शुकदेव क्यों संन्यासी बनना चाहते थे

उपनयन से पहले ही शुकदेव अपना घर छोडकर संन्यास लेना चाहते थे। जानिए क्यों?

हम श्रीमद्भागवत के पहले स्कंध का दूसरा अध्याय शुरू करने जा रहे हैं। पहला श्लोक इति संप्रश्नसंहृष्टो विप्राणां रौमहर्षणिः। प्रतिपूज्य वचस्तेषां प्रवक्तुमुपचक्रमे॥ यहाँ विप्र शब्द का विशेष महत्व है। आम तौर पर इस....

हम श्रीमद्भागवत के पहले स्कंध का दूसरा अध्याय शुरू करने जा रहे हैं।
पहला श्लोक
इति संप्रश्नसंहृष्टो विप्राणां रौमहर्षणिः।
प्रतिपूज्य वचस्तेषां प्रवक्तुमुपचक्रमे॥
यहाँ विप्र शब्द का विशेष महत्व है।
आम तौर पर इसका मतलब ब्राह्मण होता है।
लेकिन यहाँ धातु है प्रा पूरणे
विशेषेण वक्तारमात्मानं च भक्त्या पूरयन्तीति विप्राः
यहाँ के विप्रों, ऋषियों ने वक्ता और स्वयं दोनों को भक्ति से भर दिया है।
वे भगवान की कहानियों को सुनने के लिए इतने उत्सुक हैं कि उन्होंने सूत को भी भक्ति से भर दिया है।
रौमहर्षणी का अर्थ है रोमहर्षण का पुत्र, सूत, उग्रश्रवा जो भागवत को सुनाने जा रहा है।
जैसा कि हमने पहले देखा था, सूत के पिता रोमहर्षण जब भी पुराण सुनाते थे, तो श्रोताओं के रोंगटे खड़े हो जाते थे।
केवल रोमहर्षण ही नहीं, उनके पुत्र उग्रश्रवा में भी यही गुण है।
इसके अलावा, ऋषियों के उत्साह को देखकर, सूत जी भी भक्ति से ओत-प्रोत हो गये।
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि॥

सूत जी शुकदेव को नमस्कार कर रहे हैं।
शुकदेव पिछले जन्म से ही पूर्णज्ञानी थे।
वे परब्रह्म-स्वरूपी थे।
वे संसार का त्याग कर रहे थे और अपना उपनयन करने से पहले ही चले जा रहे थे।
उपनयन किसके लिए है?
उपनयन के बाद ही आप वेदों को सीखना शुरू कर सकते हैं।
लेकिन शुकदेव के पास सीखने के लिए कुछ बाकी ही नहीं है।
उनका ज्ञान अभी भी पूर्ण है।
वेदों को सीखने के बाद, आप श्रुति और स्मृति में बताए गये धार्मिक कार्य करते हैं।
ऐसे कार्य जो आपको शुद्ध करेंगे और आपको स्वर्गलोक या सत्यलोक जैसे उच्च लोकों के लिए योग्य बनाएंगे।
लेकिन शुकदेव पहले ही परब्रह्म को प्राप्त कर चुके हैं।
उनके लिए ये सारेलोक तुच्छ हैं।
उपनयन जैसे संस्कार पवित्रता प्राप्त करने के लिए किया जाता है, आत्मा की मन की और शरीर की पवित्रता।
लेकिन शुकदेव के शरीर को इससे अधिक पवित्रता की आवश्यकता नहीं है, यह पहले से ही पूर्ण रूप से शुद्ध है।
उन्होंने व्यास जी के पुत्र के रूप में जन्म लिया है जो स्वयं श्रीहरि के अवतार हैं।
शुकदेव ने शरीर प्राप्त किया है व्यास जी से।
उनका शरीर पहले से ही शुद्ध है।
तो फिर उनका उपनयन क्यों करना चाहिए?
इसलिए शुकदेव ने इन सब से दूर जाने का फैसला किया।
प्रव्रजन्तं- प्रव्रज्या अर्थ है संन्यास, पूर्ण त्याग।
वे संसार से लगाव के डर से और उस ऊंचाई से गिरने के डर से दूर जा रहे हैं जिस पर वे पहले से ही हैं।
अपने पिता के स्नेह और संरक्षण से लगाव।
पास-पडोस से लगाव।
आश्रम की सुविधाओं से लगाव।
लेकिन व्यास जी उनके पीछे जा रहे हैं, पुत्र..पुत्र कहकर पुकार रहे हैं।

व्यास जी की चिंता क्या है?
व्यास जी यहाँ थोड़ा भ्रमित हैं।
श्लोक में द्वैपायन कहा गया है।
व्यास जी का जन्म द्वीप पर हुआ था, इसकी याद दिलाने।
यह दिखाने के लिए है कि व्यास जी भगवान के अवतार हैं।
यमुना के बीच का द्वीप, भगवान की प्रिय यमुना।
ऋषि पाराशर ने भगवान का ध्यान किया और उनका जन्म यमुना के बीच में एक द्वीप पर हुआ। और उनकी मां सत्यवती उनके जन्म के बाद भी कुंवारी रहीं।
शुकदेव की कोई माता नहीं है।
उनका जन्म व्यास जी के बीज से हुआ था जो अरनी पर गिर गया था, अरनी जिससे हवन के लिए अग्नि मंथन करते हैं।
व्यास जी थोड़ा भ्रमित हैं क्योंकि वे भूल गये हैं कि वे वास्तव में कौन थे।
जब नारद जी ने उन्हें बाद में याद तब व्यास जी को एहसास हुआ कि वे वास्तव में कौन थे।
व्यास जी का अपने पुत्र के प्रति लगाव है।
वे अपने पुत्र से अलग नहीं होना चाहते।
वे शुकदेव को जाने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं।
पुत्र..पुत्र... कहकर पीछे पीछे जा रहे हैं।
व्यास जी जानते हैं कि शुकदेव संन्यास के लिए जा रहे हैं।
लेकिन ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य और वानप्रस्थ के आश्रमों से गुजरने के बाद ही संन्यास ग्रहण करना चाहिए।
शास्त्रों में यही मार्ग बताया गया है।
ब्रह्मचर्य में प्रवेश करने से पहले ही शुकदेव
सन्यासी बनने जा रहे हैं
क्या इससे परम्परा नहीं टूटेगी?
क्या यह ठीक है?
शुकदेव के मन में शायद यह भय है कि वे संसार में आसक्त हो जाएंगे।
इसका मतलब है कि भगवान उसके मन में नहीं हैं।
यदि उसके मन में भगवान रहते तो उन्हें किसी भी बात का भय कैसे हो सकता है?
ये थी व्यास जी की चिंताएं।
शुकदेव ने व्यास जी को उत्तर नहीं दिया।
पुत्र..पुत्र
वे किसी का पुत्र नहीं हैं।
वे परब्रह्म हैं।
वे ध्यान नहीं दे रहे थे कि व्यास जी उन्हें ही पुत्र कहकर पुकार रहे हैं।
लेकिन पेड़ों ने जवाब दिया।
पेडों ने कहा पुत्र..पुत्र व्यास जी से
पेडों ने व्यास जी को पुत्र कहकर बुलाया।
शुकदेव परब्रह्म हैं।
यानी वे सब कुछ हैं।
पेड़ भी वे ही हैं।
वे उनसे अलग नहीं हैं।
व्यास जी यदि शुकदेव को पुत्र कह सकते हैं, तो शुकदेव व्यास जी को भी पुत्र कह सकते हैं।
पिता-पुत्र का रिश्ता अपने आप में एक भ्रम है।
तब रह गया पुत्र का शाब्दिक अर्थ ।
पुन्नाम नरकात् त्रायत इति पुत्रः
जो कोई आपको पुं नामक नरक में गिरने से बचाता है, वह आपका पुत्र है।
​यह देखकर कि शुकदेव व्यास जी की पुकार को अनसुना कर रहे हैं, वृक्ष उनकी ओर से उत्तर दे रहे हैं।
क्योंकि शुकदेव ने पूरे ब्रह्मांड में, सब कुछ के साथ तन्मयी-भाव को प्राप्त किया है।
शुकदेव स्वयं वृक्षों के रूप में, वृक्षों के माध्यम से उत्तर दे रहे हैं।
अगर मैं आपका पुत्र हूं तो आप भी मेरे पुत्र हो।
यह जान लो कि कोई पिता नहीं है, कोई पुत्र नहीं है।

शुकदेव व्यास जी को इस बात की याद दिला रहे हैं।
पेड़ों के उत्तर देने के दो और कारण हैं।
वेद कहता है- वैष्णवा वै वनस्पतयः
वृक्ष वैष्णव हैं।
शुकदेव वैष्णव हैं।दोनों समान हैं।
वेद कहता है- वाग्वै देवेभ्योऽपाक्रामद्यज्ञायातिष्ठमाना सा वनस्पतीन्प्राविशत्सैषा वाग्वनस्पतिषु वदति
वाक ने पेड़ों में प्रवेश किया।
वाक का पेड़ों में सान्निध्य है।
वे बोल सकते हैं।
भागवत और वेद के बीच एक और स्पष्ट संबंध।
वेद के तत्त्व ही भागवत में हैं।

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