इस प्रवचन से जानिए- सृजन के रहस्यों को कौन कौन जानते हैं।
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः। तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि॥ इस श्लोक में- जन....
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि॥
इस श्लोक में-
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्
यह पद हमें बताता है कि प्रपंच में जितनी वस्तुएं हैं, जितने प्राणी हैं, जितनी ऊर्जाएं हैं, जितने कार्यकलाप हैं, जितनी घटनाएं हैं, इन सबका भगवान के साथ क्या संबन्ध है।
भगवान शांत समन्दर हैं, ये सब उस समन्दर से उठकर उसी में लय होनेवाली लहरें हैं।
अब आगे का पद-
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः
इस पद के अर्थ को जरा गहराई से समझते हैं।
अगर पिछला पद रूपों के बारे में है तो, जो दिखाई देते हैं, जिन्हें हम आखों द्वारा देख सकते हैं, या किसी के द्वारा वर्णित किये जाने पर मन ही मन कल्पना कर सकते हैं, ऐसे रूपों के बारे मे है तो, यह पद नामों के बारे में, शब्दों के बारे में है।
प्रपंच में हर वस्तु से, हर प्राणी से, हर कार्य से, हर दृगविषय से जुडे नाम या शब्द होते हैं।
यह कोई नाम हो सकता है जैसे तुलसी।
इस नाम को सुनते ही तुलसी का रूप मन में आ जाता है।
या तुलसी को देखते ही यह नाम मन में आ जाता है।
गरम इस शब्द को सुनते ही हमें पता चलता है कि वह कैसी अवस्था है।
नाम के बिना रूप या रूप के बिना नाम नहीं हो सकता।
ऐसे नामों का शब्दों का संचय है वेद।
वेद में, प्रपंच में जो कुछ भी हैं उन सबके नाम या उनसे जुडे श्ब्द हैं।
इन शब्द तरंगों से ही ये सब उत्पन्न होते हैं।
वस्तुएं, जीवजाल, घटनाएं, एक दूसरे के साथ रिश्ते।
तो प्रपंच को बनाने के लिए सबसे पहले भगवान ब्रह्मा जी को वेद सौंप देते हैं।
अब यहां पर एक बात।
अगर नाम के बिना रूप और रूप के बिना नाम नहीं हो सकता तो व्यास जी ने इस श्लोक में रूप के लिए एक पद और नाम के लिए एक पद क्यों बनाया?
वे एक ही पद में हो सकते हैं जैसे कि- विश्व के सारे दृगविषय और उनसे जुडे शब्द भगवान से ही उत्पन्न होते हैं।
नही, उन्होंने ऐसे नही किया।
यह इसलिए कि व्यासजी हमे बताना चाह रहे हैं कि दृगविषय हमे बांध देते हैं और वेद इनसे हमें मुक्त कराते हैं।
सांसारिक विषय पुनः पुनः हमें उसी फंदे मे डाल देते हैं जो चलता ही रहता है।
कभी खत्म नहीं होता।
वेदों के द्वारा ज्ञान प्राप्त होने पर कार्यकलाप तो हम तब भी करते रहेंगे, ज्यादा नहीं थोडा, जो बहुत ही जरूरी है उसे तो करते रहना पडेगा।
पर ये हमे बांधेंगे नहीं।
वेद के लिए ब्रह्म शब्द का प्रयोग किया गया है यहां।
क्यों?
क्यों कि वेद भी परब्रह्म की तरह अविकृत हैं।
क्या है अविकृत का तात्पर्य?
लहरें विकार हैं।
उनके आधार के रूप मे जो शांत समुद्र है वह अविकृत है।
परब्रह्म भी अविकृत है।
वेद भी अविकृत है।
यह जो भगवान ने ब्रह्मा जी को वेद सौंपा यह कोई चक्रीय यांत्रिक कार्य नहीं है भले वह समय समय पर होनेवाला चक्रीय कार्य दिखता हो।
यह हर बार भगवान जान बूछकर ही करते हैं।
अपने हृदय से करते हैं- तेने हृदा.....
अगर चाहें तो भगवान इस चक्र को बंद भी कर सकते हैं सृष्टि, पालन और संहार के इस चक्र को या इसके क्रम को बदल सकते हैं।
कुछ भी कर सकते हैं भगवान।
क्यों कि भगवान कर्तुं अकर्तुं और अन्यथा कर्तुं समर्थ हैं।
हमे नहीं पता है कि भगवान इसे क्यों करते हैं।
विश्व का सृजन करना, फिर उसे कुछ समय के लिए रखना, फिर उसका संहार करना।
हम सिद्धांत बनाते रहते हैं।
कि यह उनकी लीला है, वे इससे आनंद लेते हैं।
जिनका स्वरूप ही सच्चिदानंद हैं वे ये सब करके आनंद क्यों लेंगे?
पता नहीं।
पर इस रहस्य को उन्होंने ब्रह्मा जी को बताया है।
ब्रह्मा जी को सिर्फ ब्रह्मा जी को ही यह पता है।
अपने हृदय के इस रहस्य को उन्होंने ब्रह्मा जी को ही बताया है वेदों को सौंपते समय।
हृदा शाब्द का यह भी तात्पर्य है।
पुराणं हृदयं स्मृतम्।
पुराणॊं को भी हृदय कहते हैं।
पुराणॊ में क्या है?
घटनाएं, उनका वर्णन।
तो भगवान ने न केवल वेदॊं के रूप में प्रपंच को बनाने उपादान और ज्ञान, उस प्रपंच में जो अरबों घटनाएं घटेंगी, या ब्रह्मा जी को उस प्रपंच में आगे क्या क्या करवाना है इसे भी पुराणों के रूप मे ब्रह्मा जी को दे दिया।
इन पुराणॊं के एक छोटे अंश को ही व्यास जी हर द्वापरयुग में प्रकट करते रहते हैं।
ये वेद बडे बडे पण्डितों को और दार्शनिकों भी भ्रम में डाल देते हैं।
ये सब कहते रहते हैं, वेद में यह है, वेद में वह है।
यह ऐसा है, यह वैसा है।
सब अपने अपने सिद्धांत निकालते रहते हैं।
पर किसी को भी वेदों के वास्तविक रूप के बारे में नही पता- मुह्यन्ति यत्सूरयः।
क्यों कि जैसे भगवान मन और वाणि के पहुंच के बाहर हैं वेद भी मन ओर वाणि के पहुंच के बाहर हैं।
पर वेद के आदेशों का पालन करने से परिपूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त हो सकती है।
महागणपति मंत्र
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गणपतये वर वरद सर्वजनं मे वशम....
Click here to know more..पति-पत्नी के बीच एकता के लिए शक्ति गणपति मंत्र
तत्पुरुषाय विद्महे शक्तियुक्ताय धीमहि तन्नो विघ्नः प्र....
Click here to know more..पद्मनाभ स्तोत्र
विश्वं दृश्यमिदं यतः समयवद्यस्मिन्य एतत् पुनः भासा यस्....
Click here to know more..Please wait while the audio list loads..
Ganapathy
Shiva
Hanuman
Devi
Vishnu Sahasranama
Mahabharatam
Practical Wisdom
Yoga Vasishta
Vedas
Rituals
Rare Topics
Devi Mahatmyam
Glory of Venkatesha
Shani Mahatmya
Story of Sri Yantra
Rudram Explained
Atharva Sheersha
Sri Suktam
Kathopanishad
Ramayana
Mystique
Mantra Shastra
Bharat Matha
Bhagavatam
Astrology
Temples
Spiritual books
Purana Stories
Festivals
Sages and Saints