एक समय, योगभ्यास करने की इच्छा वाले साधक चण्डकापालि नामक अधिकारी शिष्य ने श्री घेरण्ड मुनि के कुटी में जाकर नम्रता पूर्वक भक्ति से उन्हें प्रणाम करके योग - विषयों को पूछा।
हे योगेश! तत्त्वज्ञान का कारण घटस्थयोग है, इस समय उसे ही मैं जानना चाहता हूं।
हे प्रभो, हे योगेश्वर, उसे कृपापूर्वक आप मुझसे कहें।
हे महाबाहो चण्ड, मैं तुम्हारे इस प्रश्न के लिए अनेक साधुवाद देता हूं।
हे प्रिय! जिस विषय को तुम सुनना चाहते हो, उसे मैं कहता हूं।
सावधानी पूर्वक सुनो।
शाम्भवीमुद्रा
नेत्राञ्जनं समालोक्य आत्मारामं निरीक्षयेत्। साभवेच्छाम्भवी मुद्रा सर्वतन्त्रेषुगोपिता।६४। वेदशास्त्र पुराणानि सामान्य गणिका इव। इयन्तु शाम्भवीमुद्रा गुप्ताकुलवधूरिवा६५। स एव आदिनाथश्च स च नारायणः स्वयम् स च ब्रह्मा सृष्टिकारी यो मुद्रां वेत्ति शाम्भवीम्।६६। सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्यमुक्तं महेश्वरः।
शाम्भवीं यो विजानाति स च ब्रह्म न चान्यथा।६७। भावार्थ - भ्रूयुगुल के बीच में दृष्टि को स्थिर कर, एकाग्र मन से चिंता योग पूर्वक परमात्मा का दर्शन करें; इसे शाम्भवीमुद्रा कहते हैं। यह सब तंत्रों में गुप्त रूप से कही गयी है। वेदादि शास्त्र सामान्य गणिका की तरह प्रकाशित है, परन्तु यह शाम्भवी मुद्रा कुलवधू की तरह परम गोपनीय है। जो इसका अभ्यास करता है वह आदिनाथ है, वह नारायण तथा सृष्टिकर्ता ब्रह्म स्वरूप है। मैं सत्य कहता हूं, शाम्भवी को जानने वाला साक्षात् ब्रह्म स्वरूप ही है।
पञ्चधारणामुद्रा
कथिता शाम्भवी मुद्रा शृणुष्व पञ्चधारणाम्। धारणानि समामाद्य किं न सिध्यतिभूतले।६८।
अनेन नरदेहेन स्वर्गेषुगमनागमम्।
मनोगतिर्भवेत्तस्य खेचरत्वं न चान्यथा।६९। भावार्थ - शाम्भवी मुद्रा कही गयी, अब पञ्चधारणा कहते हैं। इन पांचों धारणाओं के सिद्ध होने पर ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जो सिद्ध न हो सके। इन धारणाओं की सिद्धि होने से मनुष्य शरीर से ही स्वर्ग में आना-जाना होता है। मनुष्य इससे मनागांत आर खचरात्व का पा सकता है।
पार्थिवीधारणा
यत्तत्वं हरितालदेश रचितं भौमं लकारान्वितं,
वेदास्तंकमलासनेन सहितम्कृत्वाहृदिस्थापिनम्। प्राणांस्तत्रविनीय पंचघटिकां चिन्तान्वितां धारये
देषास्तंभकरी ध्रुवंक्षितिजयं कुर्यादधोधारणाम्।७०।
भावार्थ - पृथ्वी तत्व का वर्ण हरताल के समान है। वीज 'लँ', चौकोन आकृति, ब्रह्मदेवता है। योग बल से इसे उदय कर हृदय में धारण कर, दो घंटे प्राण के निरोध-पूर्वक, कुम्भक करें; इसे पार्थिवी मुद्रा कहते हैं। इसे ही अधोधारणा-मुद्रा भी कहते हैं। इसके सिद्ध होने पर योगी पृथ्वी जय होता है। अर्थात् पृथ्वी सम्बन्धी घटना से उसकी मृत्यु नहीं होती 1701
पार्थिवीधारणामुद्रां य करोति हि नित्यशः। मृत्युञ्जयः स्वयं सोऽपि स सिद्धो विचरेद्भुवि।७१।'
भावार्थ - जो इस पार्थिवीधारणा को करता है वह मृत्यु को जीतकर, सिद्ध होकर पृथ्वी में विचरता है।71 तंत्रों में इसे अन्य प्रकार से भी कहा है -
पृथिवीधारणां वक्ष्ये पार्थिवेभ्योभयापहाम्। नाभेरधो गुदस्योर्ध्व घटिकां पंचधारयेत्।। वायुं ततो भवेत् पृथिवी धारणां तद्भयापहाम्। पृथिवीसम्भवात् तस्य न मृत्युयोगिनी भवेत्।
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