भक्ति बुद्धि का नहीं बल्कि हृदय का विषय है; यह परमात्मा के लिए आत्मा की लालसा है।
हनुमान साठिका का पाठ हर दिन और विशेष करके मंगलवार को करना चाहिए । संकटों के निवारण में यह ब्रह्मास्त्र के समान है।
भारतभूमि सब रत्नोंकी प्रसावित्री है। भारतवर्ष संसारका प्रदर्शनागार कहकर, भूमण्डलमें प्रसिद्ध है । भारतवर्ष प्रकृतिका प्रियतम निकेतन है । प्रकृति देवीका उभिन भीमकान्त मूर्तिका एकत्र समावेश, भारतमें पूर्णरूपसे विकासित दीख पडवा है । या गगनस्पशीं उत्तुङ्गशृङ्ग समन्वित हिमधवलित पर्वतमाला या उत्ताल तर- मय भीतिजनक नीलवर्ण सलिलपूर्ण समुद्र, या बहुदूर प्रवाहिनी आवर्तमयी सुवि स्त्रीर्णा स्त्रोतस्वती, या वालुका राशिपूर्ण विभीषिका की साक्षात् प्रतिकृति मरुभूमि, या भीषण हिंसक श्वापदसंकुल जनमानवविहीन गहन अरण्यानी, या सौधमालाप- रिशोमित कोलाहलपूर्ण सुन्दरनगरी, या नानाविध सुरस फल पुष्प विभूषित नयन तृप्तिकर सुरम्य उपवन, या लतिका परिवेष्ठित सुमधुर पक्षिख विनादित सुविशाल वृक्षराज, या श्यामल शस्य परिशोभित कृषकके यत्न परिरक्षित शस्य क्षेत्र (धान्यका खेत), या योग मन तपस्वियोंका शान्तिरसास्पद तपोवन भारतवर्ष में किसीके टपका अभाव नहीं है। भारत विभिन्न भाषाभाषी विभिन्न धर्मावलम्बी विभिन्न जातीय लोगोंकी आवासभूमि है। भारतवर्ष भिन्न भूमण्डल के किसी प्रदेशमें जाति, धर्म, भाषा वर्ण, स्वभाव और आचारगत सम्पूर्ण वैसादृश्यका इन प्रकार एकत्र सनिवेश परिलक्षित नहीं होता । संक्षेपसे, भारतवर्षको क्षुद्रायतन पृथिवी वा छोटा भूमण्डल कहने से भी अत्युक्ति दोष नहीं होगा ।
भारत जिस प्रकार मायुक्त मनोमुग्धकर नैसर्गिक दृश्यादिमें जगत् नें सबसे श्रेष्ठ एक समय धन एवं ज्ञानरत्नसे भी भारत उसीप्रकार श्रेष्ठ आसनपर अधिष्ठित था -महामूल्य धनरत्नकी प्रसवित्री कदकर मिसरीयः फिनिसीय, इहूदी, ग्रीक, रोम्यान, आरव और सैनिक ( चिनदेशका) प्रभृति नाना प्राचीन वैदशिक जाति वाणिज्य व्यपदेश से भारत में आकर, भारतके धनसे अपना २. धनागार (खजाना ) परिपूर्ण किये । भारतका अतुल ऐश्वर्यप्राप्ति दुराशामें विमोहित होकर, नानाजातीय नाना- देशीय, दिग्विजयीगण, भारतको अपने करतलगत करनेके लिये विभिन्न समय में अयासी हुए हैं, एवं निदारुण उत्पीडनसे निरीह भारतवासीको उक्तयुक्त उत्पीडित और मयसंत्रस्त कर छोडा ।
विधम्म और विज्ञातीय वैदेशिक दस्युदलके पुनः पुनः आक्रमणले भारतवर्ष विध्वस्त, विपर्यस्त और परपदानत होता एवं भारतकी अतुलनीय धनराशि बारम्बार छुटी जाती है बहुतसे वैदशिक परिव्राजक विभिन्न समयमै चक्षुकर्णके विसम्बाद निबटाने के लिये भारत में आकर अपनी २ माषामें भारतकी यशोगीति सबंधित कर, भारतकी मनोमुग्धकर प्रतिकृति जगत् के सामने रखकर अपनी २ उदारता और महानुभावताके उदाहरण दिखला गये हैं।
प्राचीन भारत जिस प्रकार धन रत्नोंसे जगत् में सबसे श्रेष्ठ वा । जिस सभ्य पृथिवीका अधिकांश देश असभ्य आममांसमोजी अरण्याचारी मनुष्यद्वारा परिपूर्ण था उस समय भारत सभ्यताके उच्चतम चोटीपर अधिष्ठित होकर, अपने सौमा ग्यप्रमासे जग३को मुग्ध और पुलकित करता था। जिस समय सम्पूर्ण जगत् घोर- तम अज्ञानान्धकारमें समाच्छन था, जिस समय ज्ञान और सभ्यताका झीग आओ- कमी युरोप आदि महादेशमें शनैः शनैः पादविक्षेप नहीं पत्र होता था, उत समय भारत विद्या बुद्धि, ज्ञान और सभ्यता के पूर्ण आलोकसे जगत् को आलोकितकर, अविनश्वर गौरव महिमानें सविशेष गौरवान्वित हुआ था। क्या धर्म, क्या विज्ञान, यादर्शन, क्या गणित, क्या ज्योतिष क्या मैतच, क्या काव्य, क्या पुराण, क्या शिल्प, क्या वाणिज्य क्या भाषा, क्या साहित्य, सर्वविध विषयोंमें भारत संखारके शीर्ष- स्थानाय था । भारतका विज्ञान और सभ्यता आरव आदिके द्वारा युरोप छाया- जाकर युरोपके ज्ञान और सभ्यताको देदीप्यमान आलोकले समुज्ज्वल किया ईसवी सन् १००० से १७०० पर्यन्त भारतके शिष्यस्थानीय अरब, उपदेश के वरणीय पद अधिष्ठित रहकर युरोपमें विद्या और ज्ञानकी सुमियोति विकिट णपूर्वक, युरोपको समुद्रासित किया है ।
भारतका सर्वविध विषयक अभ्युदय जिस प्रकार सबकी अपेक्षा प्राचीन, उसी परि- माणसे उसका प्राचीनकालीय आख्यानमय इतिहास विद्यमान नहीं। विभिन्नपदे- शीय राजन्पवर्गकी धारावाहिक वंशावली और कीर्तिकलाप एवं सदीय आविर्भाव कालादिका विनिर्णायक, वैज्ञानिक इतिहासका प्रवेश द्वारा स्वरूप सर्वाङ्गन्दर आख्यातुमय प्राचीन इतिहास केवल भारतवर्षहीका क्यों, स्रोत, रोम, मिसर, फिनि सिया, एसिरिया, बेविलन पार्थिवा पारस्य और चीन प्रमृति किसी देशका सर्वोङ्गीन मासे विद्यमान नहीं । काल्पनिक उपन्यास और जनश्रुति, सबही देशोंमें अति- प्राचीनकालीय अतीतसाक्षी इतिहासका वरणीय पदपर समासीन रहा है। किन्तु जो इतिहास अतीतका एकमात्र वर्षीयान् यपक्षपाती खाझी जा इतिहास प्रकृत म स्तावसे समाजका अभ्रान्त उपदेश और परिचालक, जो इतिहास मानवजीवनका और मानवसमाजका यथा यथा प्रतिकृति अतिकर, समाजका आविर्भाव उन्नति और अवनति यथोचित कारण, निर्देशपूर्वक अभ्रान्तरूपसे प्रदर्शन करता जो इतिहास सुनिपुण शिल्पविका सुकौशल विचित्रित विचित्र फूडकी नाई समाजका यथार्थतच सुस्पष्टरूप से प्रकट करता है। सुबिमल स्वच्छ दर्पणकी नाई जिसमें -समाजकी यथायय प्रतिकृति प्रतिभाषित होती है उस वैज्ञानिक इतिहासका यचोपयुक्त उपकरण प्रचुररूपसे संस्कृतसाहित्यमें विद्यमान रहा है । संस्कृतसाहित्यम भारतीय आर्यजातिका जातीय जीवन, जातीय इतिहास, जातीय चरित्र, जातीय धर्म, जातीय ज्ञान और जातीय विद्या, बुद्धि, जातीय रीति, नीति और जातीय सभ्यता स्वर्णाक्षरमें सुस्पटरूपसे लिपीबद्ध है। भारत किस समय जो अद्वितीय नाइडर, प्रोट, जिबनवा प्रेङ्कट आविर्भूत होकर इन सब बहुमूल्य ऐतिहासिक तस्व एकत्र संग्रहीतकर जगत्को अच्छी प्रकार दिखलाकर विमोहित करेगा सो भगवान जाने ।
जो आर्यजाति अतुःसाहस, विक्रम, तेजस्विता और मनस्विता प्रभाव से भूमण्ड लमें अक्षय कीर्ति लाभकरमयी, जो आर्यजाति एकदा पृथिवीमेंस विषय सर्वश्रेष्ठ जाति कहकर परिगणित हुई थी। जो आर्यजाति ज्ञान और सभ्यताका बिमल आलोक में जगत्को उद्भासित कर, जगत् के शिक्षा गुरु बहुसम्माननाई वरणीय पदपर अधिरुढ थी जिस मायजातिके गौरव प्रभाव से भारतवर्षका इतिहासके शी- पंस्थान में बिराज रहा है । जिस आर्यजातिके वंशधर कहकर हमलोग परपददलित दोफरमी अद्यापि सभ्यसमाजमें ससम्मानसे परिगृहीत होते हैं, उसी जगतगुरु आ- य्यजातिके पवित्र कीर्तिपूर्ण इतिहास आज अदृष्टचक्र के आवर्तन से कीर्ति विलोप कारी कालकाल के विस्मृति कवल (ग्रास) में निहित है। व्यास, वाल्मीकि, कालि- दास प्रभृति जिस देशके कवि, पाणिनि, पतझालं प्रभृति जिस देशके वैयाकरण, कपिल, कणाद और गौतम प्रभृति जिस देशके दार्शनिक - चरक, सुश्रुत आदि जिस देश के चिकित्सक, मनु, नारद, बृहस्पति, रघुनन्दन प्रभृति जिस देशके धर्मों- पदेष्टा - आर्यभट्ट पराशरादि जिस देशका ज्योतिर्वित, बुद्ध, शङ्कराचार्य, रामानुज मध्वाचार्य आदि जिस देशके धर्म प्रचारक, मल्लिनाथ, सायनाचार्य आदि जिस देशक माष्यकार अमरसिंह, महेश्वर आदि जिस देशके कोषकार-उस भारत विल- समाय गौरवके उद्धारसाधनार्थ अतीतसाक्षी इतिहासके आश्रय अवलम्बन करनेके लिये निश्रेष्ठ, निष्कय परपदानत मारतवासी आर्यसन्तानकी प्रवृत्ति और उत्साह उत्पन्न नहीं होता। जो जाति पूर्वपुरुषाओंके कीर्ति कल्याणका यथायोग्य आदर और सम्मान करना नहीं जानती, जो जाति आत्मगौरव और आत्माभिमानके मम् हृदयङ्गम करने में समर्थ नहीं होती, उस जातिका अभ्युदय सुदूर पराइत, उस जातिका पतन और परपदानति, अवश्यम्भावी। इसी कारण विधाताने भारतके भाग्यमें ऐसी दशाविपर्यय अदृष्ट नेमिका इस प्रकार निदारुण परिवर्तन लिख क्खा है एवं स्वाधीनता साथ २ भारतकी विद्या, बुद्धि, ज्ञान, धर्म, कीर्ति, गरिमा, समस्त विलुप्त किया है जिस भारत निकटसे शिक्षा खामकर, युरोपादि सुलभ्यदेश-
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