महाभारत का सबसे पहला आख्यान

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महाभारत का आस्तीक पर्व एक महान शिक्षा देता है कि ब्राह्मणों को सभी प्राणियों के रक्षक होना चाहिए। दुष्टों को दण्ड देना शासकों का कर्तव्य है। यहाँ, हम उग्रश्रवा सौति द्वारा नैमिषारण्य में महाभारत का आख्यान के बारे में दे....

महाभारत का आस्तीक पर्व एक महान शिक्षा देता है कि ब्राह्मणों को सभी प्राणियों के रक्षक होना चाहिए।
दुष्टों को दण्ड देना शासकों का कर्तव्य है।

यहाँ, हम उग्रश्रवा सौति द्वारा नैमिषारण्य में महाभारत का आख्यान के बारे में देख रहे हैं।

उग्रश्रवा महाभारत का पुनराख्यान कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने इसे जनमेजय के सर्प यज्ञ के समय सुना था।

महाभारत सबसे पहले व्यास जी के निर्देश के अनुसार सर्प यज्ञ के स्थान पर उनके शिष्य वैशम्पायन द्वारा सुनाया गया था।

जब बड़े-बड़े यज्ञ होते हैं, तो दिन में बीच बीच में विराम भी रहते हैं।
ऐसा नहीं है कि यज्ञ सुबह से शाम तक चलता है।
ऐसे विरामों में पुराण और इतिहास सुनाये जाते हैं।

कई वक्ता हो सकते थे।
वे अलग-अलग श्रोताओं को अलग-अलग कहानियां सुना सकते थे।

जब सर्प यज्ञ चल रहा था, व्यास महर्षि अपने शिष्यों के साथ वहां आये।

व्यास जी का असली नाम कृष्ण द्वैपायन था - क्यों कि उनका रंग काला था और उनका एक द्वीप पर हुआ था।

व्यास जी की माता सत्यवती नाव से ऋषि पराशर को नदी के उस पार ले जा रही थी।
उनका मिलन नदी के बीच में एक द्वीप पर हुआ था।
सत्यवती ने तुरंत अपनी गर्भावस्था पूरी की और द्वीप पर ही एक बच्चे को जन्म दिया।
एक और दिलचस्प बात यह है कि सत्यवती इसके बाद भी कुंवारी रही।

व्यास जी महाविष्णु के एक अंशवतार थे।
जन्म होते ही वे तुरंत वयस्क भी बन गये।
वेदों और शास्त्रों का ज्ञान उन्हें स्वयं ही प्राप्त हो गया।
वे कभी गुरुकुल नहीं गये थे।

उन्हें यज्ञ विद्या और ब्रह्म विद्या दोनों का, परब्रह्म और अवरब्रह्म दोनों का, इह लोक और पर लोक दोनों का पूरा ज्ञान था।

व्यास जी ने एकल वेद को चार भागों में- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के रूप में विभाजित किया ताकि कलियुग में भी उनका अध्ययन हो सकें और यज्ञों का अनुष्ठान निरंतर चलते रहें।

व्यास पांडवों और कौरवों दोनों के दादाजी थे।

जनमेजय पांडवों के वंशज हैं।

व्यास के पुत्र थे पाण्डु।
पाण्डु के पुत्र पाण्डव।
पाण्डवों में से अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु।
अभिमन्यु का पुत्र परीक्षित।
परीक्षित का पुत्र जनमेजय।

जैसे ही व्यास जी यज्ञ वेदी पर पहुंचे, जनमेजय उठकर खडे हो गये।
पूरे सम्मान के साथ उनका स्वागत किया हुआ।
व्यास जी को एक सोने के आसन पर बिठाये और उन्की जैसे देवताओं की षोडशोपचार द्वारा पूजा होती है, वैसे ही पूजा की गयी।

व्यास जी ने सभी का हालचाल पूछा।

तब जनमेजय ने व्यास जी से कहा-
आपने पांडवों और कौरवों दोनों को स्वयं देखा है।
वे दोनों अपने अक्लिष्ट कर्म के लिए प्रसिद्ध थे।
अक्लिष्ट कर्म का अर्थ है क्लेश के बिना किया गया कर्म, राग और द्वेष के विना किया गया कर्म।
दोनों में वैराग्य था।
यह जनमेजय की धारणा है।
कौरवों के बारे में भी वह यही कह रहे हैं।
फिर उनके बीच दुश्मनी कैसे बढ़ी?
हम आप से सुनना चाहते हैं।

कारण नियति के अलावा और कुछ नहीं हो सकता।
उनके ही अपने पिछले कर्म।
जिससे उनके मन में एक-दूसरे के प्रति शत्रुता भर गई और वे आपस में लड़ने लगे।
अंत एक-दूसरे को नष्ट भी कर दिया।

व्यास जी ने अपने शिष्य वैशम्पायन को निर्देश दिया।
कुरुवंश के इतिहास के बारे में तुमने मुझसे जो कुछ भी सीखा है, अब इन्हें सुनाओ।
जनमेजय और यहां सन्निहित सभी लोगों को।

तो यह पृथ्वी पर महाभारत का सबसे पहला कथन है।
पृथ्वी पर इसलिए कह रहे हैं क्यों कि महाभारत का अन्य लोकों में भी में भी हुआ है, स्वर्गलोक में, गंधर्वलोक में, पितृलोक में।

इसके बाद आप बहुत सारे वैशम्पायन उवाच इस वाक्य को देखेंगे, वैशम्पायन ने कहा, क्योंकि वैशम्पायन हैं वक्ता।
ये उग्रश्रवा के वचन हैं, वैशम्पायन ने इस प्रकार कहा, वहाँ सर्प यज्ञ के स्थान पर।
यह उग्रश्रवा नैमिषारण्य के ऋषियों को बता रहे हैं।

महाभारत मूल रूप से वैशम्पायन द्वारा सुनाया गया था सर्प यज्ञ के अवसर पर और उसे वहां सुनकर उग्रश्रवा सौती नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों को सुना रहे हैं।

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