शिव महिम्न स्तोत्र

shiva parivar

 

श्री पुष्पदन्त उवाच -

महिम्नः पारन्ते परमविदुषो यद्यसदृशी

स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।

अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन् 

ममाप्येष स्तोत्रे हर ! निरपवादः परिकरः ॥ १ ॥

 

जानत न रावरी अनंत महिमा कौ अन्त

याते अनुचित जो महेस ! गुन गाइबो,

हम तौ अग्यानी तो मैं ग्यानी ब्रह्म आदि हूँ की

बानी कौ लखात चूकी मूक बनि जाइबो ।

मति अनुरूप रूप गुन के निरूपन में

होत जो न काहू पै कलंक अंक लाइबो,

दोस आसुतोस ! तो न मानिये हमारी आज

गुन गाईबे को यौं कमर कसि आइबो || १॥

 

पुष्पदन्ताचार्य शिव की प्रार्थना करने लगे।

हे हर ! ब्रह्मा आदि देवता भी आपकी महिमा का वर्णन नहीं कर पाते हैं तो फिर साधारण मानव की क्या बात है।

सब मनुष्य और देवता अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार आपका गुणगान करते हैं।

मेरा भी यह स्तोत्र दोषरहित बन जाएं । १ ।

 

यदि कोई कहे कि महिमा का अन्त क्यों नहीं जाना जाता, इसलिए दूसरा श्लोक कहते हैं ।

 

अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयो -

रतद्वयावृत्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि । 

स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः 

पदे त्वची पतित न मनः कस्य न वचः ॥ २॥

 

पथ सौं अतीत मन बानी के महत्व तव,

स्रुतिहू चकित नेति नेति जो वदति है।

कौन गुन गावैं, है कितेक गुनवारो वह,

काकी उतै अलख अगोचर लौं गति है ।

भगत उघारन कौं धारन करौ जो रूप

विविध अनूप जाहि जोइ रही मति है,

काकौ मन वाकौं सदा ध्याइबो चहत नायँ

काकी गिरा नायँ गुन गाइवो चहति है || २ ||

 

हे महेश्वर ! आपकी महिमा, वाणी और मन की प्रवृत्ति से बाहर है।

इन दोनों की प्रवृत्ति संसार के पदार्थों में ही होती है।

हे शिव ! आप से अलग की वस्तुओं को ही कोई जान सकता है।

वेद भी संकोच के साथ आपका वर्णन करता है।

आपके संपूर्ण रूप का वर्णन करने में वेद भी समर्थ नहीं है तो कौन आपके गुण जान सके? । २ ।

 

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः

तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् ।

मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः

पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता ॥ ३॥

 

मधु के बरस दिव्य सरस सुधा सौं सनी,

बानी वेदमय निज मुख ते बखानी है|

तब मन रंजन निरंजन ! करेंगी कहा

देवगुरुहू की गुरुता सौं भरी बानी है ।

प्रभु गुन गान को महान पुण्य पाइ आज

पावन बनैगी गिरा मेरी यह जानी है,

गुन अवगाहिबे की महिमा सराहिबे की

याही ते पुरारि जू! सुमति उरआनि है || ३॥

 

हे ब्रह्मन् ! देवताओं के गुरु बृहस्पति अमृत के तुल्य मधुर और अलंकार सहित वाणियों के कर्ता हैं।

उनकी भी स्तुतियां आपको कुछ विस्मित नहीं करा सकती।

 यदि उनकी यह हालात है तो मेरा क्या है?

हे त्रिपुरदहन ! मैं तो केवल  पवित्र होने के लिए आपके गुणों का स्मरण किया है । ३ ।

 

तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्

त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु ।

अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं

विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः ॥ ४॥

 

विदित विभूति भूतनाथ तव संसृति कौ

सृजन भरन तैसे हरन करति है,

वेद ते भनित गुन भेद ते विभिन्न बपु

तीनि देव - विधि हरि हर में लसति है ।

ताहू की महत्ता और सत्ता खंडिबे के हेतु

निन्दा जगती मैं करैं केते जड़मति हैं,

प्रीति होति जा में नाहि पंडित प्रबीनन की,

मंगल बिहीनन की होति वा में रति है ॥४॥

 

हे वरद् ! तीनों वेदों के सार रूप जगत की उत्पत्ति, रक्षा और प्रलय का कारण आपका ऐश्वर्य है।

वह सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण इन तीनों रूपों में विद्यमान हैं । 

ब्रह्मा, विष्णु, शिव ये तुम्हारे ही सामर्थ्य से उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करते हैं । 

हे भगवन् ! कुछ मूर्ख लोग आपके वैभव को नहीं मानते हैं।

बुद्धिमान लोग ऐसे अमंगल जन का संग पसन्द नहीं करते।

 

किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं

किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।

अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः

कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः ॥ ५॥

 

कैसी करें ईहा, कैसी मन में समीहा करै,

कैसौ वाको तन, कैसो करत जतन है,

कौन ठांयं बैठि के विधाता तीन लोकन कौ

कौन उपादान लैकै सारत सृजन है ।

कुतरक ऐसे रख मूरख लरत केते

मोह में परत ओह ! जन गन मन है,

वैभव अतर्क्यं नाथ ! साथ सब शक्ति कहां,

रावरे मैं बावरे तरक को सरन है ||५||

 

कुछ महामूर्ख कुतर्क करते हैं -

किस इच्छा से जगत की उत्पत्ति हुई है?

किस वस्तु से जगत की उत्पत्ति हुई है?

किस कारण से जगत की उत्पत्ति हुई है?

किस उपाय से जगत की उत्पत्ति हुई है?

वे नहीं जानते कि आपके वैभव में कुछ भी दुर्लभ नहीं है।

 

अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां

अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति ।

अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो

यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ॥ ६॥

 

अमित अनूप रूप रंग अंग बारे तऊ,

ऐते सब लोक क्यों रे जन्म न धरत हैं,

कंधों या प्रपंच कौन सिरजनहार कोऊ,

बिन करतार सृष्टि कारज सरत है ?

सिरजनहार जोपै ईस छांडि आन कोऊ,

सोऊ कौन साधन ले सृजन करत है ।

कारन कहा जो देव ! वारन तिहारौकरि

बार बार संसय में मूरख परत हैं || ६ ||

 

हे भगवन् ! मूर्ख लोग ही आपके अस्तित्व के ऊपर सन्देह करते हैं?

क्या ये सात लक यूं ही बन गये थे?

ईश्वर के बिना जगत की रचना संभव ही नहीं है।

 

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