधुरी- विजृम्भणामधुव्रतम्।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे।
जयत्वदभ्रविभ्रम- भ्रमद्भुजङ्गमश्वस-
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धिमि- ध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल
ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्ड- ताण्डवः शिवः।
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्ग- मौक्तिकस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे।
कदा निलिम्पनिर्झरी- निकुञ्जकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्।
निलिम्पनाथनागरीकदम्ब- मौलिमल्लिका-
निगुम्फनिर्भरक्षरन्- मधूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनीमहर्निशं
परश्रियः परं पदंतदङ्गजत्विषां चयः।
प्रचण्डवाडवानलप्रभा- शुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी- जनावहूतजल्पना।
विमुक्तवामलोचनाविवाह- कालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषणो जगज्जयाय जायताम्।
इदं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसन्ततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नाऽन्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम्।
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं
यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भु:।

 

श्लोक 1:

जटाटवीगलज्जल- प्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद- वड्डमर्वयं चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्।

अर्थ:
शिवजी के जटाओं से बहती हुई गंगा की धारा से पवित्र स्थल पर डमरू की डम-डम ध्वनि के साथ वे चण्ड ताण्डव नृत्य कर रहे हैं। । उनके गले में लटकती हुई सर्पों की माला है।  भगवान शिव हमें शुभ और कल्याण प्रदान करें।

श्लोक 2:

जटाकटाहसम्भ्रम- भ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरी- विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाट- पट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम।

अर्थ:
शिवजी की जटाओं में भ्रमण करती हुई गंगा की लहरें उनके सिर पर शोभायमान हो रही हैं। उनके ललाट पर धग-धग करती हुई ज्वाला जल रही है और उनके मस्तक पर चंद्रमा सुशोभित है। मेरी शिवजी के प्रति प्रेम प्रतिक्षण बना रहे।

श्लोक 3:

धराधरेन्द्रनन्दिनी- विलासबन्धुबन्धुर- स्फुरद्दिगन्तसन्तति- प्रमोदमानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणी- निरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि।

अर्थ:
शिवजी के मन में हिमालय की बेटी पार्वती की क्रीड़ा से हर्ष छाया हुआ है। उनका करुणामय दृष्टि हम पर हो, जिससे हमारे कठिन संकट दूर हों। मेरे मन में शिवजी के दिगंबर रूप का अद्भुत आनंद बना रहे।

श्लोक 4:

जटाभुजङ्गपिङ्गल- स्फुरत्फणामणिप्रभा- कदम्बकुङ्कुमद्रव- प्रलिप्तदिग्वधूमुखे।
मदान्धसिन्धुर- स्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि।

अर्थ:
शिवजी के जटाओं में लहराते हुए सर्प की चमकती हुई मणि से दिशाओं (की सुंदरियों) के चेहरे सिंदूर से सुशोभित हो रहे हैं। वे मदमस्त हाथी की त्वचा से ढके हुए हैं। मेरा मन उस शिवजी में आनंद प्राप्त करे।

श्लोक 5:

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेष- लेखशेखर- प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः।

अर्थ:
हजारों आँखों वाले इंद्र और देवताओं के द्वारा चढ़ाए गए पुष्प शिवजी के चरणों पर गिरकर धूल में मिल जाते हैं। उनके जटाओं में सर्पों की माला सुशोभित है। मस्तक पर चंद्रमा धारण किए हुए शिवजी हमें चिरकाल तक श्री (समृद्धि) प्रदान करें।

श्लोक 6:

ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जय- स्फुलिङ्गभा- निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसम्पदे शिरोजटालमस्तु नः।

अर्थ:
शिवजी के ललाट पर धधकती हुई ज्वाला कामदेव को भस्म कर देती है। उनके मस्तक पर चंद्रमा की चमक सुशोभित है। महाकाल के समान उनके जटाजूट हमारी संपत्ति की वृद्धि करे।

श्लोक 7:

करालभालपट्टिका- धगद्धगद्धगज्ज्वल- धनञ्जयाहुतीकृत- प्रचण्डपञ्चसायके।
धराधरेन्द्रनन्दिनी- कुचाग्रचित्रपत्रक- प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम।

अर्थ:
शिवजी के भाल (माथे) पर धधकती हुई अग्नि ने कामदेव को भस्म कर दिया। पार्वती के कुचों पर चित्रकारी करने वाले शिवजी, त्रिनेत्रधारी हैं। मेरी उनके प्रति प्रेम अडिग रहे।

श्लोक 8:

नवीनमेघमण्डली- निरुद्धदुर्धरस्फुरत्- कुहूनिशीथिनीतमः- प्रबन्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः।

अर्थ:
शिवजी का कंठ नवीन मेघों से ढका हुआ  अंधकारमय रात के समान दिखाई दे रहा है। उनके सिर पर गंगा की धारा प्रवाहित हो रही है। वे संसार के आधार और सभी कलाओं के स्वामी हैं। वे हमें धन-समृद्धि प्रदान करें।

श्लोक 9:

प्रफुल्लनीलपङ्कज- प्रपञ्चकालिमप्रभा- वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे।

अर्थ:
शिवजी का कंठ नीले कमल के समान प्रफुल्लित है, जो संसार की अज्ञान को समाप्त करता है। वे कामदेव को नष्ट करने वाले, त्रिपुरासुर के संहारक, संसार के दुखों को हरने वाले, दक्ष के यज्ञ को  भंग करने वाले, गजासुर का वध करने वाले, और अंधकासुर का अंत करने वाले हैं। मैं उन शिवजी की पूजा करता हूँ।

श्लोक 10:

अखर्वसर्वमङ्गला- कलाकदम्बमञ्जरी- रसप्रवाहमाधुरी- विजृम्भणामधुव्रतम्।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे।

अर्थ:
शिवजी समस्त कलाओं के समूह हैं, जिनसे हर शुभ कार्य सिद्ध होता है। वे मधुरता के स्रोत हैं। वे कामदेव को नष्ट करने वाले, त्रिपुरासुर, संसार के दुखों, दक्ष के यज्ञ और राक्षसों का अंत करने वाले हैं। मैं उनका भजन करता हूँ।

श्लोक 11:

जयत्वदभ्रविभ्रम- भ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धिमि- ध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गलध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्ड- ताण्डवः शिवः।

अर्थ:
शिवजी के भाल (माथे) पर धधकती हुई अग्नि सर्पों की फुफकारों और उनके क्रोध के साथ चमकती है। मृदंग की गूंजती ध्वनि के साथ, शिवजी का प्रचण्ड ताण्डव नृत्य आरंभ होता है। भगवान शिव हमें विजय और कल्याण प्रदान करें।

श्लोक 12:

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्ग- मौक्तिकस्रजोः गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे।

अर्थ:
पत्थर और रत्न, मित्र और शत्रु, घास और कमल, और राजा और प्रजा सभी के प्रति समान समान भाव रखते हुए, मैं सदैव उन सदाशिव की पूजा कब कर पाऊंगा?

श्लोक 13:

कदा निलिम्पनिर्झरी- निकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्।

अर्थ:
कब मैं गंगा के तट पर वास करूंगा, अपने सारे गलत विचारों को छोड़ दूंगा और सदा शिवजी के चरणों में समर्पित रहूंगा? कब मैं शिवजी के ललाट पर स्थित चंद्रमा का ध्यान करता हुआ, शिव मंत्र का उच्चारण करके सच्चा सुख प्राप्त कर पाऊंगा?

श्लोक 14:

निलिम्पनाथनागरीकदम्ब- मौलिमल्लिकानिगुम्फनिर्भरक्षरन्- मधूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनीमहर्निशं परश्रियः परं पदंतदङ्गजत्विषां चयः।

अर्थ:
शिवजी की जटाओं में गंगा की धारा, देवताओं के फूल और मधु का संगम होता है, जो अत्यंत मनोहारी है। वे दिन-रात हमें आनंद प्रदान करें और समस्त कलाओं के स्रोत शिवजी का तेज हमें उच्च पद और संपत्ति प्रदान करे।

श्लोक 15:

प्रचण्डवाडवानलप्रभा- शुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी- जनावहूतजल्पना।
विमुक्तवामलोचनाविवाह- कालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषणो जगज्जयाय जायताम्।

अर्थ:
शिव और पार्वती के भव्य विवाह के समय उपस्थित सभी, जैसे अष्टसिद्धियाँ, शिव मंत्र का जप कर रही हैं, और उसकी ध्वनि वडवाग्नि (समुद्र की प्रचंड अग्नि) की तरह फैल रही है। यह ध्वनि संसार के कल्याण के लिए हो।

श्लोक 16:

इदं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसन्ततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नाऽन्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिन्तनम्।

अर्थ:
यह उत्तमोत्तम स्तुति जो नित्य पढ़ी जाती है, जो भी इसे पढ़ता, स्मरण करता और बोलता है, वह पवित्रता प्राप्त करता है। उसे भगवान हर (शिव) और गुरु के प्रति शीघ्र भक्ति प्राप्त होती है और वह अन्य किसी मार्ग की ओर नहीं जाता। शिवजी का ध्यान करने से जीवन के सभी मोह समाप्त हो जाते हैं।

श्लोक 17:

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः।

अर्थ:
जो व्यक्ति पूजा के अंत में दस मुखों द्वारा गाए गए इस स्तुति को प्रदोष काल (शाम के समय) में शिवजी की पूजा के दौरान गाता है, उसे भगवान शम्भु स्थिर संपत्ति, रथ, हाथी, घोड़े और सुमुखी लक्ष्मी (समृद्धि) का आशीर्वाद सदैव प्रदान करते हैं।

 

Ramaswamy Sastry and Vighnesh Ghanapaathi

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