इस प्रवचन से जानिए- १. गीता को शास्त्र क्यों कहते हैं? २. शास्त्र का अर्थ क्या है? ३. प्रस्थान त्रयी में गीता का स्थान क्या है?

श्रीमद्भगवद्गीता प्रस्थान त्रयी के अन्तर्गत है। क्या है प्रस्थान त्रयी? तीन स्रोत। उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता। उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, भगवद्गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्र को न्याय प्रस्थ....

श्रीमद्भगवद्गीता प्रस्थान त्रयी के अन्तर्गत है।

क्या है प्रस्थान त्रयी?

तीन स्रोत।

उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता।

उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, भगवद्गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्र को न्याय प्रस्थान कहते हैं।

ये वेदान्त शास्त्र के आधार स्तंभ हैं।

सनातन धर्म का जो सनातन अंश है वह है प्रस्थान त्रयी।

हजारों मत हैं सनातन धर्म में।

जैसे शैव, वैष्णव, शाक्तेय।

सैकडॊं दर्शन हैं सनातन धर्म में।

जिन में से छः, षड दर्शन मुख्य हैं।

हजारों सुधारक आकर जा चुके हैं।

पर एक बात ध्यान मे रखिए।

अगर कोई मत कोई दर्शन या कोई सुधारवादी प्रथा आज भी जिन्दा है तो उसके आधार के रूप
में ये प्रस्थान त्रयी जरूर रहेंगे।

जो इससे हटकर चले गये, वे तो चले ही गये, बचे नहीं।

गीता अपौरुषेय नहीं है।

वेद अपौरुषेय हैं।

वेदों का कोई रचयिता नही है।

वेद सनातन हैं।

सृजन से पूर्व ब्रह्माजी के मन में प्रकट होते हैं वेद।

परमात्मा द्वारा प्रकट किये जाते हैं।

पर गीता का उपदेष्टा है।

भगवान श्रीकृष्ण।

वेदों के अन्तिम भाग हैं उपनिषद।

वेदों के सारांश हैं उपनिषद।

तो फिर गीता में क्या है?

उपनिषद के तत्त्वों का समग्र विश्लेषण जिसे हम सरलता से समझ सके, आसानी से समझ सके।

ऐसी करुणा की है भगवान ने हमारे ऊपर।

भले ही गीता का स्मृति प्रस्थान के रूप मे स्थान है प्रस्थान त्रयी में, पर गीता का संबन्ध उपनिषदों से है।

प्रस्थान त्रयी मे गीता का ही स्थान सर्वोच्च है।

गीता एक शास्त्र है।

क्या है शास्त्र?

विधि और निषेध।

ऐसा करो, ऐसा मत करो।

विधि और निषेध।

शास्त्र को कौन बनाते हैं?

दीर्घदर्शी त्रिकालदर्शी अनुभवी महापुरुष।
ज्यादा करके स्मृति ग्रन्थों को शास्त्र ग्रन्थ कहते हैं।
इसलिए ही गीता को स्मृति प्रस्थान कहते हैं।

गीता मे विधि और निषेध बताये गये हैं।

रस्मों का नहीं, पूजा पाठ का नहीं, समाज के व्यवहार का नहीं।

उपनिषद तत्त्वों के आधार पर।

सबसे ऊंचा लक्ष्य, आत्मा का उद्धार- इसकी विधि।

और उनकी घोषणा जिन्हें करने से आत्मा की हानि होती है।

शास्त्र में दोनों ही हैं।

शास का अर्थ है आदेश, त्र का अर्थ है उस आदेश को कैसे पालन करें इसकी विधि।

कोई भी प्राणी, न केवल मानव, कोई भी प्राणी दुख को क्लेश को भुगतना चाहेगा?

नहीं।

लेकिन सारे दुख को भुगतते हैं।

जानवार भी शारीरिक वेदना और डर जैसे मानसिक पीडाओं को भुगतते हैं।

मानव में और भी संकीर्ण मानसिक व्यथाएं होती हैं।

यह बताइए, जान बूछकर कोई भी दुख को अपनाएगा?

दुख का सहन करेगा?

तो दुख का अनुभव करते समय हम परतंत्र हैं।

और क्षण भर के लिए जो सुख मिलते रहते हैं इनके बीच, वह भी अंततः दुख की ओर ही ले जाते हैं।

मिठाई का आनंद लेता रहा, बाद में मधुमेह हो गया।

किसी से प्यार मिला, बाद में विरह का दुख।

किसी का साथ मिला, बाद में उसके गुजर जाने पर दुख।

दुख तो दुख का कारण है ही, सुख भी अंततः दुख का ही कारण बन जाता है।

तो शाश्वत सुख कैसे मिल सकता है?

इसकी विधि क्या है?

इस पथ पर निषेध क्या क्या है?

यह बताती है गीता।

इसलिए गीता शास्त्र है।

उपनिषद शास्त्र।

मानव परब्रह्म का प्रतिरूप है।

परब्रह्म की तीन कलाएं हैं।

स वा एष आत्मा वाङ्मयः प्राणमयो मनोमयः।

वाक, प्राण, और मन।

इन तीनों में से तीन शरीर बनते हैं।

स्थूल शारीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर।

वाक से स्थूल शरीर।

प्राण से सूक्ष्म शरीर।

और मन से कारण शरीर।

इन तीनों के भीतरी भाग में विशुद्धात्मा है जो सच्चिदानन्द स्वरूपी है।

इसी को पाना है।

इन तीनों आवरणों को भेदकर इसी का साक्षात्कार करना है।

इसके लिए इन आवरणॊं का संस्कार होना अवश्य है।

जैसे कपडों को धोने से उनमें से मैल निकल जाता है।

मैल निकालना ही संस्कार है।

साथ ही साथ उसके साथ कुछ श्रेष्ठ गुणॊं को जोडना।

इन दोनों को ही संस्कार कहते हैं।

यहां पर इन तीनों शरीर के संस्कार के लिए अलग अलग शास्त्र हैं।

स्थूल शरीर के लिए आयुर्वेद शास्त्र जो शरीर को स्वस्थ रखने की विधि और निषेध बताता है।

सूक्ष्म शारीर के संस्कार के लिए स्मृति, धर्म शास्त्र और पुराण।

मनोरूपी कारण शरीर के संस्कार के लिए उपनिषद शास्त्र यानि कि प्रस्थान त्रयी।

उपनिषद ब्रह्मसूत्र और गीता।

इसी कारण ही गीता को शास्त्र कहते हैं- गीता शास्त्र।

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