जगन्नाथस्त स्मित् ऽभवद्वेदाचार्यः
द्विजकुलपयोधीन्दुसदृशो- सकलगुणयुक्तो गुरुसमः ।
स कृष्णाङ्घ्रिध्यानप्रबलतरयोगेन मनसा विशुद्धः प्रेमाद्र नवशशिकलेवाशु बवृधे ॥ २४ ॥

इति श्रीचैतन्यचरिते महाकाव्ये प्रथम प्रक्रमे अवतारानुक्रमः प्रथमः सर्गः

उक्त नवद्वीप में द्विजकुलपयोधि के इन्दु सदृश वेदाचार्य्य- वृहस्पति तुल्य सकल गुणयुक्त; श्रीकृष्ण ध्यान विधौत हृदय, प्रेमपरि प्लुतान्तः करण जगन्नाथ नामक वित्रवर उत्पन्न हुयेथे, नवशशी कला के समान जिनकी कान्ति वद्धित होती थी ||२४||

इति श्रीचैतन्यचरिते महाकाव्ये प्रथम प्रक्रमे अवतारानुक्रमः प्रथमः सर्गः

अथ तस्य
द्वितीयः सर्गः
गुरुश्चक्रे सर्वशास्त्रार्थवेदिनः ।
पदवीमिति तत्त्वज्ञः श्रीमन्मिश्रपुरन्दरः ॥१॥

तमेकदा सत्कुलीनं पण्डितं धर्मिणाम्बरम् ।
श्रीमन्नीलाम्बरो नाम चक्रवर्ती महामनाः ॥२॥

अनन्तर गुरुदेवने सर्व शास्त्रार्थ निपुणता को देखकर उनको तत्त्वज्ञमिश्रपुरन्दर पदवी से विभूषित किया ||१||
एकदिन नीलाम्बर चक्रवर्ती नामक महामनाः ब्राह्मणने- धार्मिकाग्रगण्य सनुकुलीन पण्डित की अव्यर्थना कर शचीनाम्नी स्वीय

समाहूयाददत् कन्यां शचीं स कुलकृत्शदः । तां प्राप्य सोऽपि बवृधे शचीमिव पुरन्दरः ॥३॥
ततो गेहे निवसतस्तस्य धर्मो व्यवर्द्धत ।
अतिय्यैः शान्तिकैः शौचै नित्यक म्यक्रिया फलैः ॥४॥
तत्र क लेन कियता तस्याष्टौ कन्यकाः शुभाः ।
बभूवुः क्रमशो देवात्ताः पञ्चत्वं गताः शची ॥५॥
वात्सल्य दुःखतप्तेन जगाम मनसा पतिम् ।
पुत्रार्थं शरणं श्रीमान् पितृयज्ञ चकार सः ॥६॥
कालेन कियता लेभे पुत्रं सुरसुतोपमम् ।
मुदमाप जगन्नाथो निधि प्राप्ययथाऽधनः ॥७॥

कन्या का अर्पण उनको कर दिया । पुरन्दर भी कुलरक एवं शान्ति प्रद उक्त कन्या को प्राप्त कर शचीपति इन्द्र के समान शोभित हुये थे ||३||
उस समय से उनके गृह धर्म समूह निरन्तर वद्धित होने लगे थे । एवं अतिथिसत्कार, शान्तिकर्म, शुद्धिकर्म, नित्य काम्य कर्मा- नुष्ठान के द्वारा गृहधर्म समुज्ज्वल हुआ ||४||
कियत् काल के मध्य में शुभदर्शना उनकी अष्ट कन्या हुई थीं, एवं दैवक्रम से क्रमशः वे सब पश्ञ्चत्व प्राप्त भी हुई ||५||
वात्सल्य दुःख से सन्तप्त होकर शची ने मनसा श्रीहरिकी शरण ग्रहण किया, एवं श्रीमान् जगन्नाथ ने भी पितृयज्ञका अनुष्ठान किया ||६||
कियत् कालानन्तर देवपुत्रोपम पुत्ररत्न का लाभ उन्होंने किया। एवं अधनजन जिस प्रकार धन प्राप्त होने से आनन्दित होता है-जगन्नाथ भी उस प्रकार ही आनन्दित हुये थे ॥७॥

नाम तस्य पिता चक्र श्रीमतो विश्वरूपकः ।
पठता तेन कालेन स्वल्पेनैव महात्मना ॥८॥
वेदांश्च न्यायशास्त्रञ्च ज्ञातः सद्योग उत्तमः ।
स सर्वज्ञः सुधीः शान्तः सर्वेषामुपकारकः ॥६॥
हरेर्ध्यानपरो नित्यं विषये नाकोरन्मनः ।
श्रीमद्भागवत रसास्वादमत्तो निरन्तरम् ॥१०॥
तस्यानुजो जगद्योनिरजो यज्ञे स्वयं प्रभुः ।
इन्द्राजो यथोपेन्द्रः कश्यपाददितेः सुतः ॥११॥
हरिकीर्तनपरां कृत्वा च त्रिजगतीं स्वयम् ।
उषित्वा क्षेत्रप्रवरे पुरुषोत्तमसंज्ञके ॥१२॥

पिता ने उस बालक का नाम श्रीमान् विश्वरूप रखा । महात्मा विश्वरूप ने भी स्वल्पकाल में ही वेद न्यायशास्त्र, प्रभृति शास्त्राsध्यायन से विमल बुद्धि को प्राप्त किया । एवं वह शान्त, सुधी सर्वज्ञ होकर प्राणिमात्र के उपकारार्थ आत्मनियोग किया था ||
निरन्तर श्रीहरि ध्यान परायण होने के कारण उनका मनः विषयासक्त नहीं हुआ, एवं निरन्तर श्रीमद्भागवत रसास्वादमत्त रहा ॥१०॥
उनका अनुज - जगद्योनि नित्य पुराणपुरुष स्वयंप्रभु- जिसप्रकार कश्यप अदिति से आविर्भूत होकर इन्द्र के अनुज उपेन्द्र नाम से अभिहित हुये थे, तद्रूप यहाँपर भी आत्मप्रकाश आप किये थे ||११||
एवं पुरुषोत्तमसंज्ञक क्षेत्र प्रवर में स्वयं निवासकर विजगत् को श्रीहरि सङ्कीर्त्तनपरायण किये थे ॥ १२ ॥

Ramaswamy Sastry and Vighnesh Ghanapaathi

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