संसारमें परम पुरुषार्थ यही है कि, मुक्तिको प्राप्त होना, उसीके निमित्त शास्त्रकारोंने अनेक प्रकारके प्रबन्ध बांधे हैं परन्तु तत्त्व ज्ञानके बिना मुक्तिका मिलना दुर्लभ है। तत्त्वज्ञामसेही यह प्राणी आत्माको जानकर मुक्त हो जाता है (तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पंथा विद्यतेऽयनायेति श्रुतेः) अर्थात् आत्माही को जानकर इस अधिकारी पुरुषको मुक्ति प्राप्ति हो जाती है। आत्मज्ञानके बिना मोक्षप्राप्तिका दूसरा उपाय नहीं है। और जो दूसरे उपाय लिखे हैं कि (काश्यां मरणान्मुक्तिः) काशीमें मरनेसे मुक्ति हो जाती है और (उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां यथा खे पक्षिणां गतिः । तथैव ज्ञानकर्मभ्यां प्राप्यते शाश्वती गतिः) अर्थात् जैसे आकाशमें पक्षी दोनों पंखोंसे उड़ते हैं इसी प्रकार ज्ञान और कर्मसे मुक्ति होती है तथा (कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः) अर्थात् जनकादि कर्मसेही सिद्धिको प्राप्त हो गये तथा ( ब्रह्मज्ञानेन मुच्यते प्रयागमरणेन वा । अथवा स्नानमात्रेण गोमत्याः कृष्णसन्निधौ ) अर्थात् यह अधिकारी पुरुष ब्रह्मज्ञानसे मुक्तिको प्राप्त होते हैं अथवा प्रयागमें शरीर त्यागनेसे अथवा श्रीकृष्ण भगवान्‌के समीप गोमती तीर्थमें स्नानमात्रसे मुक्ति कथन करी है, इससे केवल आत्माके ज्ञानसे ही मुक्तिकी प्राप्ति होती है, यह नहीं बन सकता, इस शंकाका उत्तर यह है कि, (नान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय) यह पूर्वकी श्रुति स्थिता जनकादयः । श्राद्धकृत्सत्यवादी च गृहस्थोपि हि मुच्यते) ॥ अर्थात् जनकादिक निष्काम कर्म करकेही मुक्त हुए तथा श्राद्ध करनेवाले, सत्य बोलनेहारे गृहस्थभी मुक्त हो जाते हैं, जो संन्यासीके कर्मोंको मोक्षहीकी साधनता मानोगे तो गृहस्थकी मुक्तिको कथन करनेहारे यह सब वचन व्यर्थ होंगे इससे संन्यासीके कर्मोंको मोक्षकी साधनता नहीं संभवती और गृहस्थके कर्मोंको ही मोक्षकी साधनता है, यह पक्ष स्वीकार करो तो गृहस्थके कर्मोंमें संन्यासीको अधिकार नहीं इससे संन्यासीकी मुक्ति न होनी चाहिये, और सन्यासीको मुक्तिकी प्राप्ति श्रुति स्मृतियों में देखी है ( सन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः) इससे गृहस्थके कर्मोको मोक्षकी साधनता संभवती नहीं, और जैसे स्वर्गादि सुखमें विलक्षणता है इस प्रकार मुक्तिमें कोई विलक्षणता है नहीं जिस विलक्षणताको लेकर विजातीय मुक्तिके प्रति संन्यासीके कर्मोको कारणता हो, और विजातीय मुक्तिके प्रति गृहस्थको कारणता हो, इससे तिन कर्मोको साक्षात् मोक्षकी साधनता नहीं संभवती किंवा ( तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन) अर्थात् अधिकारी ब्राह्मण इस आत्मा को वेदाध्ययन, यज्ञ, दान, तप, अनशन इत्यादि कर्मोसे जाननेकी इच्छा करते हैं, इस श्रुतिमें यज्ञदानादि कर्मोको आत्मज्ञानकी इच्छारूप विविदिषाकी अथवा आत्माज्ञानकीही कारणता कथन करी है, मोक्षकी कारणता कथन नहीं की, और (न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैकेऽमृतत्वमानशुः ) अर्थात् पूर्वज महात्मा अग्निहोत्रादि कर्म, तथा पुत्रादिक प्रजा, तथा सुवर्णादिक धनसे मोक्षको प्राप्त नहीं हुए, किन्तु कर्मादिकोंके त्यागसे ही तत्वज्ञानद्वारा मोक्षको प्राप्त हुए हैं, यह श्रुति मोक्षकी प्राप्ति में कर्मोका निषेध करती है इस कारणसे वे कर्म मोक्षके साधन नहीं है किन्तु एक तत्त्वज्ञानद्वारा.मोक्षका साधन है यह अर्थसिद्ध हुआ । अब यह जानना अवश्य है कि, तत्त्वज्ञान किसको कहते हैं तो इसका उत्तर यह है कि, आत्माको देह इन्द्रियादि सम्पूर्ण अनात्मपदार्थोंसे जो पृथक् जानना है। इसका नाम तत्त्वज्ञान है। इस आत्मज्ञानकी प्राप्ति श्रवण, मनन, निदिध्यासन साधनोंसे होती है, यथा (आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः) याज्ञवल्क्य मैत्रेयीसे कहते हैं हे मैत्रेयी ! यह आत्मा द्रष्टव्य है अर्थात आत्मसाक्षात्कार मोक्षरूप इष्टका साधन है, इससे मुमुक्ष पुरुषोंको आत्मसाक्षात्कार अवश्य संपादन करना, वह आत्माका साक्षात्कार श्रवण, मनन और निदिध्यासनसे होता है, वेदपाठी सम्पूर्ण युक्तिसम्पन्न आत्मज्ञानी गुरुके मुख से श्रुतिवाक्योंके अर्थ जाननेका नाम श्रवण है और वेदान्तके अनुकूल युक्ति द्वारा चिरकालसे श्रवण किये अद्वितीय ब्रह्मवस्तुकी चिन्ताका नाम मनन है, तथा तत्त्वज्ञानके विरोधी देहादि जड पदार्थका ज्ञान, तथा अद्वितीय ब्रह्मवस्तुके अनुकूल ज्ञानके प्रवाहको निदिध्यासन कहते हैं, इन साधनोंके करनेसे ब्रह्मज्ञानकी प्राप्ति होती है और श्रवणादिकी प्राप्तिके वास्ते पुरुषको वैराग्य अवश्य करना चाहिये, अर्थात् दोनों लोकोंके सुखकी इच्छा त्यागनेका नाम वैराग्य है, क्योंकि, वैराग्यसे आत्मशुद्धि और पाप दूर होता है, और निष्काम कर्म करनेसे आत्माकी शुद्धि होती है, इस कारण तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिके निमित्त सब साधन करने से इस प्रकार से कर्म, उपासना और ज्ञान यह तीनों परस्पर सापेक्ष हैं और आत्माके ज्ञानमें उपयोगी हैं, कर्म तो उपासना ज्ञानकी अपेक्षा रखता है, उपासना कर्मकी फिर ज्ञानकी अपेक्षा रखती है और ज्ञान कर्म उपासना दोनोंकी अपेक्षा रखता है अर्थात् उपासना और कर्मसे ज्ञान होता है, कर्मसे अन्तःकरणकी शुद्धि, उपासनासे चित्तकी एकाग्रता और ज्ञानसे मुक्ति होती है, क्रमानुसार यह अनुष्ठान करनेसे परमानन्दकी प्राप्ति होती है, इस प्रकार सम्पूर्ण शास्त्र तत्त्वज्ञानके विषय में उपयोगी हैं, इसी कारण उनके कर्त्ताओंने उनसे मुक्तिकी प्राप्ति वर्णन करी है, उनके गूढ आशयोंको न जानकर बहुधा प्राणी यह कहने लगते हैं कि, एक शास्त्र ने दूसरे का विरोध किया है, एक पुस्तक देखनेमें आई उसमें सांख्य और प्रोग इनमें महाभेद प्रतिपादन किया है, और डेढ़ पंक्तिमें ही उनके मतका निराकरण कर कह दिया कि यह भी मत समीचीन नहीं परन्तु गीता भी इस लोकपर ध्यान नहीं दिया

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