भविष्य पुराण

bhavishya puran hindi pdf cover page

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। 

देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥

बदरिकाश्रम निवासी प्रसिद्ध ऋषि श्रीनारायण तथा श्रीनर (अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण तथा उनके नित्य-सखा नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन), उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उनकी लीलाओं के वक्ता महर्षि वेदव्यासको नमस्कार कर जय*-आसुरी सम्पत्तियोंका नाश करके अन्तःकरण पर दैवी सम्पत्तियों को विजय प्राप्त करानेवाले वाल्मीकीय रामायण, महाभारत एवं अन्य सभी इतिहास-पुराणादि सद्ग्रन्थोंका पाठ करना चाहिये।

जयति पराशरसूनुः सत्यवतीहृदयनन्दनो व्यासः।

यस्यास्यकमलगलितं वाङ्मयममृतं जगत् पिबति।

पराशर के पुत्र तथा सत्यवती के हृदयको आनन्दित करनेवाले भगवान् व्यास की जय हो, जिनके मुखकमल से नि:सृत अमृतमयी वाणीका यह सम्पूर्ण विश्व पान करता है।

आगे पढने के लिए यहां क्लिक करें

 

 

 

 

तुलसी एवं आमलकी-यागमें एक स्वर्णमुद्रा (निष्क) दक्षिणारूपमें विहित है। लक्ष-होममें चार स्वर्णमुद्रा, कोटि-होम, देव-प्रतिष्ठा तथा प्रासादके उत्सर्गमें अठारह स्वर्ण-मुद्राएँ दक्षिणारूपमें देनेका विधान है। तडाग तथा पुष्करिणी-यागमें आधी-आधी स्वर्णमुद्रा देनी चाहिये। महादान, दीक्षा, वृषोत्सर्ग तथा गया-श्राद्धमें अपने विभवके अनुसार दक्षिणा देनी चाहिये। महाभारतके श्रवणमें अस्सी रत्ती तथा ग्रहयाग, प्रतिष्ठाकर्म, लक्षहोम, अयुतहोम तथा कोटिहोममें सौ-सौ रत्ती सुवर्ण देना चाहिये। इसी प्रकार शास्त्रोंमें निर्दिष्ट सत्पात्र व्यक्तिको ही दान देना चाहिये, अपात्रको नहीं। यज्ञ, होममें द्रव्य, काष्ठ, घृत आदिके लिये शास्त्र-निर्दिष्ट विधिका ही अनुसरण करना चाहिये। यज्ञ, दान तथा व्रतादि कर्मोंमें दक्षिणा (तत्काल) देनी चाहिये। बिना दक्षिणाके ये कार्य नहीं करने चाहिये। ब्राह्मणोंका जब वरण किया जाय तब उन्हें रत्न, सुवर्ण, चाँदी आदि दक्षिणारूपमें देना चाहिये। वस्त्र एवं भूमि-दान भी विहित हैं। अन्यान्य दानों एवं यज्ञोंमें दक्षिणा एवं द्रव्योंका अलग-अलग विधान है। विधानके अनुसार नियत दक्षिणा देने में असमर्थ होनेपर यज्ञ-कार्यकी सिद्धिके लिये देवप्रतिमा, पुस्तक, रत्न, गाय, धान्य, तिल, रुद्राक्ष, फल एवं पुष्प आदि भी दिये जा सकते हैं। सूतजी पुनः बोले-ब्राह्मणो! अब मैं पूर्णपात्रका स्वरूप बतलाता हूँ। उसे सुनें। काम्य-होममें एक मुष्टिके पूर्णपात्रका विधान है। आठ मुट्ठी अन्नको एक कुञ्चिका कहते हैं। इसी प्रमाणसे पूर्णपात्रोंका निर्माण करना चाहिये। उन पात्रोंको अलग कर द्वार-प्रदेशमें स्थापित करे।
कुण्ड और कुड्मलोंके निर्माणके पारिश्रमिक इस प्रकार हैं-चौकोर कुण्डके लिये रौप्यादि सर्वतोभद्रकुण्डके लिये दो रौप्य, महासिंहासनके | लिये पाँच रौप्य, सहस्रार तथा मेरुपृष्ठकुण्डके लिये एक बैल तथा चार रौप्य, महाकुण्डके निर्माणमें द्विगुणित स्वर्णपाद, वृत्तकुण्डके लिये एक रौप्य, पद्मकुण्डके लिये वृषभ, अर्धचन्द्रकुण्डके लिये एक रौप्य, योनिकुण्डके निर्माणमें एक धेनु तथा चार माशा स्वर्ण, शैवयागमें तथा उद्यापनमें एक माशा स्वर्ण, इष्टिकाकरणमें प्रतिदिन दो पण पारिश्रमिक देना चाहिये। खण्ड-कुण्ड-(अर्ध गोलाकार-) निर्माताको दस वराट (एक वराट बराबर अस्सी कौड़ी), इससे बड़े कुण्डके निर्माणमें |एक काकिणी (माशेका चौथाई भाग), सात हाथके कुण्ड-निर्माणमें एक पण, बृहत्कूपके निर्माणमें प्रतिदिन दो पण, गृह-निर्माणमें प्रतिदिन एक रत्ती सोना, कोष्ठ बनवाना हो तो आधा पण, रंगसे रँगानेमें एक पण, वृक्षोंके रोपणमें प्रतिदिन डेढ़ पण पारिश्रमिक देना चाहिये। इसी तरह पृथक् कर्मों में अनेक रीतिसे पारिश्रमिकका विधान किया गया है। यदि नापित सिरसे मुण्डन करे तो उसे दस काकिणी देनी चाहिये। स्त्रियोंके नख आदिके रञ्जनके लिये काकिणीके साथ पण भी देना चाहिये। धानके रोपणमें एक दिनका एक पण पारिश्रमिक होता है। तैल और क्षारसे वर्जित वस्त्रकी धुलाईके लिये एक पण पारिश्रमिक देना चाहिये। इसमें वस्त्रकी लम्बाईके अनुसार कुछ वृद्धि भी की जा सकती है। मिट्टीके खोदनेमें, कुदाल चलानेमें, इक्षुदण्डके निष्पीडन तथा सहस्र पुष्प-चयनमें दसदस काकिणी पारिश्रमिक देना चाहिये। छोटी माला बनानेमें एक काकिणी, बड़ी माला बनानेमें दो काकिणी देना चाहिये। दीपकका आधार काँसे या पीतलका होना चाहिये। इन दोनोंके अभावमें मिट्टीका भी आधार बनाया जा सकता है।

Ramaswamy Sastry and Vighnesh Ghanapaathi

Copyright © 2024 | Vedadhara | All Rights Reserved. | Designed & Developed by Claps and Whistles
| | | | |