पुनर्जन्म क्या है और क्यों होता है ?

सनातन धर्म के मौलिक सिद्धान्तों में से मुख्य है पुनर्जन्म । आइए, देखते हैं - पुनर्जन्म क्या है, क्यों और कैसे होता है ?


 

पुनर्जन्म क्या है?

इस संसार में जो भी जीवित हैं उन्हें प्राणी कहते हैं। प्राण अर्थात् सांसों के द्वारा अंदर जाने वाली वायु। यह वायु जिनके भी शरीर के अंदर जा सकती है वे प्राणी होते हैं। यानि हाथी, शेर, मछली, मच्छर, मक्खी आदि से लेकर मनुष्य तक सभी प्राणी कहलाते हैं। 

 

 

सभी प्राणी एक क्षण भी कुछ किये बिना नहीं रह सकते, जैसे खाना, सोना, चलना, बैठे रहना इत्यादि। इन्हें ही कर्म कहते हैं। यह कर्म भी दो तरह के होते हैं। अच्छा कर्म और बुरा कर्म। जो भी कर्म अपना या किसी और का भला करें वह होता है अच्छा कर्म।

जो भी कर्म किसी और का बुरा करें वह होता है बुरा कर्म। हमारी आत्मा अपने कर्म के अनुसार शरीर को प्राप्त करती रहती है।  

शरीर और आत्मा में यह एक भेद है कि आत्मा अनश्वर होती है और शरीर नश्वर होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि - आत्मा को हथियारों से काट नहीं सकते, आत्मा को अग्नि जला नहीं सकता, आत्मा को पानी भिगा नहीं सकता और आत्मा को हवा सूखा नहीं सकता। इस आत्मा का कोई स्वरूप नहीं होता। पर कर्म को भोगने के लिए इस आत्मा को एक शरीर की जरूरत है। इस कारण से यह आत्मा अलग अलग योनि में शरीर को प्राप्त कर के अपने कर्म के फल को भोगता है।  

उदाहरण के लिए, एक हाथी के शरीर में और एक मच्छर के शरीर में भी आत्मा समान ही होती है।  पर शरीर के हिसाब से हाथी का शरीर और मच्छर का शरीर अलग अलग होता है। उनकी शक्तियां अलग होती है। उनकी बुद्धि अलग होती है। उनकी सोच अलग होती है। हर आत्मा अपने अपने कर्म के अनुसार अलग अलग शरीरों को प्राप्त करती है। शरीर की ही बाल्य, यौवन, वृद्ध इत्यादि अवस्थाएं होती है। चाहे जितने भी साल हो जाए, आत्मा की उम्र न बढती है और न ही घटती है। 

आत्मा के द्वारा एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त करने को ही पुनर्जन्म कहते हैं। वेद, शास्त्र, पुराण और सभी आस्तिक दर्शन इस पुनर्जन्म का समर्थन करते है। आत्मा अपने विभिन्न शरीरों द्वारा फल भोगता है। अपने द्वारा किये हुए अच्छे कर्म से अच्छा फल और बुरे कर्म से बुरा फल।  

आत्मा के लिए शरीर एक कपडे की तरह है। जब उसका एक शरीर क्षीण या नष्ट होने लगता है तो वह अपने एक शरीर को छोडकर दूसरे शरीर को अपना लेता है। इसी को जनन-मरण चक्र भी कहते हैं। इस चक्र से छूटने को ही मुक्ति कहते है।  

संसार के सुख-दुखादि बन्धनों से छूटकर इनमें से कुछ लोग मुक्ति अर्थात् ईश्वरस्वरूप को प्राप्त करते हैं। इसके लिए अपने किये हुए सभी अच्छे और बुरे कर्म का फल आत्मा को भोगकर खत्म करना पडता है। एक और आवश्यक वस्तु है मुक्ति को पाने के लिए जिसका नाम है 'ईश्वर का अनुग्रह'। ईश्वरानुग्रह के बिना मुक्ति को प्राप्त करना असंभव है। 

यह बात जान लेवें कि मनुष्य को अच्छे कर्म करने पर अच्छा शरीर मिलेगा और बुरे कर्म करने पर बुरा शरीर। जैसे कोई इस जन्म में सामान्य मनुष्य है। वह सारी दुनियां को अपने आखों से देख पाता है। अपने माता-पिता बन्धुओं को देख पाता है। पर वह ही अगले जन्म में अंधे के शरीर को प्राप्त करता है तो यह उस के बुरे कर्म का फल है और उस को वह फल भोगकर कष्ट का अनुभव करना पड सकता है। वह अपने प्रिय जनों को और इष्ट चीजों को देख नहीं पाता।  

यह ही इस जन्म में कोई दुर्बल शरीर को प्राप्त कर के भी पुण्य का काम करके अगले जन्म में  बलवान बनकर उसके अच्छे कर्म से जन्य अच्छे फल का भोग करता है। 

 

पुनर्जन्म क्यों होता है?

एक बार इस संसार की सृष्टि हो जाती है तो इस का संहार होने में करोडो साल लगते हैं। पर एक शरीर की आयु तो प्रायः अस्सी नब्बे साल ही होता है। इस लिए भगवान ने पुनर्जन्म की कल्पना की है।  

कोई भी वस्तु कुछ दिनों के बाद खराब होती है। जैसे दूध एक दो दिन। बिन पकाए हुए चावल को दो से तीन साल, प्लास्टिक सौ दो सौ साल। ऐसे ही मनुष्य का शरीर अस्सी नब्बे सालों में खराब होने लगता है।  गौ के शरीर की आयु है चार से छह साल। घोडे के शरीर की आयु होती है पच्चीस से तीस साल। मुर्गी की आयु होती है आठ से दस साल। मधुमक्खी की शरीर की आयु पचास से साठ दिन तक ही होता है।  

तो एक प्रकार के शरीर को छोडकर दूसरे प्रकार के शरीर को प्राप्त करने को ही पुनर्जन्म के नाम से जाना जाता है। जन्म अर्थात् उत्पन्न होना। आत्मा का जन्म नहीं होता। सिर्फ शरीर का जन्म होता है। एक मुर्गी के शरीर से जब अंडा उत्पन्न होकर उस से एक बच्चा जब बाहर आता है तो उसे मुर्गे का जन्म कहते है। ऐसे ही एक गर्भवती स्त्री के शरीर से जब बच्चा बाहर निकलकर सांसे लेता है तो उसे मनुष्य का जन्म कहते है। इस जन्म के क्षण से ही आत्मा शरीर से जुडती है। और जब यह आत्मा एक शरीर को छोडती है तो उसे मृत्यु कहते है। तो एक बार पैदा होकर मृत्यु को पाने का नाम है एक जन्म। ऐसे जब दूसरा तीसरा बार होता है तो उसे पुनर्जन्म कहते हैं।   

उदाहरण के लिए एक पात्र में रखा हुआ पानी कभी अवसित नहीं होगा । पर नीचे गिरने पर वह पात्र टूट सकता है। तो हम उस पानी को दूसरे पात्र में रख देंगे। कुछ देर बाद उस पात्र में जंग लग सकता है। फिर हम उस पानी को तीसरे पात्र में डाल देंगे। यहां पर पानी जो तीनों पात्रों में थी वह समान है। पर वे तीन पात्र एक नहीं थे। उनकी आकृतियां भी अलग है और उनके क्षमता भी अलग है। आत्मा भी इस पानी की तरह है। शरीर पात्र की तरह।  

जैसे पात्र के नष्ट होने पर पानी नष्ट नहीं होता, वैसे ही  शरीर के नष्ट होने पर आत्मा नष्ट नहीं होता। वह दूसरे शरीर में प्रविष्ट होकर अपने कर्म के फल को भोगता है। इस प्रक्रिया में हर बार जैसे एक पात्र को बनते समय अग्नि की ज्वाला इत्यादि से गुजरना पडता है वैसे ही हर शरीर को गर्भावस्था से गुजरना पडता है। उस समय आत्मा को भी उस शरीर के लिए तात्कालिक रूप से उस अवस्था में रहना पडता है।  

ऐसे हर आत्मा, विभिन्न शरीरों को पाकर अपने किए हुए पुण्य और पाप के फलों का उपभोग करता रहता है। अंत में वह कर्म से रहित होकर, सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर ईश्वर के शरण में चला जाता है। ईश्वर के शरण को प्राप्त होने तक आत्मा का पुनर्जन्म होता रहता है।  एक बार ईश्वर के शरण में प्राप्त होने के बाद ये जन्म-मरण चक्र बंद हो जाता है। ईश्वर के शरण में प्राप्त होने तक करोडों साल एक ही शरीर में पूरा समय न बिताते हुए अलग अलग शरीर में समय बिताकर, उन से अनुभव प्राप्त कर के भगवान को प्राप्त करने के लिए ही भगवान ने ऐसी व्यवस्था की है। 

इस लिए हम लोगों को पुनर्जन्म में विश्वास रखकर, ईश्वरार्पण बुद्धि के साथ अच्छे कर्म कर के उसके अच्छे फल को प्राप्त करते हुए लोक में सकारात्मकता फैलाना चाहिए।

 

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