भगवान नारायण, नरश्रेष्ठ नर, देवी सरस्वती तथा महर्षि व्यास को नमस्कार करने के पश्च्त् जय (श्रीहरि की विजय-गाथा से पूर्ण इतिहास-पुराण) का उच्चारण करना चाहिए। मैं भगवान श्रीराधाकान्त के युगल चरणकलमलों को अपने हृदय में धारण करता हूं, जो शरद ऋतु के प्रफुल्लित कमलों की शोभा को अत्यन्त नीचा दिखानेवाले हैं, मुनिरूपी भ्रमरों के द्वारा जिनका निरन्तर सेवन होता रहता है, जो वज्र और कमल आदि के चिह्नों से विभूषित हैं, जिनमं सोने के नूपुर चमक रहे है और जिन्होंने भक्तों के त्रिविध ताप का सदा हि नाश किया तथा जिनसे दिव्य ज्योति छिटक रही है।
जिनके मुख कमल से निकली हुई आदि-कथारूपी सुधा का बडभागी मनुष्य सदा पान करता रहता है, वे बदरीवन में विहार करनेवाले प्रणतजनों का ताप हरने में समर्थ, भगवान विष्णु के अवतार सत्यवती कुमार श्रीवेदव्यास जी मेरी वाणि की रक्षा करें - उसे दोषमुक्त करें।
एक समय की बात है, ज्ञानशिरोमणि परमतेजस्वी मुनिवर गर्ग जी जो योगशास्त्र के सूर्य हैं, शौनक जी से मिलने के लिए नमिषारण्य में आये। उन्हें आया देख मुनियों सहित शौनक जी सहसा उठकर खडे हो गये और उन्होंने पाद्य आदि उपचारों से विधिवत् उनकी पूजा की।
नारदजी कहते हैं- राजन्! कुबेरके दोनों मन्त्री ब्राह्मणके शापसे मोहित होकर अत्यन्त दीन-दुखी हो गये। उस यज्ञमें साक्षात् भगवान् विष्णु पधारे थे। वे अपनी शरणमें आये हुए उन दोनों मन्त्रियोंसे बोले ॥ १ ॥
श्रीभगवान्ने कहा- मेरी अर्चनासे युक्त इस यज्ञमें तुम दोनोंको दुःख उठाना पड़ा है। ब्राह्मणोंकी कही हुई बातको टाल देने या अन्यथा करनेकी शक्ति मुझमें नहीं है। तुम दोनों ग्राह और हाथी हो जाओ। जब कभी तुम दोनोंमें युद्ध छिड़ जायगा, तब मेरी कृपासे तुम दोनों अपने पूर्ववर्ती स्वरूपको प्राप्त हो जाओगे ॥ २-३ ॥
नारदजी कहते हैं- राजन् ! भगवान् विष्णुके यों कहनेपर राजाधिराज कुबेरके वे दोनों मन्त्री ग्राह और हाथी हो गये, परंतु उन्हें अपने पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण बना रहा। घण्टानाद ग्राह हो गया और सैकड़ों वर्षोंतक गोमतीमें रहा। वह बड़ा विकराल, अत्यन्त भयंकर तथा सदा रौद्ररूप धारण किये रहता था। पार्श्वमौलि रैवतक पर्वतके जंगलमें चार दाँतोंवाला हाथी हुआ। उसके शरीरका रंग काजलके समान काला था। उसके पृष्ठ भागकी ऊँचाई सौ धनुषके बराबर थी। वञ्जुल, कुरब, कुन्द, बदर, बेंत, बाँस, केला, भोजपत्रका पेड़, कचनार, बिजैसार, अर्जुन, मन्दार, बकायन, अशोक, बरगद, आम, चम्पा, चन्दन, कटहल, गूलर, पीपल, खजूर, बिजौरा नींबू, चिरौंजी, आमड़ा, आम्र तथा क्रमुक (पूगीफल) के वृक्षोंसे परिमण्डित रैवतकके विशाल वनमें वह महागजराज विचरा करता था । ॥ ४-९ ॥
एक समय वैशाख मासमें वह गजराज पर्वतीय कन्दरासे निकलकर अपने गणोंके साथ चिग्घाड़ता हुआ गोमती - गङ्गा स्नानके लिये आया। बहुत देरतक जलमें स्नान करके इधर-उधर सूड घुमाते हुए उस गजराजने अपनी सँड़के जलसे हाथियोंके सभी छोटेछोटे बच्चोंको नहलाया । वह महाबलिष्ठ महान् ग्राह भी दैवकी प्रेरणासे उसी जलमें विद्यमान था। उसने दैवकी प्रेरणासे रोषसे भरकर उस गजराजका एक पैर पकड़ लिया। वह बलोन्मत्त गजराजको अपने घरमें खींच ले गया। फिर हाथी भी उसे खींचकर जलके बाहर ले आया। तत्पश्चात् उसने पुनः हाथीको खींचा। हथिनियाँ और उसके बच्चे उस गजराजको संकटसे उबारने में असमर्थ थे। इस प्रकार युद्ध करते और परस्पर एक-दूसरेको खींचते हुए उन दोनोंके पचपन वर्ष व्यतीत हो गये। सत्पुरुषोंके नेत्रोंके समक्ष यह घटना घटित हो रही थी। इस प्रकार कष्टमें पड़कर कालपाशके वशीभूत हो पूर्वजन्मकी बातोंको स्मरण करनेवाला वह महान् गजराज प्रेमलक्षणा-भक्तिसे श्रीहरिके चरणोंका आश्रय ले उन्हींका चिन्तन करने लगा ।। १०-१६॥
गजेन्द्र बोला-हे श्रीकृष्ण ! हे कृष्ण (अर्जुन) के सखा तथा हे श्याम शरीर धारण करनेवाले देवेश्वर विष्णुदेव ! आप श्रीकृष्णको मेरा प्रणाम प्राप्त हो। हे पूर्ण प्रभो ! हे परमपावन पुण्यकीतें! हे परमेश्वर ! पापके पाशसे मेरी रक्षा करो, रक्षा करो ॥ १७॥
नारदजी कहते हैं-राजन् ! इस प्रकार ग्राहने जिसका पैर पकड़ लिया था, उस हाथीको अपना स्मरण करता जान, दीनवत्सल श्रीहरि गरुडपर आरूढ़ हो बड़े वेगसे दौड़े आये। उन्होंने स्वयं ही गरुडसे उतरकर दौड़ते हुए उस ग्राहपर चक्र चलाया। चक्रके वहाँ पहुँचनेके पहले ही ग्राहका वह अद्भुत मस्तक उसके धड़से कटकर अलग हो गया, जैसे दीनताके प्राप्त होते ही धन चला जाता है। इसके बाद वह चक्र गोमतीके कुण्डमें महान् शब्द करता हुआ गिरा।
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