सूरदास जी ब्रजभाषा के सगुण भक्ति मार्ग के महान कवि थे।
विक्रम संवत् १५४० के सन्निकट उन का जन्म, उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ था।
१६२० के सन्निकट वे धरती को छोडकर श्रीकृष्ण के चरण कमल को प्राप्त किये।
सूरदास जी वात्सल्य, शृंगार और शांत रसों में कविताओं को लिखने में प्रवीण थे।
सूरदास जी के पिता का नाम रामदास था और वे एक गायक थे।
सूरदास जी के गुरु थे वल्लभाचार्य।
वल्लभाचार्य संस्कृत के प्रसिद्ध कवि और व्याख्याता थे।
वल्लभाचार्य ने सूरदास जी को पुष्टिमार्ग में दीक्षा दी और उन को कृष्णलीला के पद को गाने आदेश दिया।
भक्तमाल नाम के पुस्तक में लिखा है कि सूरदास जी एक प्रशंसनीय कवि थे और वे अंध भी थे।
चौरासी वैष्णवन की वार्ता में लिखा गया है कि वे आगरा और मथुरा के बीच में साधु के रूप में रहते थे।
उन्होंने वल्लभाचार्य से लीलागान का उपदेश लिया और वे कृष्ण चरित को लेकर रचना करने लगे।
वल्लभाचार्य के कहने पर वे श्रीनाथ जी के मंदिर में सूरदास जी कीर्तन करते थे।
वे भक्ति मार्ग के कवियों के आदर्श माने जाते थे।
जब वे छह वर्ष के थे तब से ही वे सगुण रूपी भगवान का वर्णन करने लगे।
जब वे अठारह वर्ष के हुए तो उन को विरक्ति हो गयी।
सूरदास जी के काव्य के अवलोकन से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वे अनुभवी, विवेकी और चिंतनशील थे।
निर्मल मन से वे कन्हैया, राधा, यशोदा और गोपियों का वर्णन करते थे।
उनकी कविताओं में काव्य के गुण, रस, अलंकार आदि प्रत्यक्ष प्रकार से दिखते हैं।
कुछ विद्वान मानते हैं कि सूरदास जन्मांध थे, पर जिस प्रकार से उन के काव्यों में वे प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन करते थे उस को देखकर तो लगता है कि वे पूर्ण रूप से देख सकते थे।
जब वे श्रीकृष्ण के सौंदर्य का वर्णन करते थे तो पाठकों के होठों में हसीं खिल जाती थी और जब वे गोपियों के विरह के बारे में लिखते थे तो आखों में आंसू आ जाता था।
उन के रमणीय रचनाओं की वजह से वे आज भी ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवियों में से मुख्य माने जाते हैं।
सूरदास जी ने सूरसागर, सूरसारावली, साहित्यलहरी, नल-दमयंती, ब्याहलो, भागवत दशमस्कंध टीका, नागलीला, गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार, प्राणप्यारी आदि सोलह ग्रंथ लिखे हैं।
इन में से कुछ ही ग्रंथ आज के काल में उपलब्ध हैं।
सूरसागर सूरदास जी के कविता का संकलन माना जाता है।
सूरदास जी के और भी कविताएं अलग से उपलब्ध हैं जो सूरसागर या उन के अन्य ग्रंथों में नहीं मिलते।
सूरदास जी पंडितों जैसे सिद्धांतो का अधिक प्रतिपादन नहीं करते थे बल्कि सरल भाषा में अपने भाव से मनुष्यों के हृदय को छूने जैसा उत्तम काव्य रचते थे।
इन के सुगम और भक्तिगर्भ काव्य को पढकर आज भी हम आनंद पा रहे हैं।
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