धन के पंद्रह दोष
धन कमाने में, कमा लेने पर उसको बढाने, रखने एवं खर्च करने में तथा उसके नाश और उपभोग में - जहां देखो वहीं निरन्तर परिश्रम, भय, चिन्ता, और भ्रम का ही सामना करना पडता है। चोरी, हिंसा, झूठ बोलना, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, अहङ्कार, भेद-बुद्धि, वैर, अविश्वास, स्पर्द्धा, लम्पटता, जूआ और शराब - ये पंद्रह अनर्थ मनुष्यों में धन के कारण ही माने गये हैं।
इसलिये कल्याणकारी पुरुष को चाहिये कि स्वार्थ एवं परमार्थ के विरोधी अर्थनामधारी अनर्थ को दूर से ही छोड दें।
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्वयपाश्रयः । मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं
पदमव्ययम् ॥ ( १८ |५६ )
मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मोको सदा करता हुआ भी मेरी कृपासे सनातन अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जाता है ।भगवद्भक्ति
इसके अतिरिक्त, केवल भगवद्भक्ति से भी अनायास ही स्वतन्त्रतापूर्वक मनुष्योंका कल्याण हो जाता है । वस्तुतः यह सर्वोत्तम साधन है । इस विषय में भी भगवान् गीतामें जगह-जगह कहते हैं
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना । श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥
सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मासे मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है ।
दैवी होषा गुणमयी मम माया मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां
( ६ । ४७ ) :
दुरत्यया । तरन्ति ते ॥ ( ७ । १४ )
यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है, परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं वे इस मायाको उल्लङ्घन कर जाते हैं अर्थात् संसारसागरसे तर जाते हैं ।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ ( १० । १० )
'उन निरन्तर मेरे ध्यानमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं ।
भक्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन । ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ॥
हे परंतप अर्जुन ! अनन्य भक्तिके द्वारा इस प्रकार चतुर्भुज रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये, तत्त्वसे जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ। मय्यावश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते । श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥
(१२१२) मुझमें मनको एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजनध्यानमें लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धासे युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वरको भजते हैं, वे मुझको योगियोंमें अति उत्तम योगी मान्य हैं।मन्मना भव मद्भको मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥
(१८। ६५) हे अर्जुन ! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको प्रणाम कर । ऐसा करनेसे तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।
इसी प्रकार गीतामें और भी बहुत-से श्लोक हैं; किंतु लेखका कलेवर न बढ़ जाय, इसलिये नहीं दिये गये। भक्तिमार्गके संतोंका ऐसा कथन है कि प्रथम कर्मयोगसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है, फिर आत्मज्ञानसे जीवको आत्माका ज्ञान प्राप्त होता है, तदनन्तर परमात्माकी भक्तिसे परमात्माका ज्ञान होकर परमपदरूप परमात्माकी प्राप्ति होती है । भक्तिमार्गके इन आचार्योंकी पद्धतिके अनुसार इनका यह क्रम बतलाना भी बहुत ही उचित है । इस मार्गके अधिकारी साधकोंको इसीके अनुसार आचरण करना चाहिये ।
आत्मज्ञान इसी प्रकार केवल आत्मज्ञानसे परमब्रह्म परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। उपर्युक्त विवेचनके अनुसार जब निष्काम कर्मके द्वारा ज्ञान होकर परमपदरूप परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है, तब आत्मज्ञानसे परमात्माकी प्राप्ति होने में तो कहना ही क्या है ? स्वयं भगवान्ने गीतामें कहा हैतद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेष्यन्ति ते शानं शानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥
Please wait while the audio list loads..
Ganapathy
Shiva
Hanuman
Devi
Vishnu Sahasranama
Mahabharatam
Practical Wisdom
Yoga Vasishta
Vedas
Rituals
Rare Topics
Devi Mahatmyam
Glory of Venkatesha
Shani Mahatmya
Story of Sri Yantra
Rudram Explained
Atharva Sheersha
Sri Suktam
Kathopanishad
Ramayana
Mystique
Mantra Shastra
Bharat Matha
Bhagavatam
Astrology
Temples
Spiritual books
Purana Stories
Festivals
Sages and Saints