जो प्राणी सदा पापपरायण हैं, दया और धर्म से रहित हैं, जो दुष्ट लोगों की संगति में रहते हैं, सत् - शास्त्र और सत्संगति से विमुख हैं; जो अपने को स्वयंप्रतिष्ठित मानते हैं, अहंकारी हैं तथा धन और मान के मद से चूर हैं, आसुरी शक्ति को प्राप्त हैं तथा दैवी सम्पत्ति से रहित हैं; जिनका चित्त अनेक विषयों में आसक्त होने से भ्रान्त है, जो मोह के जाल में फँसे हैं और कामनाओं के भोग में ही लगे हैं, ऐसे व्यक्ति अपवित्र नरक में गिरते हैं । जो लोग ज्ञानशील हैं, वे परम गति को प्राप्त होते हैं। पापी मनुष्य दुःखपूर्वक यम यातना प्राप्त करते हैं ॥
यज्ञ मीमांसा
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Click here to know more..हे तार्क्ष्य ! जो प्राणी सदा पापपरायण हैं, दया और धर्मसे रहित हैं, जो दुष्ट लोगोंकी संगतिमें रहते हैं, सत् - शास्त्र और सत्संगतिसे विमुख हैं; जो अपनेको स्वयंप्रतिष्ठित मानते हैं, अहंकारी हैं तथा धन और मानके मदसे चूर हैं, आसुरी शक्तिको प्राप्त हैं तथा दैवी सम्पत्तिसे रहित हैं; जिनका चित्त अनेक विषयोंमें आसक्त होनेसे भ्रान्त है, जो मोहके जालमें फँसे हैं और कामनाओंके भोगमें ही लगे हैं, ऐसे व्यक्ति अपवित्र नरकमें गिरते हैं । जो लोग ज्ञानशील हैं, वे परम गतिको प्राप्त होते हैं। पापी मनुष्य दुःखपूर्वक यम यातना प्राप्त करते हैं ॥१४- १७ ॥ पापियोंको इस लोकमें जैसे दुःखकी प्राप्ति होती है और मृत्युके पश्चात् वे जैसी यमयातनाको प्राप्त होते हैं, उसे सुनो ॥ १८ ॥
आधि (मानसिक रोग) और व्याधि ( शारीरिक रोग ) - से युक्त तथा जीवनधारण करनेकी आशासे उत्कण्ठित उस व्यक्तिकी जानकारीके बिना ही सर्पकी भाँति बलवान् काल उसके समीप आ पहुँचता है ॥ २० ॥ उस मृत्युकी सम्प्राप्तिकी स्थितिमें भी उसे वैराग्य नहीं होता । उसने जिनका भरण-पोषण किया था, उन्हींके द्वारा उसका भरण-पोषण होता है, वृद्धावस्थाके कारण विकृतरूपवाला और मरणाभिमुख वह व्यक्ति घरमें अवमाननापूर्वक दी हुई वस्तुको कुत्तेकी भाँति खाता हुआ जीवन व्यतीत करता है । वह रोगी हो जाता है, । उसे मन्दाग्नि हो जाती है और उसका आहार तथा उसकी सभी चेष्टाएँ कम हो जाती हैं ॥ २१-२२ ॥ प्राणवायुके बाहर निकलते समय आँखें उलट जाती हैं, नाडियाँ कफसे रुक जाती हैं, उसे खाँसी और श्वास लेनेमें प्रयत्न करना पड़ता है तथा कण्ठसे घुर् घुर्-से शब्द निकलने लगते हैं ॥ २३ ॥
चिन्तामग्न स्वजनोंसे घिरा हुआ तथा सोया हुआ वह (व्यक्ति) कालपाशके वशाभूत होनेके कारण बुलानेपर भी नहीं बोलता ॥ २४ ॥ इस प्रकार कुटुम्बके भरण-पोषणमें ही निरन्तर लगा रहनेवाला, अजितेन्द्रिय व्यक्ति (अन्तमें) रोते-बिलखते बन्धु-बान्धवोंके बीच उत्कट वेदनासे संज्ञाशून्य होकर मर जाता है ॥ २५ ॥ हे गरुड ! उस अन्तिम क्षणमें प्राणीको व्यापक (दिव्य) दृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिससे वह लोक-परलोकको एकत्र देखने लगता है । अतः चकित होकर वह कुछ भी कहना नहीं चाहता ॥ २६ ॥ यमदूतोंके समीप आनेपर सभी इन्द्रियाँ विकल हो जाती हैं, चेतना जडीभूत हो जाती है और प्राण चलायमान हो जाते हैं ॥ २७ ॥ आतुरकालमें प्राणवायुके अपने स्थानसे चल देनेपर एक क्षण भी एक कल्पके समान प्रतीत होता है और सौ बिच्छुओंके डंक मारनेसे जैसी पीडा होती है, वैसी पीडाका उस समय (उसे) अनुभव होने लगता है ॥ २८ ॥ वह मरणासन्न व्यक्ति फेन उगलने लगता है और उसका मुख लारसे भर जाता है। पापीजनोंके प्राणवायु अधोद्वार (गुदामार्ग)-से निकलते हैं॥ २९॥
उस समय दोनों हाथोंमें पाश और दण्ड धारण किये, नग्न, दाँतोंको कटकटाते हुए क्रोधपूर्ण नेत्रवाले यमके दो भयंकर दूत समीपमें आते हैं ॥ ३० ॥ उनके केश ऊपरकी ओर उठे होते हैं, वे कौएके समान काले होते हैं और टेढ़े मुखवाले होते हैं तथा उनके नख आयुधकी भाँति होते हैं। उन्हें देखकर भयभीत हृदयवाला वह मरणासन्न प्राणी मल- मूत्रका विसर्जन करने लगता है ॥ ३१ ॥ अपने पांचभौतिक शरीरसे हाय-हाय करते हुए निकलता हुआ तथा यमदूतोंके द्वारा पकड़ा हुआ वह अंगुष्ठमात्र प्रमाणका पुरुष अपने घरको देखता हुआ यमदूतोंके द्वारा यातनादेहसे ढक करके गलेमें बलपूर्वक पाशोंसे बाँधकर सुदूर यममार्गपर यातनाके लिये उसी प्रकार ले जाया जाता है, जिस प्रकार राजपुरुष दण्डनीय अपराधीको ले जाते हैं ॥ ३२-३३ ॥ इस प्रकार ले जाये जाते हुए उस जीवको यमके दूत तर्जना करके डराते हैं और नरकोंके तीव्र भयका पुनः पुनः वर्णन करते हैं ( सुनाते हैं ) - ॥ ३४ ॥
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