इस प्रवचन से जानिए- १. गोवत्स द्वादशी की महिमा २. गोदान करने की विधि ३. राजा पृथु की कहानी
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीभगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य, अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीय परार्धे श्वेतवराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमे पादे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे......क्षेत्रे.....मासे....पक्षे......तिथौ.......वासर युक्तायां.......नक्षत्र युक्तायां अस्यां वर्तमानायां.......शुभतिथौ........गोत्रोत्पन्नः......नामाहं श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त-सत्फलावाप्त्यर्थं समस्तपापक्षयद्वारा सर्वारिष्टशान्त्यर्थं सर्वाभीष्टसंसिद्ध्यर्थं विशिष्य......प्राप्त्यर्थं सवत्सगोदानं करिष्ये।
गोवत्स द्वादशी कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष द्वादशी को मनायी जाती है।
एक बार माता पार्वती गौ माता के और भोलेनाथ एक बूढे के रूप में भृगु महर्षि के आश्रम पहुंचे। गाय और बछडे को आश्रम में छोडकर महादेव निकल पडे। थोडी देर बाद भोलेनाथ खुद एक वाघ के रूप में आकर उन्हें डराने लगे। डर से गौ और बछडा कूद कूद कर दौडे तो उनके खुरों का निशान शिला के ऊपर पड गया जो आज भी ढुंढागिरि में दिखाई देता है। आश्रम में ब्रह्मा जी का दिया हुआ एक घंटा था जिसे बजाने पर भगवान परिवार के साथ प्रकट हो गए। इस दिन को गोवत्स द्वादशी के रूप में मनाते हैं।
सुपुष्ट सुंदर और दूध देने वाली गाय को बछडे के साथ दान में देना चाहिए। न्याय पूर्वक कमायी हुई धन से प्राप्त होनी चाहिए गौ। कभी भी बूढी, बीमार, वंध्या, अंगहीन या दूध रहित गाय का दान नही करना चाहिए। गाय को सींग में सोना और खुरों मे चांदी पहनाकर कांस्य के दोहन पात्र के साथ अच्छी तरह पूजा करके दान में देते हैं। गाय को पूरब या उत्तर की ओर मुह कर के खडा करते हैं और पूंछ पकडकर दान करते हैं। स्वीकार करने वाला जब जाने लगता है तो उसके पीछे पीछे आठ दस कदम चलते हैं। गोदान का मंत्र- गवामङ्गेषु तिष्ठन्ति भुवनानि चतुर्दश। तस्मादस्याः प्रदानेन अतः शान्तिं प्रयच्छ मे।
भृगु महर्षि के आश्रम में ब्रह्मा जी का दिया हुआ एक घंटा था। जब आश्रम वासियों ने उसे बजाना शुरु किया तो गाय और बाघ, दोनों ने अपना अपना रूप छोडकर अपने सही रूप धारण कर लिए। वृषारूढ भगवान शंकर- देवी भगवती, कार्तिकेय, गणेश, ....
भृगु महर्षि के आश्रम में ब्रह्मा जी का दिया हुआ एक घंटा था।
जब आश्रम वासियों ने उसे बजाना शुरु किया तो गाय और बाघ, दोनों ने अपना अपना रूप छोडकर अपने सही रूप धारण कर लिए।
वृषारूढ भगवान शंकर- देवी भगवती, कार्तिकेय, गणेश, नंदी, महाकाल, शृंगी, वीरभद्र. चामुंडा, घंटाकर्ण और अपने भूतगण के साथ प्रकट हो गए।
इस दिन को गोवत्स द्वादशी के रूप में मनाते हैं जो कार्तिक मास में है।
इस दिन की जाने वाली गोपूजा विशेष फलदायक होती है ।
स्वायंभुव मनु के वंश में एक राजा थे उत्तानपाद।
उन के पुत्र थे विख्यात ध्रुव जो बाद में ध्रुव नक्षत्र बन गए।
बचपन में ध्रुव की सौतेली मां सुरुचि ने उसे मार डालने की बहुत कोशिश की।
कई बार मारे जाने पर भी ध्रुव जिंदा हो कर वापस आ जाता था।
तंग आकर सुरुचि ने अपनी हरकतें कुबूल की मां सुनीती के साथ और पूछी; यह कैसे कर लेती हो?
तुमने मृतसंजीविनी विद्या सीखी है क्या?
सुनीती ने कहा, पता नहीं।
जब भी में अपने बेटे को याद करती हूं तो वह मेरे पास आ जाता है।
हां, गोवत्स द्वादशी व्रत रखती थी सुनीती।
इतनी ताकत है इस व्रत में।
गोवत्स द्वादशी के दिन दोपहर के समय दिया जलाकर चंदन, फूल, अक्षत, कुंकुम से गौ की पूजा की जाती है और ग्रास दिया जाता है।
बाद में गाय को छूकर यह प्रार्थना करते हैं।
ॐ सर्वदेवमये देवि लोकानां शुभनन्दिनी।
मातर्ममाभिलषितं सफलं कुरु नन्दिनि।
मेरी मनोकामनाएं पूरी करो।
भविष्यपुराण में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं:
त्रीण्याहुरतिदानानि गावः पृथिवी सरस्वती।
तीन प्रकार के दान हैं जिन्हें अतिदान कहते हैं।
गोदान, भूमिदान, और विद्यादान।
सुपुष्ट सुंदर और दूध देने वाली गाय को बछडे के साथ दान में देना चाहिए।
न्याय पूर्वक कमायी हुई धन से प्राप्त होनी चाहिए गौ।
कभी भी बूढी, बीमार, वंध्या, अंगहीन या दूध रहित गाय का दान नही करना चाहिए।
गाय को सींग में सोना और खुरों मे चांदी पहनाकर कांस्य के दोहन पात्र के साथ अच्छी तरह पूजा करके दान में देते हैं।
गाय को पूरब या उत्तर की ओर मुह कर के खडा करते हैं और पूंछ पकडकर दान करते हैं।
स्वीकार करने वाला जब जाने लगता है तो उसके पीछे पीछे आठ दस कदम चलते हैं।
जो विधिवत गोदान करेगा उसे सारे अभीष्ट प्राप्त होते हैं।
स्वर्ग जाकर चौदह इंद्रों के समय तक वो वहां रहता है।
उस के सारे पाप मिट जाते हैं।
गोदान से बढकर कोई प्रायश्चित्त नहीं है।
सारे दोषों का, पापों का एकमात्र उपाय है गोदान।
पुराणों में बताया है कि समस्त जीवजाल गोरूपा पृथिवी के दोहन से उत्पन्न हुए।
स्वायंभुव मनु के वंश के राजा थे अंग।
उनकी पत्नी थी मृत्यु की बेटी सुनीथा।
इन दोनों का बेटा बडा शूर और साहसी, वेन।
वह सम्राट तो बना पर बडा अधर्मी और चरित्रहीन।
उसके द्वारा लोक में पाप ही पाप फैला।
महर्षियों ने उसे शाप देकर मार दिया।
लेकिन राजा के अभाव में समय बीतते बीतते अराजकता और अव्यवस्था बढी।
महर्षियों ने मरे हुए वेन के शरीर का मंथन करके राजा पृथु को उत्पन्न किया।
पृथु को भगवान विष्णु का अवतार भी मानते हैं।
पृथु का राज्याभिषेक भी हो गया।
लेकिन, तब तक अत्याचार से परेशान भूमि देवी ने सारे पेड पौधों को और जीव जालों को अपने अंदर खींच लिया था।
उन्हें वापस करने के लिए राजा ने कहा तो भूमि देवी नही मानी।
राजा ने गुस्से में अपना धनुष उठाया तो भूमि देवी एक गाय बनकर भाग गयी।
राजा ने तीनों लोकों में उसका पीछा किया।
आखिर में गौ को पता चला कि यह तो मेरा पीछा छोडने वाला नहीं है।
गौ ने राजा को बताया कि सब कुछ तो मेरे अंदर है।
आप मेरा दोहन करके इन्हें बाहर लायें।
उस प्रकार आज जो कुछ भी भूतल में हमें दिखाई दे रहा है: पशु, पक्षी, पेड, पौधे, सब कुछ उस गौरूपा भूमि से दोहन के माध्यम से बाहर निकला हुआ है।
मतलब हम सब की उत्पत्ति उस गौ माता से ही हुई है।
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