श्रीएकनाथ महाराज का यह संक्षिप्त चरित्र मराठी - पाठकों के सामने मैं आज सादर उपस्थित करता हूँ ।
नाथ महाराज का विस्तृत चरित्र लिखने का विचार मैंने अभी स्थगित रखा है।
सत्कवि श्रीमोरोपन्त के चरित्र और काव्य-विवेचन का ६०० पृष्ठों का ग्रन्थ मैं दो वर्ष पहले रसिकों के सामने रख चुका हूँ। ऐसा ही एकनाथ महाराज का बृहत् चरित्र लिखने का काम मैं ने अपने सिर उठा लिया है और उसके काव्य-विवेचन सम्बन्धी दो-तीन अध्याय मैं लिख भी चुका हूँ।
श्रीज्ञानेश्वर, श्रीनामदेव, श्रीएकनाथ, श्रीतुकाराम और श्रीरामदास इस पञ्चायतन साद्यन्त चरित्र विस्तृत परिमाण पर लिखने का मेरा संकल्प पहले से था और अब भी है; तथापि इस विस्तृत परिमाण पर लिखे जानेवाले चरित्रों के पहले आबाल-वृद्ध, छोटे-बड़े और अमीर-गरीब सबके संग्रह करने योग्य बोधप्रद, आनन्ददाय क तथा सुबोध भाषा में लिखे हुए संक्षिप्त चरित्र लिखने के लिये अनेक मित्रों ने मुझसे बहुत कहा और इसीको श्रीहरिकी आशा मानकर मैं इस कार्यमें प्रवृत्त हुआ हूँ ।
यह एकनाथ महाराज का चरित्र पहले प्रकाशित हो रहा है और इसके बाद ज्ञानेश्वर महाराज, नामदेव महाराज, तुकाराम महाराज, रामदास स्वामी आदि विख्यात साधुमहात्माओं के चरित्र क्रम से लिखकर प्रकाशित करने का विचार है, जिसे सत्यसंकल्प के दाता भगवान् पूर्ण करें। प्रस्तुत चरित्र पाँच सप्ताह में लिखकर तैयार हुआ, इसी से यह आशा हुई है। सन्त श्रीहरि के उपासक और जीवों के परम मित्र होते हैं। उनकी वाक्-सुधा-सरिता में अखण्ड निमज्जन करते और उनके गुण गाते और सुनते हुए आनन्द से अपने मूल पद को प्राप्त करें, ऐसी प्रीति श्रीहरि ने ही उत्पन्न की है और इसका पोषण करनेवाले भी वही हैं । सन्त जीवों के माता-पिता हैं । ज्ञानेश्वरी, नाथभागवत, अमृतानुभव, दासबोध, नामदेव, तुकारामादिके अभङ्ग और सहस्रों भजनादि ग्रन्थों के रूपमें सन्त ही अवतीर्ण हुए हैं । सन्त के सङ्गले मनका मैल धुल जाता है, मनस्थि होकर हरि-चरणों में लीन होता है; विषय बाधक क्या होंगे, उनका स्मरण भी नहीं होता, संसार सारभूत और आनन्ददायक प्रतीत होता है । मैं पन मरता और सर्वात्मभाव जाग उठता है और सब हरिमय मालूम होता है-अखिल विश्व चिदानन्द से भर जाता है। सन्त भव-बन्धन से छुड़ाते और स्वस्वरूप के सुखमय सिंहासन पर बैठाते हैं। सन्तों की बानी जब सदा जिह्वा पर नाचने लगती है तब भीतर-बाहर सर्वत्र प्रकाश फैलता है, विचार जागता और अज्ञान अस्त होता है। सत्संग मोक्ष का द्वार है । सन्तों और सन्तों के ग्रन्थों में कोई भेद नहीं है। सन्तों के अपार उपकारों से अंशतः उऋण होने का उत्तम उपाय यही है कि हम उनके उपदेश और चरित्र का प्रचार करें। सत्संग में, सन्तों के ग्रन्थों में और सन्तों के चरित्रों में हम रँगें और दूसरोंको रँगावें, भक्ति का आनन्द स्वयं चखें और दूसरों को चखावें और परस्पर के सहायक होकर, वक्ता श्रोता, लेखक-पाठक सब मिलकर हरि प्रेमानन्द प्राप्त करें और दूसरों को प्राप्त करावें । सम्पूर्ण विश्व हरिभक्तों की प्रेमभरी कथाओं से गूँज उठे यही चित्तकी लालसा रहती है।
सन्त कवियों के चरित्र लिखनेवाले लेखक को तीन बातोंका विशेष ध्यान रखना होगा - ( १ ) सबसे पहले परम्परा से चली आयी हुई विचार पद्धति को पूर्णरूप से अपनाकर धर्म-विचारोंका यथार्थ स्वरूप ध्यान में ले आना होगा । अधिकांश महाराष्ट्रीय सन्त भागवत धर्म के माननेवाले वारकरी थे। इस वारकरीसम्प्रदाय में जबतक कोई मिल नहीं जाता तबतक इस सम्प्रदाय का शुद्ध स्वरूप और परम्परागत अर्थसंगति उसके ध्यान में नहीं आ सकती। आजकल शिक्षितों में पूर्वपरम्परा के विषयमें अनादर और परम्परासे बिछुड़ी हुई विचित्र धर्मकल्पनाएँ खूब फैली हैं। इससे अपना-अपना तर्क चलाकर सन्तों के ग्रन्थों और उनकी कविताओं का चाहे जैसा अर्थ करनेकी बीमारी-सी फैल गयी है । सन्तों के ग्रन्थ नवीन विचारले समझने और समझानेका ये लोग प्रयत्न कर रहे हैं। पर इन स्वतन्त्र विचारवालों से उन ग्रन्थों में दिखायी देनेवाले विरोध दूर करके अनेक उद्गारों की एक वाक्यता करना नहीं बन पड़ता । यह काम साम्प्रदायिकों से ही बनता है।

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