पाण्डवों और कौरवों के बीच अनबन किस बात की थी?
पाण्डवों ने सोचा हमारा अधिकार न्यायानुसार है, धर्मानुसार है।
कौरवों ने सोचा 'वीरभोग्या वसुन्धरा' — क्षत्रिय को अपने बाहुबल से ही जमीन की प्राप्ति होती है।
हमेशा ऐसा ही रहा है। इसके सिवा इसमें न्याय या धर्म की बात नहीं है।
जो ताकतवर है, उसकी जमीन।
धृतराष्ट्र इस युद्ध में तटस्थ थे। वे युद्धभूमि में नहीं थे।
फिर भी उनमें आशंका थी युद्ध के परिणाम के बारे में, क्योंकि परिणाम का असर उनके ऊपर भी पड़ेगा।
ऐसा भी नहीं था कि वे निष्पक्ष थे। युद्ध का बीज उन्होंने ही तो बोया था।
कुरुवंश एक ही था। उसे कौरव और पाण्डव ऐसे विभक्त किया किसने?
धृतराष्ट्र ने। उनके पुत्र मोह ने।
धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं:
'वहां क्या हुआ मेरे पुत्रों और पाण्डवों के बीच, उस धर्मक्षेत्र में, कुरुक्षेत्र में?'
जब धृतराष्ट्र यह सवाल करते हैं, उनके मन में दो प्रकार के भय हैं —
एक, युद्ध में पराजय का भय; अपने पुत्रों के स्थान, मान-सम्मान रहित होने का भय।
दूसरा, धर्म भय – उनको अच्छे से पता है कि कौरवों ने अधर्म किया है।
इसका न केवल यहां, परलोक में भी उन्हें फल भुगतना होगा।
यह कैसा रहेगा? पुत्रों को ही नहीं, धृतराष्ट्र को भी।
जो कुछ भी हुआ था, धृतराष्ट्र की अनुमति के बिना नहीं हो सकता था।
तो फल उन्हें भी भुगतना पड़ेगा।
अधर्म होते समय उसे चुपचाप देखते रहना या उसको अनुमति देना —
उसे रोकने की क्षमता है आप में, फिर भी आप ऐसा नहीं करते हो, यह भी पाप है।
'मुझे क्या लेना देना, जाने दो' — यह भी पाप है, उसका भी फल भुगतना पड़ेगा।
यहां प्रत्यक्ष धृतराष्ट्र अधर्म को रोक सकते थे, राजा होने के नाते, पिता होने के नाते।
उन्होंने नहीं किया — इसलिए धर्म भय।
'पराजित होने पर पाण्डव मेरे साथ क्या करेंगे? जिन्होंने भीष्म पितामह को भी मार गिराया, वे मेरे साथ क्या करेंगे?'
ऐसे दो प्रकार के भय।
धृतराष्ट्र ने वास्तव में कई सवाल किए संजय से —
इन दोनों पक्ष के योद्धाओं में से कौन हर्ष से भरकर पहले युद्ध में प्रवृत्त हुए?
किनके मन में उत्साह भरा था?
कौन दीन दिखाई दे रहा था?
किस पक्ष के सैनिक गंध, माल्यादि धारण किए हुए थे?
क्योंकि वही पक्ष समझता होगा कि हम पूजा जैसे अच्छे कार्य को करने जा रहे हैं —
यह युद्ध धर्म का अनुष्ठान है।
ऐसे समझकर वे लड़ने आए हैं।
किस पक्ष के सैनिकों की वाणी में उत्साह के साथ-साथ उदारता भी थी?
संजय कहते हैं —
दोनों पक्षों ने गंधादि धारण कर रखा था।
कौरव भी अपने आप को धर्मी ही समझते थे।
दोनों पक्ष ही हर्ष से भरे हुए थे।
दोनों ही पक्ष युद्ध के लिए सुसज्ज थे, व्यूहों से बद्ध थे।
जब लड़ाई शुरू हुई तो दोनों पक्ष में कोलाहल और संघर्ष होने लगा।
शंख और भेरी जैसे वाद्य बज रहे थे।
दोनों पक्ष के शूरों का गर्जन सबसे ऊपर सुनाई दे रहा था।
सैनिकों के गर्जन के साथ-साथ हाथियों की भी आवाज सुनाई दे रही थी।
धृतराष्ट्र के मन में क्षोभ — 'क्या हुआ, क्या किया?'
यह क्षोभ इसलिए था कि धृतराष्ट्र को खुद पता था कि अधर्म हुआ है, अन्याय है।
उनके लिए यह युद्ध केवल अपने राज्य और जमीन को बचाने के लिए था।
जिनके लिए यह धर्म युद्ध था — उनका सोच रहेगा:
अगर जीत तो न्याय से अर्जित राज्य मिलेगा।
अगर हार गए तो भी वीरमृत्यु के लिए स्वर्ग मिलेगा और धर्म के साथ रहने का अभ्युदय।
धृतराष्ट्र को एक और डर था —
कुरुक्षेत्र धर्म क्षेत्र है, पवित्र क्षेत्र है, यहां दैवी शक्तियां प्रबल हैं।
यह क्षेत्र कभी मेरे अधर्मी पुत्रों का साथ देगा क्या?
'मामकाः पाण्डवाश्चैव' —
धृतराष्ट्र विद्वान थे, कोई उजड्ड बदमाश नहीं था।
बुद्धिमान थे, अनुभवी थे।
तब भी वे इस अवस्था में कैसे पहुंचे?
इसका जवाब इससे मिलता है — 'मामकाः पाण्डवाश्चैव' —
यह 'मेरा – यह तेरा', 'मेरे और पाण्डु के' —
जितनी ममता पुत्र, भार्या, इनके साथ बढ़ाते जाओगे, उतना ज्यादा कीचड़ में फँसोगे।
दृष्टिकोण का संकोच होगा।
अविवेक का उदय होगा।
आगे चलकर क्या कर सकते हैं, क्या नहीं कर सकते — इसका पता नहीं चलेगा।
मन में अशांति का उदय होगा।
दूसरों से कैसे छीनना है, दूसरों से कैसे बचाना है — ये विचार मन में अशांति को उत्पन्न करेंगे।
विद्वान होने के बावजूद धृतराष्ट्र की बुद्धि का विनाश इसी ममता ने किया।
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