ऐसी काशी जिसका रहस्य गोपनीय है, जिसकी महिमा त्रिलोक में सदैव प्रथित है, जो सभी लोकों में श्लाघनीय है, जो सभी तीर्थों में पूजनीय है, ऐसी काशी की महिमा को मैं क्षुद्र प्राणी क्या कह सकता हूँ ? जिससे मैं स्वयं अनभिज्ञ हूँ। जिस प्रकार से शिशु माँ के द्वारा प्रदत्त दूध को सहर्ष पान कर लेता है, किन्तु वह उसके ज्ञान से शून्य रहता है। वह यह नहीं जानता कि माँ क्या है ? यह दूध कहाँ से लाती है ? उसको यह भी पता नहीं कि यह दूध माँ के रक्त से ही निर्मित है। मां आज भोजन की है कि नहीं? उसे बिल्कुल ही ज्ञान नहीं रहता है । वह तो उदर पूर्ति के लिए मातृ-स्तन से सदा सलिहित रहता है । आज अन्नपूर्णा अन्न देना बन्द कर दें, भगवान शिव मुक्ति देना बन्द कर दें, तब देखें काशी की दशा। तब हम काशी को काशी नहीं कहेंगे। जिस प्रकार कोई बालक पिता द्वारा प्राप्त वस्तु को। केवल खाना ही जानता है । वह इतना ही कहेगा कि पिताजी ने दिया है, नहीं तो इतना भी नहीं कहेगा। पिताजी क्या हैं? वह क्या करते हैं ? उसे कुछ भी ज्ञान नही । जिस प्रकार मैं काशी में रहते हुए काशी की महिमा से अनभिज्ञ हैं। जबकि काशी को मैंने अपनी जन्म-भूमि और कर्मभूमि दोनों स्वीकार कर लिया है। काशीपति विश्वनाथ जी की कृपा और अन्नपूर्णा की गोद में सपरिवार निवास कर रहा हूँ । माँ का विस्तृत आँचल हमारे ऊपर से आच्छादित है। फिर भी मैं इन सबकी महिमा से अनभिज्ञ है। क्या अपनी परमसाध्वी, सत्यव्रता, कल्मषापहारिणी, मोक्षदायिनी माँ की महिमा को एक कुपुत्र, अज्ञानी लोभी पुत्र जान सकता है? क्या अघनाशिनी सुरसरि के विमल स्निग्ध वारि को दूषित वापी में स्नान करने वाला व्यक्ति अभिव्यजित कर सकता है ? उसी प्रकार काशी की महिमा से मैं अपरिचित हैं। लेकिन मेरा दोप भी नहीं है। क्योंकि
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