अनन्तथी पूज्य स्वामी करपात्रीजी महाराज मानवके समग्र दिव्य-जीवन के लिए वरदानस्वरूप भारतके प्राचीन वैदिक दर्शन एवं आचारों के गंभीर चिन्तन-मनन- कर्ताओं तथा उसका तात्विक स्वरूप प्रस्तुत करनेवाले अंगुलिगष्य भारतीयों में प्रमुख हैं, इस विषय में कम-से-कम किसी निष्पक्ष विचारशील विद्वान् की दो राय नहीं हो सकती, भले ही उसे उनके विचार पूर्णतः या अंशतः मान्य न हों। हम तो एक कदम आगे बढ़कर यह भी कहेंगे कि आजके उदारतावादी युग में प्राचीन भारतीय वैदिक विचारों को जितना उदार बनाने पर उनका मौलिक स्वरूप भ्रष्ट नहीं हो पाता, पूज्य स्वामीजी ऐसे युगानुरूप प्राचीन भारतीय वैदिक विचारों के प्रस्तोतानों में अग्रणी ही कहे जायेंगे।
सौभाग्य की बात है कि अपने जीवन का बहुत अधिक समय भारतीय संस्कृति के विभिन्न विषयों को सुनियोजित रूप में लिपिबद्ध करने के अपने व्यापक अध्यवसाय के सन्दर्भ में स्वामीजी ने आज हम भारतीयों को यह 'विचार- पीयूष' नामक विशालकाय ग्रन्थ भेंट करने की महती कृपा की है। इस पुस्तक में जहाँ जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में भारतीय वैदिक दृष्टिकोण का उपस्थापन किया गया है, वहीं उस तथाकथित वैदिक भारतीय दृष्टिकोण की युक्ति एवं प्रमाण- पुरस्सर विस्तृत समीक्षा भी की गयी है, जो दृष्टिकोण ज्ञात-अज्ञातरूप में पाश्चात्य दृष्टिकोण एवं विचारधारा से अभिभूत स्वयं को भारतीय संस्कृति एवं हिन्दू-संस्कृति के उन्नायक घोषित करनेवाले समाजसेवी विद्वानों ने अपने विभिन्न ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है। सचमुच सनातन वैदिक धर्मानुयायी जगत् के लिए यह अत्यन्त आवश्यक एवं अनुपेक्षणीय विषय रहा, जिसकी पूर्ति की सर्वांगीण क्षमता हमें तो पूज्य स्वामीजी में ही दीखती है। वैदिक दृष्टिकोण के सर्वथा विरोधी लोगों द्वारा की जानेवाली इस धर्म की और इसके प्रमेयों की निन्दा या उसका विकृत रूप में उपस्थापन उतना घातक नहीं होता। कारण, जनसाधारण सहज ही समझ जाता है कि ये उस दृष्टिकोणके मूलतः विरोधी ही हैं। किन्तु जो उस दृष्टिकोण के समर्थक होकर भी पाश्चात्य प्रभाव या अपने अभिप्राय विशेषसे उसका भ्रामकरूप प्रस्तुत करते हैं, उससे विशुद्ध वैदिक दृष्टि- कोण की महती क्षति संभाव्य होती है। आगे चलकर उसके वास्तविक रूप और रहस्य से अनभिज्ञ जन उसी रूप को यथार्थ मानने लगते हैं और मूल विशुद्ध वैदिक दृष्टिकोण संकरदोष से दूषित हो जाता है। इसी दृष्टि से महाराजश्री का यह प्रयास मननीय एवं समादरणीय है। हम समझते हैं कि स्वयम् वे भी समालोच्य विद्वानों के प्रति अत्यन्त मादरभाव और उनके भारतीय संस्कृति के वास्तविक समुन्नायक प्रयासों के प्रति कृतज्ञता रखते हैं। विचारों का कसकर खण्डन करते हैं, पर साथ ही उनके उपस्थापक का हार्दिक आदर-सम्मान भी। अतएव यह प्रयास उनके या उनके विचारशील अनुयायियों के लिए कभी उद्वेजक सिद्ध नहीं होगा । अन्ततः 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः' भारतीयों का सिद्धान्त है ही ।
हाँ, तो प्रस्तुत ग्रन्थ में 'भारतीय राजनीति एवं आधुनिक वाद' पर विचार प्रस्तुत किये गये हैं। यह ग्रन्थ तीन भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में भारतीय राजनीति का विशुद्ध विवेचन है, जिसमें 'वेदों से स्मृतियों तक', (१-२५), 'महाभारत की दृष्टि में' (२६-१३९ ), ‘नीतिकारों की कसौटी पर' ( १४० - १५२), 'कवियों को काव्य-कला में' (१५३-१८८), 'तत्त्वज्ञान और वर्णाश्रम धर्म' (१८९-२०८), और 'शास्त्रोक्त धर्म एवं भगवन्नाम' ( २०९-२४१ ) ये छह प्रकरण जाते हैं ।
द्वितीय भाग है, आधुनिक बाद। यद्यपि इसमें ११ प्रकरण हैं, तथापि प्रथम प्रकरण 'क्या वेद-शास्त्र का प्रामाण्य मानना अपकर्ष ?' ( २४३-४७४ ) सबसे बड़ा है। इसमें पूज्य "
स्वामीजी ने स्वर्गीय श्री मा० स० गोलवलकरजी के 'विचार-नवनीत' ग्रन्थ में संकलित विभिन्न विचारों की विस्तरशः समीक्षा की है, जिसमें उनका प्रमुख विचार है 'हमारी सांस्कृतिक पर- म्परा का दूसरा विशिष्ट पहलू यह है कि हमने किसी भी ग्रन्थ को अपने धर्म और संस्कृति की एकमेव सर्वोच्च सत्ता नहीं माना।' पूज्य स्वामीजी एवं समस्त वैदिक सनातनी जगत् की मान्यता है कि हमारी संस्कृति की सर्वोच्च चरम सत्ता वेद-शास्त्र ही हैं। उनके विपरीत हम एक कदम भी नहीं चल सकते। इसीलिए इस प्रकरण का नाम 'क्या वेद-शास्त्र का प्रामाण्य मानना अपकर्ष ?' रखा गया। जैसा कि कहा गया है, इस प्रकरण में 'विचार नवनीत' के कितने ही पृष्ठों पर अंकित विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक विचार, पाश्चात्य राजनीतिज्ञों, दार्शनिकों की समीक्षा, कम्यूनिज्म, विकासवाद आदि वादों की आलोचना आदि विभिन्न विषयों पर स्वामीजी ने अपना पृथक्-पृथक् वैदिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। अतः प्रत्येक के अलग- अलग प्रकरण न कर इसी प्रमुख समालोच्य विषय के नाम पर ही यह करीब ढाई सौ पृष्ठों का प्रकरण रख दिया गया। पाठक इसे पढ़कर अपने सुविधानुसार विषय-विभाग कर लेंगे। इसके बाद दूसरा प्रकरण है 'हमारी राष्ट्रियता एक समीक्षा' ( ४७५-४८१) । इसमें भी स्वर्गीय श्री गोलवलकर के 'विचार-दर्शन' एवं 'हमारी राष्ट्रियता' ग्रन्थों के प्रकाश में शास्त्रीय दृष्टि का समुपस्थापन किया गया है। इसके पश्चात् 'राष्ट्रियता की कसौटी' (४८२-४९२ ) प्रकरण है, जिसमें राष्ट्रियता का विशुद्ध शास्त्रसिद्ध रूप प्रस्तुत किया गया है। आगे 'संस्कृति का अर्थ और वर्ण-व्यवस्था' (४९३-४९८ ) प्रकरण है और फिर "जाति और हिन्दुत्व शास्त्रीय दृष्टि में" ( ४९९-५११) प्रकरण, जिनके विषय नामतः स्पष्ट हैं। 'तीन राष्ट्रिय स्वतन्त्रताएँ" (५१२- ५२३ ) इस छठे प्रकरण में शिक्षा की स्वतन्त्रता, धार्मिक स्वतन्त्रता और धन की स्वतन्त्रता के औचित्य पर शास्त्रीय दृष्टि उपस्थापित है। सातवें प्रकरण 'वैयक्तिक सम्पत्ति और आर्थिक सन्तुलन' (५२४-५२९ ) को शास्त्रीय दृष्टि में देखा गया है। आगे 'धर्मसापेक्ष पक्षपातविहीन राज्य' (५३० - ५४२) भारतीय राजनीति का प्रधान लक्ष्य प्रौढि के साथ वर्णित है। नवाँ प्रकरण 'मार्क्सवाद और स्वेतलाना' (५४३-५६३) में कम्यूनिज्म के महान् प्रयोक्ता स्टालिन की बेटी की जबानी में कम्यूनिज्म का धूर्ततापूर्ण खोखलापन अपनी टिप्पणी के साथ प्रदर्शित है। दसवाँ प्रकरण 'भारत में जनतन्त्र' (५६४-५६९ ) वर्तमान चालू राजनीति का विषय है। अन्तिम ग्यारहवाँ प्रकरण है 'कौटिल्य और अध्यात्म' ( ५७० - ५८२ ) । इस तरह यह द्वितीय भाग ( २४३-५८२ ) इस ग्रन्थ का सबसे बड़ा भाग और पाश्चात्य पौर्वात्य उभयविध विभिन्न- विषयक विचारधाराओं का अपूर्व संगम कहा जा सकता है।
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