The Unique And Fascinating Jharni Narasimhaswamy Temple, Bidar
A unique temple where devotees wade through water inside a 300 m cave to get a glimpse of Narasimhaswamy*....
Click here to know more..How Chyavana Maharshi got his name
Eka Sloki Navagraha Stotram
आधारे प्रथमे सहस्रकिरणं ताराधवं स्वाश्रये Aadhaare prathame sahasrakiranam t....
Click here to know more..शाबर तन्त्र को प्राचीन मान्यतानुसार शिव द्वारा उपदिष्ट कहा गया है। कालान्तर में इसका वर्त्तमान में जो प्रचलित रूप प्राप्त होता है, उसे नाथ पन्थ के महायोगी गोरक्षनाथ द्वारा प्रवर्त्तित कहा गया है; फिर भी इसका कोई साक्ष्य नहीं उपलब्ध होता; क्योंकि गोरक्षनाथ द्वारा प्रणीत 'सिद्धसिद्धान्तपद्धति' आदि में कहीं भी इसका उल्लेख नहीं मिलता। गोरखनाथ के काल-परिमाण का भी यथार्थ इतिवृत्त नहीं प्राप्त होता । यहाँ तक कि कृष्ण-गोरक्ष संवाद में इनको कृष्ण का समकालीन कहा गया है। इससे यह धारण बलवती होती है कि शंकराचार्य की तरह गोरक्षनाथ की गद्दी पर भी जो आसीन होते थे, उनकी पदवी भी 'गोरक्षनाथ' कही जाती थी । अतः हो सकता है कि आदि गोरक्षनाथ के किसी उत्तराधिकारी गोरक्षपीठासीन सिद्ध द्वारा शाबर तन्त्र का अद्यतन रूप में प्रवर्त्तन किया गया हो। इस विन्दु पर स्वनामधन्य विद्वान डॉ. पं. ब्रह्मगोपाल भादुड़ी जी के विशाल शोधग्रन्थ 'गोरखनाथ के हिन्दी साहित्य में तन्त्र का प्रभाव' में विशेष विचार किया गया है। अस्तु; विभिन्न वनांचलों तथा ग्राम्य अंचलों में यह आज भी पूर्ण रूप से प्रचलित है। असम, बंगाल - प्रभृति तन्त्रमार्गीगण के मुख्य स्थानों में तथा छत्तीसगढ़ के अंचलों में इसका विशेष प्रचलन देखा जाता है ।
यह ‘अनमिल आखर' रूप है अर्थात् इनके मन्त्रों का कोई अर्थ विदित नहीं होता; जबकि तन्त्रजगत् में मन्त्रार्थ - ज्ञान का विशेष महत्त्व है । तन्त्र से इसका यही भेद है। लगता है कि यह विज्ञान केवल शब्द के स्पन्दनों पर आधारित सा है । वे स्पन्दन सूक्ष्म जगत् में अपना लक्ष्य निर्धारित करके कार्यसिद्धि करते हैं। दूसरा मूलभूत सिद्धान्त यह है कि इसका जप भी नहीं किया जाता अर्थात् जैसे मन्त्रविज्ञान में जपसंख्या -प्रभृति का नियम है, उसी प्रकार इसे जपादि से सिद्ध नहीं किया जाता; क्योंकि यह स्वयंसिद्ध होता है। लेकिन इस ग्रन्थ में इसका जो प्रारूप दिया गया है, उसमें इसे जपादि अनेक प्रक्रिया से सिद्ध करने का विधान है; इससे अध्येता के मन में यह सन्देह उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि जिसके सम्बन्ध में 'अनमिल आखर अरथ न जापू' कहा गया है, उसके साथ ऐसा विधान क्यों ? इसका समाधान यह है कि पूर्वकाल में इसे सिद्ध गुरु जाग्रत् शब्दरूप में प्रदान करते थे। शिवचतैन्य से ओतप्रोत गुरु के प्रत्येक वाक्य में शक्ति होती है; फलस्वरूप वह वाक्य स्वयंसिद्ध होता है। अतः उनके द्वारा प्रदत्त शाबर मन्त्र भी वास्तव में शक्तीकृत होता था तथा उसे जप करं सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती थी। यही कारण है कि 'अरथ न जापू' विशेषण इसके साथ चरितार्थ होता था । विडम्बना यह है कि वर्तमान में ऐसे गुरुगण शायद ही कहीं हों। ऐसी स्थिति में इन मन्त्रों को प्रक्रियाओं तथा जपादि से सिद्ध करने की विवशता आ गयी है। इसी कारण परम्परागत शाबरमन्त्रज्ञों ने इसके साथ मन्त्रजागृतिरूप तन्त्रोक्त विधान सम्मिलित कर दिया है। यह परिवर्तन कालपरिवर्तन जनित है। यही युगपरम्परा, कालपरम्परा- प्रभृति परिवर्तन का मूल कारण है। शाबर मन्त्र भी इससे अछूते नहीं रह गये हैं। यही संक्षेप में निवेदन करना है।
इसकी उपयोगिता के सम्बन्ध में जनश्रुति यही है कि यद्यपि ये अत्यन्त प्रभावकारी होते हैं तथापि इस क्षेत्र में मेरा अपना अनुभव कुछ भी नहीं है। अतः विज्ञ पाठकगण इसको अनुशीलनादि कसौटी पर कस कर इसकी उपादेयता का स्वयं आकलन करें।
इस प्रयास में इस ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में मुस्लिम तथा जैनतन्त्रों के प्रयोगों का भी प्रस्तुतीकरण किया जायेगा। कई कार्य में इनके प्रभाव की सराहना अनुभवी लोग करते हैं। जैनतन्त्रों के लिये कर्नाटक तथा राजस्थान के तन्त्रविदों ने अच्छा संकलन प्रदान किया है तथा मुस्लिम तन्त्र- हेतु अजमेर शरीफ, देवाशरीफ-प्रभृति मुस्लिम दरगाहों पर एकत्र होने वाले फकीरों से तथा आमिल लोगों से अनेक उपयोगी प्रयोग मिले हैं। इन सबका संयोजन द्वितीय खण्ड में प्रस्तुत होगा ।
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