शुकदेव बोले: मैं कदापि गृहस्थाश्रम को स्वीकार नहीं करने वाला क्यों कि यह जाल के समान है जिससे जानवरों को और चिडियों को पकडते हैं। इसमें फसने से आदमी धन और धान्य के लिये व्याकुल होने लगता है, गरीबी से डरने लगता है, अपने परिवार को ल....
शुकदेव बोले: मैं कदापि गृहस्थाश्रम को स्वीकार नहीं करने वाला क्यों कि यह जाल के समान है जिससे जानवरों को और चिडियों को पकडते हैं।
इसमें फसने से आदमी धन और धान्य के लिये व्याकुल होने लगता है, गरीबी से डरने लगता है, अपने परिवार को लेकर चिन्ताग्रस्त रहता है, लोभी बन जाता है।
किसी को तप करते हुए देखने पर इन्द्र में असुरक्षता आ जाती है, वे उस तपस्या मे विघ्न डालने लगते हैं।
ब्रह्मा जी कहाँ सुखी रहते हैं?
लक्ष्मी को पत्नी के रूप में पाने पर भी भगवान विष्णु कहाँ सुखी रहते हैं?
दानवों से लडने में ही वे लगे रहते हैं।
भोलेनाथ की हालत भी कुछ अलग नहीं है।
अगर धन है तो वह डर और तनाव से नहीं सो पाता है।
अगर निर्धन है तो उसके दुख से नहीं सो पाता है।
ये सब जानते हुए भी आप मुझे गृहस्थी की ओर क्यों भेज रहे हैं?
इस धरती पर जन्म लिया है तो गर्भ में रहते वक्त, जन्म के वक्त, बुढापे में, मरण के वक्त दुख स्वाभाविक है; लेकिन उसके ऊपर भी गृहस्थ बनाकर और ज्यादा दुख क्यों दिलाना चाहते हैं आप मुझे?
किसी से कुछ माँगकर जीने से मरना अच्छा है।
ब्राह्मणों की अवस्था देखो; गृहस्थी की विवशता में आकर ज्ञान होने पर भी उन्हें दान की अपेक्षा करना पडता है।
इस उम्मीद मे रहना पडता है कि कोई श्रीमान यजमान मेरा सम्मान करेगा, भरपूर दान देगा; तब जाकर उनका भी घर-गृहस्थी चलेगा।
वेदाध्ययन करने के बाद भी ,शास्त्राध्ययन करने के बाद भी उसे किसी धनिक के पास जाकर उसके हितानुसार बात करना पडता है, उसे खुश करना पडता है; तब जाकर उन्हें दान दक्षिणा मिलती है।
खुद का पेट उससे आराम से संभल जाएगा, उसमें इतना संयम है कि वह फल, पत्र, कन्द, मूलों से भी काम चला लेगा।
लेकिन अपने परिवार की ज़रूरतों के लिये उसे यह करना पडता है।
मुझे भी आप इस कष्ट में फेंकना चाहते हैं।
इसलिये पिताजी मुझे कर्मकाण्ड में जाना ही नहीं है, मुझे ज्ञान मार्ग का उपदेश दीजिये, मुझे योग मार्ग का उपदेश दीजिये।
मेरे कर्मो को-संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण-तीनों को नष्ट करने का उपाय मुझे बताइए।
जिसको अपना निद्रासुख त्याग करना है वही विवाह करता है।
विधाता भी जिसको कष्ट देना है उसी से विवाह कराते हैं।
व्यासजी का मन टूट गया।
अब मे क्या करूं?
उनके साथ यही होता रहता है लगता है।
एक और ज्ञान की बात:
व्यास जी जैसे ज्ञानी, तपस्वी के सामने भी अगर यह विवशता-मैं क्या करूँ?-यह बार बार आती है तो साधारण मानव की क्या बात है?
व्यास जी की आँखों में आँसू भरने लगे, उनका शरीर काँपने लगा।
शुकदेव बोले: माया का प्रभाव देखो, वेदान्तशास्त्र के प्रणेता हैं मेरे पिताजी, तत्त्वज्ञानी हैं , वेदों को साँगोपाँग जाननेवाले हैं, सर्वज्ञ हैं, पुराणों के रचयिता हैं,वेदों का विभागकरता हैं; देखो क्या हालत करती है माया शक्ति उनकी भी।
शुकदेव विस्मय से चकित हो रहे थे।
लगता है मुझे उस माया शक्ति के शरण में जाना पडेगा।
ब्रह्मा, विष्णु, और महेश को भी जो मोहित कर देती है वही हो सकती है विश्व में सबसे प्रबल।
सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापी ईश्वर भी इस शक्ति के वश में ही है।
मेरे पिताजी तो स्वयं भगवान विष्णु के अंश हैं।
उनकी हालत आज ऐसा है जिसे देखकर लगता है कि समन्दर में किसी व्यापारी का जहाज डूब गया हो।
ऐसे शोक में डूबकर वे बैठे हैं।
यह कौन है? मैं कौन हूँ? क्या है यह भ्रम?
पँचभूतों से बना हुआ इस शरीर के अन्दर यह पिता और पुत्र की भावना कहाँ से आयी?
जो भी है यह माया तो बहुत प्रबल है, मायावियों को भी यह मोहित कर देती है।
उन्होंने व्यास जी से कहा: ऐसा शोक तो साधारण लोग करते हैं, आप ज्ञानी हैं, दूसरों को ज्ञान देनेवाले हैं ,यह आप क्या कर रहे हैं?
अभी तो मैं आप का पुत्र हूँ।
लेकिन पूर्व जन्म में आप कौन थे? मैं कौन था? कौन जानता है?
हमारे बीच कोई संबन्ध था या नहीं; इस बात को कौन जानता है?
ज्ञानियों के लिये यह संसार एक भ्रम मात्र है।
आप इतना शोक क्यों करते हैं?
आपको धैर्य रखना चाहिये, विवेक रखना चाहिये, शोक और इस मोहजाल को छोड दीजिये।
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