इस प्रवचन से जानिए- १. विश्व का उपादान क्या है? २. विश्व को बनाने वाला कौन है?

श्रीमद्भागवत के सबसे प्रथम श्लोक- जन्माद्यस्य....। इस श्लोक का प्रथम शब्द जन्माद्यस्य, इसके अर्थ के बारे में हमने विस्तार से देखा। अब इसके आगे यतोन्वयादितरतश्च। यहां पर दो शब्द हैं- अन्वयात्, इतरतश्च। किसी वस्त....

श्रीमद्भागवत के सबसे प्रथम श्लोक- जन्माद्यस्य....।

इस श्लोक का प्रथम शब्द जन्माद्यस्य, इसके अर्थ के बारे में हमने विस्तार से देखा।

अब इसके आगे यतोन्वयादितरतश्च।
यहां पर दो शब्द हैं- अन्वयात्, इतरतश्च।

किसी वस्तु को बनाने के लिए उपादान भी चाहिए, बनाने वाला भी चाहिए; ये दोनों ही चाहिए।
जैसे घट के लिए उपादान है मिट्टी और बनानेवाला कुम्हार।

जगत के विषय में-
कोई कहता है- ब्रह्म उपादान है, प्रकृति बनाने वाली है।
कोई कहता है- प्रकृति उपादान है और ब्रह्म बनानेवाला है।

इस बात पर स्पष्टीकरण दे रहा है भागवत यहां।
इस शब्द से- यतोन्वयादितरतश्च।

जगत का उपादान भी भगवान हैं जगत को बनाने वाला भी भगवान ही हैं।

भगवान ही, ब्रह्म ही विश्व को बनाते हैं, उसे चलाते हैं और उसका संहार करते हैं।

तो प्रलय के समय यह विश्व जिसभी उपादान से बना हुआ है उसका क्या होता है?
क्या उसका विनाश होगा?
नहीं।
उसका तिरोभाव ही होगा।
जैसे समुद्र से लहर उठती है और वापस समुद्र में गिर जाती है।
पर लहर जिस पानी से बनी हुई थी वह तब भी वहीं है न?
समुद्र में ही।
इसी प्रकार जगत का भी।

लहरों में समानता है।
एक लहर हाथी की जैसी और दूसरी लहर पेड की जैसी नहीं होती।
उनमें समानता है।

ऐसी समान रूपवाली लहरों को बनाते रहने के लिए कोई एक विशेष ज्ञान चाहिए।
यह अंधाधुंध तरीके से नहीं हो सकता।
यह उथल-पुथल में नहीं हो सकता।

इसके लिए विशेष ज्ञान और व्यवस्था जरूरी है।
ये कहां से मिलेंगे?

ये भी समुद्र के अन्दर ही हैं।
उपादान भी और ज्ञान भी।

दृष्टांत के रूप में बता रहा हूं।
जगत का उपादान और उसकी रचना के लिए ज्ञान, दोनों ही भगवान के अन्दर ही हैं।

और बनने के बाद जगत को चलाता कौन है?
वह भी भगवान।

बाहर से नहीं, हर प्राणी और हर वस्तु के अन्दर रहकर।
अन्तर्यामि के रूप में, अन्दर से यम, नियंत्रण करनेवाले के रूप में।
यह है स्वराट शब्द का अर्थ।

जगत में देखिए दो प्रकार के सृजन हैं।

पहाड, समन्दर आदियों का सृष्टिकर्ता हमें दिखाई नहीं देता है।

मेज, कुर्सी आदियों को जो बनाता है वह हमें दिखाई देता है।

इन दोनों प्रकार के सृजन भगवान ही करते हैं।

दूसरे प्रकार के सृजन में उस बनानेवाले के माध्यम से।

पहले में स्वयं ही।
अन्वयात्, इतरतः- इन दो शब्दों को लेकर व्यास जी इनके ओर ही इंगित करते हैं।

अगला श्ब्द- अर्थेष्वभिज्ञः।
अर्थों के जानकार।

क्या है अर्थ?
लक्ष्य।

यह जगत क्यों बनाया गया इसके एक या कई उद्देश्य हैं, लक्ष्य हैं।

एक घटनाक्रम दिखाई देता है।
कई घटनाक्रम दिखाई देते हैं।
कार्यकलाप मनमाना नहीं है।
सुव्यवस्थित है।

किस प्रकार के हैं ये लक्ष्य?

उदाहरण के लिए-
मेरे जन्म का परम लक्ष्य है मोक्ष द्वारा परिपूर्ण स्वतंत्रता को पाना।
इसके लिए मेरे उपलक्ष्यों के रूप में साधन हैं- धर्म का आचरण, संसाधनों का सही विनियोग और इच्छाओं का संचालन।
धर्म, अर्थ, और काम।

इन तीनॊं साधनों को, उपलक्ष्यों को करते करते ही मुझे परम लक्ष्य, मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
इस प्रकार अरबों लक्ष्य जगत में एक साथ निष्पादित किये जाते रहते हैं।
भगवान इन सबके जानकार हैं, इन लक्ष्यों को उन्होंने ही बनाया- अर्थेष्वभिज्ञः।

यहां पर एक विशेष बात है।
सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया गया है- अर्थेषु अभिज्ञः।
अर्थानां अभिज्ञः इस प्रकार षष्ठी विभक्ति नहीं।
अर्थों मे जानकार, अर्थों का जानकार नहीं।

ऐसे क्यों?

क्यों कि, दिखाने के लिए कि इन सब कार्यों को करते हुए भी कराते हुए भी भगवान को इन विषयों मे कोई आसक्ति नहीं है।
यही भगवान और मानव में भेद है।

एक अच्छा व्यवस्थापक, प्रबंधक उसको वह जो भी करता है उसके ऊपर आसक्ति रहेगी, एक जुनून रहेगा।
तभी वह अच्छे से अपने कर्तव्य को निभा पाएगा।

लेकिन भगवान में ऐसी कोई आसक्ति नहीं है।

बिना आसक्ति के कैसे अच्छा कार्य हो सकता है?

जैसे गन्ने का रस निकालने वाला मशीन अच्छे से रस निकलता है उसमें से।
पर वह मशीन उस रस का आनन्द नही लेता है।
निष्काम रूप से काम करता है वह मशीन।

भगवन के लिए समुचित दृष्टांत नहीं है यह।
फिर भी अनासक्ति को समझने के लिए बता रहा हूं।

अनासक्त होकर भी काम हो सकता है, इसे दिखाने के लिए।

यहां तक प्रपंच के जितने रूप हैं, प्राणियों के स्वरूप में, वस्तुओं के स्वरूप में, इनके बारे मे बात हुई।

आगे नामों के बारे में देखेंगे।
सारे नामों के आधार हैं वेद।
तेने ब्रह्म.... श्लोक के इस पद के द्वारा।

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