यह कोमल तन, सुकुमार, कहाँ? वह कहाँ विपिन सङ्कटमय है? जिसमें वनचरों, राक्षसों का व्यालों का, बाघों का भय है ॥   अय कैसा, जब साथ है मेरे रघुकुलराज ? 

वैदेहो ने वचन यह, कहे -  छोड़कर लाज ॥ जब दर्शन सुखमय का होगा तो कानन सङ्कटमय कैसा ? सिंहिनी सिंह के साथ रहे तो उसको डर या भय कैसा? क्या कहा जानको कोमल है ? जो नहीं गमन के लायक है। जानकीनाथ, क्या है कठोर ? उनका तन वन के लायक है ? कहने को हम अबलाएँ हैं, पर हममें कितने ही बल हैं। हम कठोर से भी हैं कठोर, हम कोमल से भो कोमल हैं । सुखियों को भी दुख सहनशक्ति आती अवसर पढ़ने पर है। मन साथ लिया जाए तो फिर जङ्गल या महल बराबर है ॥ मोटे मोटे गद्दों पर भी - अनमना जिन्हें होते देखा । आपड़ा समय तो उनको ही-काँटों पर है सोते देखा ॥  रघुराई कहने लगे-  हैं यह वचन उदार किन्तु तुम्हारे गमन में बाधक एक विचार ॥

में कैसे ले चल सकता हूँ ? जब हूँ आज्ञा के बन्धन में। मँझली माँ ने यह नहीं कहा   सोता भी जाएगी वन में ॥ अब तुमका साथ ले चलूँ तो वह बात धान की जाती है। माँ कह देंगो-   वनवास   कहाँ!-जब साथ जानको जाती है?  यह सुन बोलीं जानकी-  है यदि यही विचार-

तो पहले कर चुकीं हूँ मैं इसका प्रतिकार ॥ कर चुकीं बड़ी माता मुझसे वे योगी तो तू योगिनि हो ।   दे चुकीं, मुझे भी आज्ञा यह   बाजे ! तू भी बनवासिनि हो   ॥

पति उधर श्राज्ञा पाल रहे, मैं इधर आज्ञा पालूँगी । पति अपना धर्म संभाल रहे, मैं अपना धर्म सँभालूँगो ॥ दासी है प्रभु की अर्द्धाङ्गिन, छाया को भाँति साथ में है ॥ मेरे जीवन की डोरी तो प्राणेश्वर, इसी हाथ में है ॥

जैसे दो जानन्द मीन को अथाह सागर में, मणि से हो जैसे कि जानन्द जहिफण में । चन्द्रमा के सामने चकोर को धानन्द जैसे, जैसे हो आनन्द युवती को आभरण में ॥ प्रजा को जानन्द जैसे प्रजाप्रिय राजा से ही, भक्त को आनन्द जैसे हरि की शरण में ॥ र को आनन्द जैसा राज-निधि पाए से हो, वैसा है आनन्द मुके - आपके चरण में है

मैं इस मन्दिर की हूँ पुजारिबि, मेरे प्रभुवर तुम्हीं तो हो ॥ मेरे जप तुम मेरे तप-तुम, मेरे ईश्वर तुम्हीं तो हो मैं जातकिनी, स्वाति -बिन्दु तुम, मुख चकोरिनो के तुम पन्छ ॥ मैं नलिनो हूँ, तुम

मैं भ्रमरो हूँ, तुम सूरज हो, मकरन्द ॥

शुक रोगिनि की हो तुम औषध, मुझ बीना के तुम सुखकन्द मुझ गरीबिनी के तुम घन हो, मुझ भिखारिनी के आनन्द ॥  राधेश्याम  इस अवक्षा के- बल तुम्ही तो हो, पर तुम्हीं तो हो मेरे जप तुम, मेरे तप तुम, मेरे ईश्वर तुम्ही तो हो ॥ 

नीर बहाने लग गई फिर नयनों की कोर । अब के मानो धूप में था वर्षा का जोर ॥ उधर अश्रु-जल होगया माँ को दवा -समान । इधर -  यही है तो चलो  बोले कृपानिधान ॥ कुछ ही क्षण में होगई निश्चित यह सब बात । मूर्च्छा से जबतक जगें श्रीकौशल्पा मात ॥ दिया सहारा बहु ने मिला जरा आराम । बूढ़ी आँखों ने तभी - देखा अपना राम ॥ पलभर को भूल गई मैया - कैसा वन कैसा राजतिलक । बोली- ला बहू तनिक रोली, काढूँ माथे पर आज तिलक ॥  फिर कहा -   कह गई मैं यह क्या । बेटा, तू तो वन जाता है। तन जाता है, मन जाता है, धन जाता है, जन जाता है ॥ क्या सचमुच मेरा नेह जोड़-जोड़ोगे नाता आज्ञा से ? क्या सचमुच वनवासी होगे, तोड़ोगे प्रीति अयोध्या से ? क्या सचमुच आन कर चुके हो चौदह वर्षों तक थाने की ? क्या सचमुच राजा ने तुमको, दी है-आज्ञा वन जाने की ?  यह ही कहते हुए - फिर मौन होगई मात । हाथ जोड़कर राम ने तुरत कही यह बात-  मैया, मैया क्या बतलाऊँ ? अब तो विचार ऐसा ही है। मुझको तो जैसा राजतिलक, वन जाना भी वैसा ही है ॥ मुझको भी अधिक चाकरी को है भरत आपका दास यहाँ । दुख क्या है ?

वन जा रहा एक दूसरा पुत्र है पास यहाँ ॥  

यह सच है पर एक भी वह क्यों वन को जाय ?  लगीं सोचने- उसी क्षण - माता उचित उपाय |

Ramaswamy Sastry and Vighnesh Ghanapaathi

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