मंगलाचरण विनय
जगत नियन्ता जगपति, हे जग के आधार ।
लम्बोदर विघ्नेश हे, कर माँ जगदम्बा भक्ति दो, ज्ञान
लघु तव सुत भी हे जननि, आये
दीजै उद्धार ॥१॥ भक्ति सामर्थ । किंञ्चित् अर्थ ॥ २ ॥ प्रदायक नाथ ।
- ज्ञानी पवन कुमार हे, कीर्ति रहहु सदा अनुकूल प्रभु, मैं नहिं बनूँ अनाथ ॥ ३ ॥ भक्ति-तपस्या भक्ति-बल, भक्ति-जगत का सार । बिना भक्ति जीवन विफल, करो भक्ति जगधार ॥४॥ दुर्गाजी की भक्ति तो अद्भुत अमित अपार ।
मोक्ष, काम, धर्मार्थ की, सुन्दर हैं दातार ॥
सप्तशती पाठांश भी पढ़ें-सुनै जो नित्य । जीवन में सब कुछ लहै, फिर नहिं बनै अनित्य ॥ ६ ॥ श्रद्धा, भक्ति-नियम सहित, सप्तशती का पाठ ।
हिन्दी हो या
देवी की ही
संस्कृत, दाता सुयश, सुठाठ ॥७॥ प्रेरणा, हिन्दी का यह रूप ।
जन-कल्याण सदा करे, माँ का चरित अनूप ॥८ ॥ जननि कवित उत्पादिका, जननि काव्य की मूल । मैं तो हूँ मतिहीन सुत, सम्भव पग पग भूल ॥ ९ ॥ यह तव देवी प्रेरणा, तूं दी जैसी बुद्धि । कार्य किया वैसा जननि, अर्पित शुद्धि अशुद्धि ॥१०
मार्कण्डेयजी ने कहा
सकल जगत में गुह्य जो, जन रक्षक है जोय । प्रकट न अबतक जो किया, कहहु पितामह सोय ।।
ब्रह्माजी बोले
सुनहु महामुनि जन सुखदायी । परम गुह्यतम कवच
प्रथमहि शैलसुता विख्याता ! दूसरि
तीसरि ख्याति चन्द्रघण्टासी । चौथी
ब्रह्मचारिणी सुहायी ।। माता ।।
कूष्माण्डा सुखरासी ।।
पंचम कहहिं स्कन्द की माता । षष्ठम कात्यायिनि जगमाता ॥
सप्तम कालरात्रि जरा झायी अष्टम महागौरि प्रभुतायी ॥
श्रीदुर्गा-सप्तशती हरनी । भेदा ।।
नवमं सिद्धिदात्री जगजननी । नवदुर्गा दारुण दुख नित गावहिं सब मङ्गल वेदा। देवी नाम के दुर्लभ राखहिं देवि न हो फिर डरना । जो नर भय- आरत हो शरना । अशुभ विदारक हैं जगजननी । उसकी कीर्ति जात नहिं बरनी । भक्ति युक्त जोदेविका, करता है नित ध्यान ।
देवि अभ्युदय दायिनी, ताहि देत कल्यान ।।
महिषासन बैठी वाराही । प्रेतासन चामुण्डा वाही ।।
गरुड़ासीन वैष्णवी भावत । ऐन्द्री का आसन ऐरावत ।।
वृषभारूढ़ माहेश्वरी सोहैं। शिखिवाहन।
विष्णुप्रिया जननी जगदम्बा । पद्मासनहिं ईश्वर देवी वृषभासीना । शारद
कौमारी मोहैं ।
विराजहिं अम्बा ।।

Ramaswamy Sastry and Vighnesh Ghanapaathi

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