केनोपनिषद् सामवेदीय तलवकार ब्राह्मणके अन्तर्गत हैं । इसमें आरम्भसे लेकर अन्तपर्यन्त सर्वप्रेरक प्रभुके ही स्वरूप और प्रभावका वर्णन किया गया है। पहले दो खण्डों में सर्वाधिष्ठान परब्रह्मके पारमार्थिक स्वरूपका लक्षणासे निर्देश करते हुए परमार्थज्ञानकी अनिर्वचनीयता तथा ज्ञेयके साथ उसका अभेद प्रदर्शित किया है । इसके पश्चात् तीसरे और चौथे खण्डमें यक्षोपाख्यानद्वारा भगवान्का सर्वप्रेरकत्व ‘और सर्वकर्तृत्व दिखलाया गया है। इसकी वर्णनशैली बड़ी ही उदात्त और गम्भीर है । मन्त्रोंके पाठमात्रसे ही हृदय एक अपूर्व मस्तीका अनुभव करने लगता है । भगवंती श्रुतिकी महिमा अथवा वर्णन - शैलीके सम्बन्धमें कुछ भी कहना सूर्यको दीपक दिखाना है ।
इस उपनिषद्का विशेष महत्त्व तो इसीसे प्रकट होता है कि भगवान् भाष्यकारने इसपर दो भाष्य रचे हैं। एक ही ग्रन्थपर एक ही सिद्धान्तकी स्थापना करते हुए एक ही ग्रन्थकारद्वारा दो टीकाएँ लिखी गयी हों—ऐसा प्रायः देखा नहीं जाता । यहाँ यह शङ्का होती है कि ऐसा करने की उन्हें क्यों आवश्यकता हुई ? वाक्य भाष्यपर टीका आरम्भ करते हुए श्री आनन्दगिरि खामी कहते हैं - 'केनेषितमित्यादिकां सामवेदशाखा- भेदब्राह्मणोपनिषदं पदशो व्याख्यायापि न तुतोष भगवान् भाष्यकारः शारीरकैर्न्यायैरनिर्णीतार्थत्वादिति न्यायप्रधानश्रुत्यर्थसंग्राहकैर्वाक्यैर्व्या-
चिख्यासुः
अर्थात् 'केनेषितं' इत्यादि सामवेदीय शाखान्तर्गत ब्राह्मणोपनिषद्की पदशः व्याख्या करके भी भगवान् भाष्यकार सन्तुष्ट नहीं हुए, क्योंकि उसमें उसके अर्थका शारीरकशास्त्रानुकूल युक्तियोंसे निर्णय नहीं किया गया था, अतः अब श्रुत्यर्थका निरूपण करनेवाले न्यायप्रधान वाक्योंसे व्याख्या करनेकी इच्छासे आरम्भ करते हैं।
इस उद्धरणसे सिद्ध होता है कि भगवान् भाष्यकार ने पहले पद- भाष्य की रचना की थी। उसमें उपनिषदर्थकी पदशः व्याख्या तो हो गयी थी; परन्तु युक्तिप्रधान वाक्योंसे उसके तात्पर्यका विवेचन नहीं हुआ था। इसीलिये उन्हें वाक्य भाष्य लिखने की आवश्यकता हुई । पद-भाष्यकी रचना अन्य भाष्योंके ही समान है। वाक्य भाष्य में जहाँ- तहाँ और विशेषतया तृतीय खण्डके आरम्भमें युक्ति-प्रयुक्तियोंद्वारा परमतका खण्डन और खमतका स्थापन किया गया है । ऐसे स्थानों में भाष्यकारकी यह शैली रही है कि पहले शङ्का और उसके उत्तरको एक सूत्रसदृश वाक्यसे कह देते हैं और फिर उसका विस्तार करते हैं; जैसे प्रस्तुत पुस्तकके पृष्ठ ३ पर 'कर्मविषये चानुक्तिः तद्विरोधित्वात् ' ऐसा कहकर फिर 'अस्य विजिज्ञासितव्यस्यात्मतत्त्वस्य कर्मविषयेऽवचनम् ' इत्यादि ग्रन्यसे इसीकी व्याख्या की गयी है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पद भाष्य में प्रधानतया मूलकी पदशः व्याख्या की गयी है और वाक्य - भाष्यमें उसपर विशेष ध्यान न देकर विषयका युक्तियुक्त विवेचन करनेकी चेष्टा की गयी है । अँग्रेजी और बँगलामें जो उपनिषद्-भाष्यके अनुवाद प्रकाशित हुए हैं उनमें केवल पद-भाष्यका ही अनुवाद किया गया है, पण्डितवर श्रीपीताम्बरजीने जो हिन्दी अनुवाद किया था उसमें भी केवल पद भाष्य ही लिया गया था । मराठी भाषान्तरकार परलोकवासी पूज्यपाद पं० श्रीविष्णुवापट शास्त्रीने केवल वाक्य-भाष्यका अनुवाद किया है। हमें तो दोनों ही उपयोगी प्रतीत हुए; इसलिये दोनोंहीका अनुवाद प्रकाशित किया जा रहा है । अनुवादोंकी छपाईमें जो क्रम रक्खा गया है उससे उन दोनोंको तुलनात्मक दृष्टिसे पढ़ने में बहुत सुभीता रहेगा । आशा है, हमारा यह अनधिकृत प्रयास पाठकोंको कुछ रुचिकर हो सकेगा ।
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