जीवितमरणं लाभालाभं सुखदुखमिह जगत्यखिलम् ।
कररेखाभिः प्रायः प्राप्नोति नरोऽथवा नारी ॥१३७॥
अन्वयार्थौ - (नरः अथवा नारी इह जगति अखिलं जीवितमरणं लाभालाभं सुखदुःखं प्रायः कररेखाभिः प्राप्नोति) मनुष्य वा स्त्री इस जगत् में जीना मरना लाभ हानि सुख दुःख संपूर्ण बहुधा करिके हाथ की रेखा ही से पाता है।।१३७॥
अन्तर्मुखेन मीनद्वयेन पूर्णेन पाणितलमध्यम् ।
यस्याडितं भवेदिह स धनी स चात्रदो मनुजः ॥१३८॥
अन्वयार्थौ -(यस्य मनुजस्य पाणितलमध्यम् अंतर्मुखेन पूर्णेन मीन द्वयेन अंकितं भवेत् स इह धनी सः अप्रदो भवन्ति) जिस मनुष्य की हथेली के बीच भीतर को है मुख जिनका ऐसी पूर्ण दो मछली करिके युक्त रेखा होंय बह पुरुष धनवान् तो होय परन्तु देनेवाला न होय।।१३८॥
अच्छिन्ना गम्भीरा पूर्णा रक्ताब्जदलिनिभा मृदुला ।
अन्तर्वृत्ता स्निग्धा कररेखा शस्यते पुंसाम् ॥१३९॥
अन्वयार्थौ -(पुंसां करतले अच्छिन्ना गंभीरा पूर्णा रक्ताब्जदलनिभा मृदुला अन्तर्वृत्ता निग्धा कररेखा शस्यते) पुरुष के हाथ में टूटी गहरी न होय और लाल कमल की पत्ती के बराबर नरम भीतर से गोल चिकनी ऐसी हाथ की रेखा होय तो वे श्रेष्ठ हैं।।१३९॥
मधुपिङ्गाभिः सुखिनः शोणाभिस्त्यागिनोगभीराः स्यु ।
सूक्ष्माभिर्धीमन्तः समाप्तमूलाभिरथ सुभगाः ॥१४०॥
अन्वयार्थौ -(मधुपिङ्गाभिः रेखाभिः सुखिनो भवन्ति) सरबती रंगकी सी आभा जिस रेखा की होय तो ऐसी रेखा से सुखी होय और (शोणाभिः रेखाभिः त्यागिनः च पुनःगभीराः स्युः) लाल रंग की रेखाओं से दानी और गंभीर होय और (सूक्ष्माभिः धीमन्तो भवंति) पतली रेखाओं से बुद्धिमान् होय और (अथ समाप्तमूलाभिः रेखाभिः सुभगाः स्युः) जड़ से लगाय पूरी रेखा होंय तो ऐसी रेखाओं से सुन्दर और रूपवान् होय।।१४०॥
पल्लविता विच्छिन्ना विषमाः परुषाः समास्फुटिरूक्षाः । विक्षिप्ताश्च विवर्णा हरिताः कृष्णाः पुनरशुभाः ॥१४१॥
अन्वयार्थौ -(पल्लविताः विच्छिन्नाः विषमाः परुषासमास्फुटितरुक्षाः विक्षिप्ताः च पुनः विवर्णाः हरिताः कृष्णाः पुनः अशुभाः भवन्ति) फैली हुई टूटी ऊंची नीची खरदरी बराबर फटी हई रूखी बिखरी और बुरे रंग की हरी काली ऐसी रेखाओं के लक्षण अशुभ होते हैं।।१४१।।
पल्लवितायां क्लेशश्छिन्नायां जिवितस्य सन्देहः ।
विषमायां धननाशः परुषायां कदशनं तस्याम् ॥१४२॥
अन्वयार्थौ -(पल्लवितायां तस्यां क्लेशो भवति) पत्तेयुक्त शाखा के तुल्य फैली रेखावाले को दुःख होय और (छिन्नायां तस्यां जीवितस्य संदेहो भवति) फटी हई रेखावाले को जीने का संदेह होय और (विषमायां तस्यां धननाशो भवति) ऊंची नीची ग्वा से धन का नाश होय और (परुषायां तस्यां कदशनं भवति) खरदरी रेखा से बुरा भोजन होता है।।१४२।।
आपाणिमूलभागान्निः सृत्यांगुष्ठतर्जनीमध्ये ।
आद्या भवन्ति तिस्रो गोत्रद्रव्यायुषां रेखाः ॥१४३॥
अन्वयार्थौ -आपाणिमूलभागात् निःसृत्य अंगुष्ठतर्जनीमध्ये आद्या स्तिस्रः रेखाः गोत्रद्रव्यायुषां भवन्ति) हाथ के मूलभाग से निकलकर अंगुठा और तर्जनी के बीच पहिले ही तीन रेखा क्रम से जो होय तो ऐसी रेखा गोत्र द्रव्य आयु की होती है।।१४३॥
विच्छिन्नाभिस्ताभिः स्वल्पानि भवन्ति कूलधनायूंणि ।
रेखाभिर्दीर्घाभिर्विपरीताभिर्भवति विपरीतम् ॥१४४॥
अन्वयार्थौ -(विच्छिन्नाभिस्ताभिः रेखाभिः स्वल्पानि कुलधनायूंपि भवन्ति) फटी टूटी रेखाओं से थोड़ी संतान और थोड़ा ही धन और थोड़ी आयु होती है और (दीर्घाभिः विपरीताभिः रेखाभिः विपरीतं भवति) बड़ी पूरी रेखा होय फटी टूटी विपरीत न होय तो बहुत संतान बहुत धन और बहुत आयुवाला होता है।।१४४॥
मणिबंन्धान्निर्गच्छति रेखायस्य प्रदेशिनीमूलम् ।
बहुबन्धुजनाकीर्णतस्य पुनर्जायतेऽभिजनम् ॥१४५॥
अन्वयार्थौ -(यस्य रेखा मणिबन्धात् प्रदेशिनीमूलं निर्गच्छति पुनः तस्य बहुबन्धुजनाकीर्णम् अभिजनं जायते) जिसके पहुँचे से रेखा प्रदेशिनी अर्थात् अंगूठे के पास की तर्जनी अंगुली की जड़ तक जाय सो उस पुरुष के बहुत भाई और बहुत मनुष्य का कुल होय।।१४५।।
लच्या पुनर्नराणां लघुरिह दीर्घोऽथ दीर्घया बंशः । परिभिन्नो विज्ञेयः प्रतिभिन्नया च्छिन्नया छिन्नः ॥१४६॥
अन्वयार्थौ -(पुनः नराणां लच्या रेखया वंशः लघुः) फिर मनुष्यों की छोटी रेखा से वंश छोटा होता है और (दीर्घया रेखया वंशः दीर्घः) बड़ी रेखा से बंश बड़ा होय और (प्रतिभिन्नया परिभिन्नः छिन्नया छिन्नः विज्ञेयः) टूटी फूटी रेखा से वंश बिखरा हुआ होय और कटी हुई रेखा से वंश भी कटा हुआ विशेषकरि जानिये।।१४६॥
रेखाकनिष्ठिकाया ज्येष्ठामुल्लंघ्य यस्य याति परम् ।
अच्छिन्ना परिपूर्णा स नरो वत्सरशतायुः स्यात् ॥१४७॥
अन्वयार्थों-(यस्य कनिष्ठिकाया अच्छिन्ना परिपूर्णा रेखा ज्येष्ठाम् उल्लध्यं परं याति स नरः बत्सरशतायुः स्यात्) जिस मनुष्य की कनिष्ठिका अंगुली के बराबर पूरी रेखा ज्येष्ठा अर्थात् बीच की अंगुली को उलांघि जाय तो उस मनुष्य की सौ वर्ष की आयु होय।।१४७।।
यावन्मात्राश्छेदाज्जीवितरेखाः स्थिरा भवन्ति नृणाम् ।
अपमृत्युवोऽपि तावन्मात्रा नियतं परिज्ञेयाः ॥१४८॥ ।
अन्वयार्थों-(नृणां जीवितरेखाः छेदात् यावन्मात्राः स्थिराः भवन्ति) मनुष्यों के जीने की रेखा टूटी हुई जितनी स्थिर होय तो (तावन्मात्राः अप मृत्यवः अपि नियतं परिज्ञेयाः) उतनी ही अपमृत्यु निश्चय करि जानने योग्य हैं।।१४८॥
पुंसामायुभगि प्रत्येकं पंचविंशतिः शरदाम् ।। कल्प्याः कनिष्ठिकांगुलिमूलादिह तर्जनीपरतः ॥१४९॥
अन्वयार्थौ -(पुंसाम् आयुभाग प्रत्येकं शरदां पंचविंशतिः कनिष्ठिकांगुलिमूलात् इह तर्जनीपरतः कल्प्या) मनुष्यों की आयु के भाव में हर एक अंगुली के नीचे तक पच्चीस वर्ष और कनिष्ठिका के मूल से तर्जनी तक कल्पना करनी चाहिये।।१४९।।
रेखा मणिबन्धाद्यदि यात्यंगुष्ठप्रदेशिनीमध्यम् ।
ऋद्धियुतं ख्यापयति विज्ञानविचक्षणे पुरुषम् ॥१५०॥
अन्वयार्थौ -(यदि रेखा मणिबन्धात् अंगुष्ठप्रदेशिनीमध्यं याति) जो रेखा । पहुँचे से अँगूठा और तर्जनी के बीच में जाय तो (तदा ऋद्धियुत विज्ञानविचक्षणं पुरुषं ख्यापयति) वह ऋद्धिसिद्धि युक्त विशेष ज्ञान में चतुर पुरुष को जनाती है।।१५०॥
चेदंगुष्ठं गच्छति सैव ततो वितनुते महीशत्वम् । यदि सैव तर्जनी वा साम्राज्य मंत्रिपदमथवा ॥१५१॥

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