योग में उपाय प्रत्यय

पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद सूत्र संख्या २० - श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्। इससे पहले के सूत्र में हमने भव प्रत्यय के बारे में देखा जो समाधि का भान मात्र है । भव प्रत्यय अभ्यास का नतीजा नहीं है । इससे सा....

पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद सूत्र संख्या २० - श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्।
इससे पहले के सूत्र में हमने भव प्रत्यय के बारे में देखा जो समाधि का भान मात्र है ।
भव प्रत्यय अभ्यास का नतीजा नहीं है ।
इससे साधक कभी भी अपनी प्राकृतिक अवस्था में गिर सकता है ।
इसकी तुलना में अब उपाय प्रत्यय की विशेषता बताई जा रही है ।
योगी को इस पथ को ही अपनाना चाहिए ।
इस मार्ग में ही प्रयास करना चाहिए ।
इस मार्ग में एक क्रम है ।
शुरुआत श्रद्धा से ।
श्रद्धा से वीर्य की उत्पत्ति ।
वीर्य से स्मृति की उत्पत्ति ।
स्मृति से समाधि की उत्पत्ति ।
समाधि से प्रज्ञा की उत्पत्ति ।
यहां खत्म नहीं होता है ।
यहां तक संप्रज्ञात समाधि है ।
जिसके साथ विवेकख्याति जुडी हुई है ।
यहां से इस प्रज्ञा को भी पर वैराग्य द्वारा त्यागकर साधक असंप्रज्ञात समाधि में पहुंचता है ।
आइए, इन पांच शब्दों के - श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि ओर प्रज्ञा - इन पांच शब्दों के अर्थ को देखते हैं ।
श्रद्धा - चित्त की अभिरुचि - कि मुझे योगावस्था को पाना ही है ।
जिन्दगी में पाने लायक यही एक लक्ष्य है।
बाकी सब निरर्थक हैं।
समय व्यर्थ करने लायक नहीं है।
मेरा एकमात्र लक्ष्य रहेगा योगावस्था को पाना।
इसके लिए ही मेरा जन्म हुआ है।
इस तीव्र अभिरुचि को कहते हैं श्रद्धा।
श्रद्धा मां के समान कल्याण करनेवाली है ।
वीर्य - लक्ष्य जब साफ है, तो उसके प्रति उत्साह उत्पन्न होता है।
इसे कहते हैं वीर्य।
उत्साह मन में तो चाहिए ही, इसका शरीर का भी साथ मिलना चाहिए।
इसके लिए ब्रह्मचर्य जैसे शारीरिक नियमों का भी पालन करते हैं।
मन और शरीर में, दोनों में ही उत्साह, जोश।
उत्साह से प्रयास, प्रयत्न।
यह प्रयास धारणारूपी है।
इसमें योगी अपने लक्ष्य के प्रति उत्साह को ही अपने मन में धारण किया हुआ रहता है और शरीर से उसी की ओर प्रयास करता रहता है।
इससे स्मृति की उत्पत्ति - स्मृति का अर्थ है ध्यान।
उस लक्ष्य पर ही अटल ध्यान।
इसके सिवा मुझे और कुछ चाहिए ही नहीं।
इससे समाधि - संप्रज्ञात समाधि की उत्पत्ति।
जिससे प्रज्ञा यानि विवेकख्याति की उत्पत्ति।
प्रज्ञा जब उत्पन्न होती है , तब से साधक वस्तुओं को उनके ठीक ठीक रूप से जानने लगता है।
यहां से जैसे पहले देखा, इस प्रज्ञा को भी पर वैराग्य द्वारा त्यागकर असंप्रज्ञात समाधि की और प्रयाण।
ये सब जानकर भी मैं क्या करूंगा, ऐसा वैराग्य।

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