ऋतवाक मुनि को कुपुत्र पैदा होता है।
गण्डान्त तीन प्रकार के हैं: नक्षत्र-गण्डान्त , राशि-गण्डान्त, तिथि-गण्डान्त। अश्विनी, मघा, मूल इन तीन नक्षत्रों के प्रथम चरण; रेवती, आश्लेषा, ज्येष्ठा इन तीन नक्षत्रों के अन्तिम चरण; ये हुए नक्षत्र-गण्डान्त। मेष, सिंह, धनु इन तीन राशियों की प्रथम घटिका; कर्क, वृश्चिक, मीन इन तीन राशियों की अंतिम घटिका; ये हुए राशि गण्डान्त। अमावास्या, पूर्णिमा, पञ्चमी, दशमी इन चार तिथियों की अंतिम तीन घटिका; प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी इन तीन तिथियों की प्रथम तीन घटिका; ये हुए तिथि-गण्डान्त। गण्डान्तों में जन्म अशुभ माना जाता है। गण्डान्तों में शुभ कार्यों को करना भी वर्जित है।
गार्ग्य-कौस्तुभ-माण्डव्य
अगस्त्य महर्षि बोले:श्रीमद् देवी भागवत का और कोई माहात्म्य है तो कृपया हमें सुनाइए। देवी भगवती की पूजा ब्रह्मा, विष्णु और शंकर भी करते हैं। उसी देवी के बारे में सब कुछ बताया गया है देवी भागवत में। गायत्री मंत्र की महिमा ल....
अगस्त्य महर्षि बोले:श्रीमद् देवी भागवत का और कोई माहात्म्य है तो कृपया हमें सुनाइए।
देवी भगवती की पूजा ब्रह्मा, विष्णु और शंकर भी करते हैं।
उसी देवी के बारे में सब कुछ बताया गया है देवी भागवत में।
गायत्री मंत्र की महिमा लोगों को श्रीमद् देवी भागवत से ही पता चला है।
उस देवी भागवत के बारे में मैं आपको और भी सुनाता हूँ; बोले भगवान् कार्तिकेय।
एक मुनि थे, ऋतवाक।
रेवती नक्षत्र के अंतिम भाग को ज्योतिष शास्त्रानुसार गण्डान्त कहते हैं।
रेवतीसार्पशाक्रान्ते नाडिकाद्वितयं तथा।
रेवती नक्षत्र की अंतिम दो घटिका; एक घटिका मतलब २४ मिनट।
गण्डान्त के वक्त जन्म अशुभ माना जाता है।
पितृहा तु दिवाजातो रात्रिजातस्तु मातृहा।
आत्मध्रुक सन्ध्ययोर्जातो नास्ति गण्डो निरामयः।
अगर दिन का जन्म है तो पिता को नुकसान है ।
रात में है तो माँ को, और सन्ध्याकाल में खुद को।
ऋतवाक मुनि को बेटा हुआ गण्डान्त योग के साथ।
समय समय पर उसके सारे संस्कार किये गये जैसे जातकर्म, नामकरण, उपनयन इत्यादि।
लेकिन उस लड़के के जन्म के साथ ही उस घर में परेशानियां शुरू हो गयी।
मुनि और उनकी पत्नी बार बार बीमार पड़ने लगे।
मन की शान्ति बिलकुल खत्म ही हो गयी थी।
यहाँ तक की मुनि में गुस्सा और लोभ भी बढ़ने लगे।
बेटा भी जवान होते होते बडा दुरात्मा निकला।
एक बार उसने एक दूसरे मुनि पुत्र की पत्नी का अपहरण भी कर लिया।
मुनि बार बार सोचने लगे; ऐसा बेटा होने से संतान हीन ही रहना अच्छा था।
ऐसा पुत्र तो अपने वंश के स्वर्ग-वासी पितरों को भी नरक में गिरा देगा।
ऐसा पुत्र शत्रु को भी न हो।
न यह मित्र का भला करता न शत्रु का नुकसान।
उसी आदमी को धन्य माना जा सकता है जिसका बेटा परोपकारी हो, जिसका दिल करुणापूर्ण हो।
बेटा ऐसा होना चाहिए जो अपने माता–पिता का सुख चाहता हो ।
कुपुत्र तो न तु इस जन्म में, परलोक में भी दुख ही दुख पहुँचाता है।
उसकी वजह से माता–पिता को नरक की यातनाओं का भी सहन करना पडता है।
अगर भोजन खराब निकला तो मान लो वह दिन व्यर्थ हो गया।
अगर पत्नी बुरी निकली तो मान लो जीवन खत्म हो गया।
और पुत्र बुरा निकला तो मान लो पूरा वंश ही नष्ट हो गया।
एक दिन ऋतवाक गर्ग महर्षि के पास पहुंचे।
और उन्होंने कहा: मैं ने विधिवत ब्रह्मचर्य का पालन करके वेदाध्ययन किया।
गुरु की सच्चे दिल से सेवा की।
नरक प्राप्ति के डर से बचने के लिए पुत्रोत्पत्ति ही उपाय है।
पुन्नाम्नो नरकाद्यस्मात् पितरं त्रायते सुतः।
तस्मात् पुत्त्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयम्भुवा॥
इसको मन में रखते हुए मैंने विधिवत विवाह भी की।
गृहस्थ-धर्म का पालन करता हूँ।
हर रोज़ पञ्च महायज्ञ भी करता हूँ।
फिर भी मुझे ऐसा बेटा क्यों हुआ जो घमंडी, परपीडक और नटखट है।
किसके दोष से हुआ ऐसे, मेरे? मेरी पत्नी की?
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