जगदादिमनादिमजं पुरुषं शरदम्बरतुल्यतनुं वितनुम्।
धृतकञ्जरथाङ्गगदं विगदं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
कमलाननकञ्जरतं विरतं हृदि योगिजनैः कलितं ललितम्।
कुजनैः सुजनैरलभं सुलभं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
मुनिवृन्दहृदिस्थपदं सुपदं निखिलाध्वरभागभुजं सुभुजम्।
हृतवासवमुख्यमदं विमदं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
हृतदानवदृप्तबलं सुबलं स्वजनास्तसमस्तमलं विमलम्।
समपास्त गजेन्द्रदरं सुदरं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
परिकल्पितसर्वकलं विकलं सकलागमगीतगुणं विगुणम्।
भवपाशनिराकरणं शरणं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
मृतिजन्मजराशमनं कमनं शरणागतभीतिहरं दहरम्।
परितुष्टरमाहृदयं सुदयं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
सकलावनिबिम्बधरं स्वधरं परिपूरितसर्वदिशं सुदृशम्।
गतशोकमशोककरं सुकरं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
मथितार्णवराजरसं सरसं ग्रथिताखिललोकहृदं सुहृदम्।
प्रथिताद्भुतशक्तिगणं सुगणं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
सुखराशिकरं भवबन्धहरं परमाष्टकमेतदनन्यमतिः।
पठतीह तु योऽनिशमेव नरो लभते खलु विष्णुपदं स परम्।
जगदादिमनादिमजं पुरुषं शरदम्बरतुल्यतनुं वितनुम्। धृतकञ्जरथाङ्गगदं विगदं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
मैं लक्ष्मीपति भगवान को प्रणाम करता हूँ, जो सृष्टि के आदिकारण हैं, अनादि और अजन्मा हैं, जिनका शरीर शरद ऋतु के आकाश के समान है, जो कमल, चक्र और गदा धारण करते हैं और जो सभी दोषों से मुक्त हैं।
जगदादिं (जो सृष्टि के आदिकारण हैं), अनादिं (अनादि), अजं (अजन्मा), पुरुषं (सर्वोच्च पुरुष), शरदम्बर (शरद ऋतु का आकाश), तुल्य (समान), तनुं (शरीर), वितनुम (विस्तार करने वाला), धृत (धारण करने वाला), कञ्ज (कमल), रथाङ्ग (चक्र), गदं (गदा), विगदं (दोष रहित), प्रणमामि (मैं प्रणाम करता हूँ), रमाधिपतिं (लक्ष्मीपति), तमहम् (उस भगवान को)।
कमलाननकञ्जरतं विरतं हृदि योगिजनैः कलितं ललितम्। कुजनैः सुजनैरलभं सुलभं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
मैं लक्ष्मीपति भगवान को प्रणाम करता हूँ, जो योगियों के हृदय में ध्यानस्थ हैं, जिनका मुख कमल के समान है, जो सदा आनंदित हैं, जो दुष्टों के लिए दुर्लभ परंतु सज्जनों के लिए सुलभ हैं।
कमलानन (कमल मुख वाले), कञ्जरतं (ध्यानस्थ), विरतं (सदा आनंदित), हृदि (हृदय में), योगिजनैः (योगियों द्वारा), कलितं (ध्यानस्थ), ललितम् (सुन्दर), कुजनैः (दुष्टों द्वारा), सुजनैरलभं (सज्जनों द्वारा दुर्लभ), सुलभं (सुलभ), प्रणमामि (मैं प्रणाम करता हूँ), रमाधिपतिं (लक्ष्मीपति), तमहम् (उस भगवान को)।
मुनिवृन्दहृदिस्थपदं सुपदं निखिलाध्वरभागभुजं सुभुजम्। हृतवासवमुख्यमदं विमदं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
मैं लक्ष्मीपति भगवान को प्रणाम करता हूँ, जो मुनियों के हृदय में निवास करते हैं, जो सभी यज्ञों का भाग प्राप्त करते हैं, जिनके बलवान भुजाएं हैं, जिन्होंने इन्द्र के गर्व को हर लिया है और जो अभिमान रहित हैं।
मुनिवृन्द (मुनियों का समूह), हृदि (हृदय में), स्थ (निवास), पदं (स्थान), सुपदं (अच्छा स्थान), निखिल (सभी), अध्वर (यज्ञ), भागभुजं (भाग प्राप्त करने वाला), सुभुजम् (बलवान भुजाएं), हृत (हर लिया), वासव (इन्द्र), मुख्य (मुख्य), मदं (गर्व), विमदं (अभिमान रहित), प्रणमामि (मैं प्रणाम करता हूँ), रमाधिपतिं (लक्ष्मीपति), तमहम् (उस भगवान को)।
हृतदानवदृप्तबलं सुबलं स्वजनास्तसमस्तमलं विमलम्। समपास्त गजेन्द्रदरं सुदरं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
मैं लक्ष्मीपति भगवान को प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने दानवों के गर्वित बल को हर लिया, जो बलवान हैं, जो अपने भक्तों के समस्त दोषों को हर लेते हैं, जिन्होंने गजेन्द्र की पीड़ा को हर लिया और जो अत्यंत सुन्दर हैं।
हृत (हर लिया), दानव (दानव), दृप्त (गर्वित), बलं (बल), सुबलं (बलवान), स्वजनास्त (अपने भक्तों के), समस्तमलं (सभी दोष), विमलम् (शुद्ध), समपास्त (हर लिया), गजेन्द्र (गजेन्द्र), दरं (पीड़ा), सुदरं (सुन्दर), प्रणमामि (मैं प्रणाम करता हूँ), रमाधिपतिं (लक्ष्मीपति), तमहम् (उस भगवान को)।
परिकल्पितसर्वकलं विकलं सकलागमगीतगुणं विगुणम्। भवपाशनिराकरणं शरणं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
मैं लक्ष्मीपति भगवान को प्रणाम करता हूँ, जो सभी कलाओं के स्वामी हैं, जो सभी गुणों से परे हैं, जो सभी शास्त्रों में वर्णित हैं, जो संसार के बंधनों को हर लेते हैं और जो शरण देने वाले हैं।
परिकल्पित (स्वामी), सर्व (सभी), कलं (कलाएँ), विकलं (गुणों से परे), सकल (सभी), आगम (शास्त्र), गीत (वर्णित), गुणं (गुण), विगुणम् (गुणों से परे), भव (संसार), पाश (बंधन), निराकरणं (हर लेना), शरणं (शरण), प्रणमामि (मैं प्रणाम करता हूँ), रमाधिपतिं (लक्ष्मीपति), तमहम् (उस भगवान को)।
मृतिजन्मजराशमनं कमनं शरणागतभीतिहरं दहरम्। परितुष्टरमाहृदयं सुदयं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
मैं लक्ष्मीपति भगवान को प्रणाम करता हूँ, जो जन्म, मृत्यु और बुढ़ापे को समाप्त करते हैं, जो मनोहर हैं, जो शरणागतों के भय को हरते हैं, जिनका हृदय सदा प्रसन्न रहता है और जो अत्यंत पवित्र हैं।
मृति (मृत्यु), जन्म (जन्म), जराश (बुढ़ापा), शमनं (समाप्त करना), कमनं (मनोहर), शरणागत (शरणागत), भीति (भय), हरं (हर लेना), दहरम् (छोटा), परितुष्ट (प्रसन्न), रमाहृदयं (लक्ष्मी का हृदय), सुदयं (पवित्र), प्रणमामि (मैं प्रणाम करता हूँ), रमाधिपतिं (लक्ष्मीपति), तमहम् (उस भगवान को)।
सकलावनिबिम्बधरं स्वधरं परिपूरितसर्वदिशं सुदृशम्। गतशोकमशोककरं सुकरं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
मैं लक्ष्मीपति भगवान को प्रणाम करता हूँ, जो समस्त सृष्टि को धारण करते हैं, जो स्वयं समर्थ हैं, जो सभी दिशाओं में व्याप्त हैं, जो सुन्दर दृष्टि वाले हैं, जो शोक को हरते हैं और सुख प्रदान करते हैं।
सकल (समस्त), अवनि (सृष्टि), बिम्बधरं (धारण करने वाला), स्वधरं (स्वयं समर्थ), परिपूरित (व्याप्त), सर्व (सभी), दिशं (दिशाएँ), सुदृशम् (सुन्दर दृष्टि वाले), गत (हरना), शोक (शोक), अशोक (सुख), करं (प्रदान करना), सुकरं (आसानी से करने वाला), प्रणमामि (मैं प्रणाम करता हूँ), रमाधिपतिं (लक्ष्मीपति), तमहम् (उस भगवान को)।
मथितार्णवराजरसं सरसं ग्रथिताखिललोकहृदं सुहृदम्। प्रथिताद्भुतशक्तिगणं सुगणं प्रणमामि रमाधिपतिं तमहम्।
मैं लक्ष्मीपति भगवान को प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने समुद्र मंथन किया और अमृत प्राप्त किया, जो सभी लोकों के हृदय में विराजमान हैं, जो अद्भुत शक्तियों से युक्त हैं और जो सद्गुणी हैं।
मथित (मंथन किया), अर्णव (समुद्र), राज (राजा), रस (अमृत), सरसं (सार), ग्रथित (निर्मित), अखिल (सभी), लोक (लोक), हृदं (हृदय), सुहृदम (मित्र), प्रथित (प्रसिद्ध), अद्भुत (अद्भुत), शक्ति (शक्ति), गणं (समूह), सुगणं (सद्गुणी), प्रणमामि (मैं प्रणाम करता हूँ), रमाधिपतिं (लक्ष्मीपति), तमहम् (उस भगवान को)।
सुखराशिकरं भवबन्धहरं परमाष्टकमेतदनन्यमतिः। पठतीह तु योऽनिशमेव नरो लभते खलु विष्णुपदं स परम्।
जो भी इस परमाष्टक स्तोत्र का नियमित रूप से पाठ करता है, वह निःसंदेह भगवान विष्णु के परम पद को प्राप्त करता है, जो संसार के बंधनों को हरने वाले और सुख के स्रोत हैं।
सुख (सुख), राशिकरं (स्रोत), भव (संसार), बन्ध (बंधन), हरं (हरने वाला), परम (सर्वोच्च), अष्टकम् (आठ श्लोक), एतत् (यह), अनन्यमतिः (अडिग मन वाला), पठतीह (पाठ करता है), तु (तो), यः (जो), अनिशम् (नियमित रूप से), एव (निःसंदेह), नरः (व्यक्ति), लभते (प्राप्त करता है), खलु (वास्तव में), विष्णुपदं (भगवान विष्णु का पद), स (वह), परम् (सर्वोच्च)।
यह स्तोत्र, जो आठ श्लोकों से युक्त है, भगवान विष्णु के विभिन्न दिव्य गुणों और कार्यों का वर्णन करता है, जो लक्ष्मीपति हैं। प्रत्येक श्लोक भगवान के विभिन्न पहलुओं का महिमा मंडन करता है, जैसे उनका अनंत स्वरूप, उनके द्वारा सृष्टि की रक्षा और पोषण, उनके भक्तों के प्रति करुणा, और उनके द्वारा शोक का निवारण और सुख का प्रदान करना। इन श्लोकों का ध्यान और पाठ करने से भक्तों की भक्ति और समझ में गहराई आ सकती है।
श्रद्धा और भक्ति के साथ इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से अनेक आध्यात्मिक लाभ मिल सकते हैं। यह मन और हृदय को शुद्ध करता है, जीवन की बाधाओं को दूर करता है, और नकारात्मक प्रभावों से रक्षा करता है। इस स्तोत्र का पाठ शांति, समृद्धि और भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी की कृपा को प्राप्त करने में सहायक होता है। अंततः, यह जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति दिलाता है और भगवान विष्णु के सर्वोच्च पद की प्राप्ति करता है।
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