दण्डकारण्य में शिव को श्रीराम के प्रति मस्तक झुकाते देख सती का मोह तथा शिव की
आज्ञा से उनके द्वारा श्रीराम की परीक्षा
नारदजी बोले - ब्रह्मन् ! विधे! प्रजानाथ! महाप्राज्ञ! दयानिधे! आपने भगवान् शंकर तथा देवी सती के मंगलकारी सुयश का श्रवण कराया है। अब इस समय पुनः प्रेमपूर्वक उनके उत्तम यश का वर्णन कीजिये। उन शिव-दम्पति ने वहाँ रहकर कौन-सा चरित्र किया था?
ब्रह्माजी ने कहा - मुने! तुम मुझसे सती और शिव के चरित्र का प्रेम से श्रवण करो। वे दोनों दम्पति वहाँ लौकिकी गति का आश्रय ले नित्य-निरन्तर क्रीडा किया करते थे। तदनन्तर महादेवी सती को अपने पति शंकर का वियोग प्राप्त हुआ, ऐसा कुछ श्रेष्ठ बुद्धिवाले विद्वानों का कथन है। परंतु मुने! वास्तव में उन दोनों का परस्पर वियोग कैसे हो सकता है? क्योंकि वे दोनों वाणी और अर्थ के समान एक-दूसरे से सदा मिले-जुले हैं, शक्ति और शक्तिमान् हैं तथा चित्स्वरूप हैं। फिर भी उनमें लीला-विषयक रुचि होने के कारण वह सब कुछ संघटित हो सकता है। सती और शिव यद्यपि ईश्वर हैं तो भी लौकिक रीतिका अनुसरण करके वे जो-जो लीलाएँ करते हैं, वे सब सम्भव हैं। दक्षकन्या सतीने जब देखा कि मेरे पति ने मुझे त्याग दिया है, तब वे अपने पिता दक्षके यज्ञ में गयीं और वहाँ भगवान् शंकरका अनादर देख उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया। वे ही सती पुनः हिमालयके घर पार्वती के नाम से प्रकट हुईं और बड़ी भारी तपस्या करके उन्होंने विवाहके द्वारा पुनः भगवान् शिव को प्राप्त कर लिया। सूतजी कहते हैं - महर्षियो! ब्रह्माजी की यह बात सुनकर नारदजी ने विधातासे शिवा और शिवके महान् यश के विषयमें इस प्रकार पूछा।
महर्षि व्यास का असली नाम है कृष्ण द्वैपायन। इनका रंग भगवान कृष्ण के जैसा था और इनका जन्म यमुना के बीच एक द्वीप में हुआ था। इसलिए उनका नाम बना कृष्ण द्वैपायन। पराशर महर्षि इनके पिता थे और माता थी सत्यवती। वेद के अर्थ को पुराणों और महाभारत द्वारा विस्तृत करने से इनको व्यास कहते हैं। व्यास एक स्थान है। हर महायुग में एक नया व्यास होता है। वर्तमान महायुग के व्यास हैं कृष्ण द्वैपायन।
दिये में अग्निदेव का सान्निध्य है। घर के मुख्य द्वार पर दिया जलाने से अग्निदेव नकारात्मक शक्तियों को घर में प्रवेश करने से रोकते हैं।
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