कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोक संग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ।।
- भगवान् श्रीकृष्ण
मानव चरमोत्कर्ष प्राप्तिके लिए सदा सर्वदा प्रयत्नशील रहा है । उत्तमोत्तम कर्मेंसे ही प्रारणी मनुष्यसे देवता एवम् अधमातिप्रधम कर्मोसे दानवरूप धारण करता चला आ रहा है। विश्व सभ्यतामें भारत कर्मप्रतापसे ही सदा अग्रणी रहा है । लीलापुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णने भी कर्मको ही सर्वोपरि सिद्ध करते हुए अर्जुनको महाभारतके लिए उद्यत किया था। इतना ही नहीं परमवीतराग / अम- लात्मा परमहंस विदेहराज जनकादि भी आसक्तिरहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धिको प्राप्त हुए थे ।
सलकिया (हवड़ा) का सुरेकापरिवार सेठ श्रीविष्णुदयाल सुरेकाके समय से आजतक सत्कर्ममें सदा तत्पर रहा है। इसी वंशमें उत्पन्न परमभागवत सत्कर्मनिष्ठ सेठ श्रीठाकुरदास सुरेकाने अनुभव किया कि कलिजनित क्लेशोंके निवारणार्थं एक उचित शास्त्रविधियुक्त - कर्म निर्देशिकाका निर्माण होना चाहिए, जिससे कि अल्पज्ञ भी समुचित लाभ उठा सकें । ऐसी स्थितिमें उन्होंने अपने पूज्य गुरुवर्य परमवीतराग महात्मा प्राचार्य मायाप्रसादजी महाराज (जामनगर-सौराष्ट्र) से आग्रह किया कि वे एक ऐसा लघुग्रंथ तैयार करनेकी कृपा करें जिसके अनुसार कर्म करके मानव मात्र ऐहलौकिक एवम् पारलौकिक कल्याणको प्राप्तकर सके ।
महाराजश्री के निर्देश एवम भारतके गण्यमान्य विद्वानोंके सहयोगसे, श्रुति- स्मृति - पुराण गृहसूत्रोंका सारसर्वस्व यह लघु संग्रह सर्वसाधारणके लाभार्थं प्रकाशित होने लगा तथा भाजतक लाखों-लाखों श्रास्तिक सज्जनोंने इससे लाभ उठाया है ।
पूज्य पितामह सेठ श्रीठाकुरदास सुरेका के स्वर्गवासके पश्चात् वर्तमान प्रकाशक सेठ श्रीरतनलाल सुरेका भी उक्त कार्यमें तनमनधनसे तत्पर हैं। अबतक इस पुस्तकके संस्करणों की लगभग तीन लाख प्रतियाँ प्रकाशित हो धर्मार्थं वितरित हो चुकी हैं।
प्रभुकृपासे अब चतुर्दश संस्करण आपके हाथोंमें है । दुरूहस्थलोंको लोको- पयोगी एवम् सरल बनाने का पूर्ण प्रयास किया गया है। इतना ही नहीं श्राप श्रद्धालु जनोंसे प्राप्त स्तुत्याग्रहसे प्रेरित हो यथासंभव स्थलोंमें परिवर्तन तथा वृद्धि भी की गयी है।
भारतीय धर्म एवम् संस्कृति के आधार स्तम्भ यातिचक्र चूड़ामरिण अनन्त श्री विभूषित पूज्य गुरुवर्य स्वामी श्री करपात्रीजी महाराजने कृपाकर जो भूमिका रूपमें श्राशीर्वाद प्रदान किया है उससे इस महान संग्रहके गौरवकी वृद्धि हुई है। इसके लिए हम उनकी अहैतुकी कृपाके लिए सदा आभारी हैं। मानव शिक्षण संस्थान वाराणसीके संस्थापक पंडितराज आचार्य लालबिहारीजी शास्त्रीने अपने अमूल्य एवम् व्यस्त समयमें भी वर्तमान त्रयोदश संस्करणकी सफलता के लिए अनेक स्थलोंपर शास्त्रीय सुझाव दिये हैं, उनके लिए हम सदा आभारी हैं ।
सनातन धर्मके सजग प्रहरी एवम् पूज्य स्वामी श्री करपात्री जी महाराज के प्रधान शिष्य श्री सदानन्दजी सरस्वती "वेदान्त स्वामी" के भी हम ऋरिण हैं जिन्होंने अनेकों स्थलोंपर शास्त्रीय सुझाव प्रदानकर हमें मार्ग निर्देष किया ।
सर्वाधिक साधुवादके पात्र सेठ श्रीरतनलालजी सुरेका तथा इनके उत्साही पुत्न श्री राजकुमार सुरेका हैं जिन्होंने इस धर्मकार्यमें उदारतापूर्वक सहयोग प्रदान कर प्रास्तिकोंको लाभान्वित किया । अन्तमें कृपालु पाठकोंसे विनम्र निवेदन है कि मानवीय उन्मादके फलस्वरूप जो भी त्रुटियाँ रह गयी हों उन्हें सुधारकर हमें सूचित करने की कृपा करें, जिससे आगामी संस्करणको और भी उत्तमरूपमें प्रकाशित किया जा सके ।
इत्यलम्
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत् ।।
परमपूज्य स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराजकी शुभाशंसा
'स्वकर्मरणा तमभ्ययं सिद्धि विन्दति मानवः ।'
वर्णाश्रमानुसारी वैदिक सनातन धर्मशास्त्र सम्मत स्वधर्मानुष्ठान ही सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान् भगवान्‌की महती सपर्या है । इन्हीं श्रीत-स्मार्त-कर्मोंका समावेश अष्टचत्वारिंशत् संस्कारोंमें भी होता है। संस्कार मलापनयन और गुणाधान द्वारा वस्तुको चमत्कृत करते हैं। जैसे हीरक आदि रत्न निघर्षणादि संस्कारों द्वारा मलापनयन पूर्वक संस्कृत होकर चमत्कृत होते हैं, वैसे ही जन्मना ब्राह्मणादि चातुर्वएर्य संस्कारोंसे ही प्रदीप्त (तेजस्वी) होते हैं ।
गर्भाधानादि सस्कारोंका भी मलापनयन अतिशयाधानादि द्वारा आत्मशुद्धि विधान में ही तात्पर्य है-
'गार्भेर्होमैर्जातकर्म चौड़ मौञ्जी निबन्धनैः । वैजिक गाभिकं चैनो द्विजानामपभृज्यते ॥ २७॥ स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैः त्रविधेनेज्यया सुतैः । महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः ||२८||
(मनुस्मृति - २)
अर्थात् गर्भाधानादि संस्कारोंके द्वारा बीजादि निहित पैतृक दोष और गर्भवासादि प्राप्त अशुचिप्राय मातृक दोष दूर होते हैं तथा स्वाध्याय-प्रतादि द्वारा शरीरावच्छिन्न श्रात्मामें ब्रह्म-प्राप्तिकी योग्यता आती है । यह भगवान् मनुका कहना है ।
भगवदाराधन बुद्धि से अनुष्ठित नित्य नैमित्तिक कर्मों द्वारा अन्तःकरणादि कार्यकरण सङ्घातकी शुद्धि होती है । तथा अन्तःकरणशुद्धि से ही (१) नित्यानित्यवस्तुविवेक, (२) इहामुत्रार्थफलभोगविराग, (३) शमदमादि

Ramaswamy Sastry and Vighnesh Ghanapaathi

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