गोरख बानी

शिवगोरक्ष योगेश्वर गोरखनाथजी की योगसिद्धिस्वरूपिणी रहनी ही लोकमानस में प्रतिष्ठित 'गोरख बानी' है । यह हठयोगविद्या का ही अक्षर वाड, मय नही, सम्पूर्ण योगदर्शन का प्राणामृत भी है, जिसके रसास्वादन से जीव शिवस्वरूप हो जाता है, अमृतत्व में स्वस्थ हो जाता है । गोरखनाथजी सिद्धयोगदेह में अमर है, जीवों पर अहेतुकी कृपा करने के लिए, संसार - सागर से पार उतारने के लिये वे परमकारूणिक समय-समय पर अपने श्रीविग्रह से प्रकट होकर लोगों को महायोगज्ञान प्रदान करते हैं, सदुपदेश से कृतार्थ करते हैं । 'गोरख बानी' उनके सदुपदेश का योगशास्त्र है, 'गोरख बानी' की यही विशिष्टता है । नाथयोगपरम्परा भगवान् शिव द्वारा सप्तश्रृगं पर पार्वती के प्रति निरूपित महायोगज्ञान से समृद्ध है, जिसे श्रवण कर योगीन्द्र मत्स्येन्द्रनाथ ने गोरखनाथजी को प्रदान किया । उसी सदुपदेश को गोरखनाथजी ने अपनी रहनी और कहनी (अनुभूति) के रूप में अपनी संस्कृत रचनाओं और लोकवाणी में अभिव्यक्त किया । हिन्दी साहित्य के इतिहास के मध्यकाल के पहले चरण से ही अनेक सिद्धों, योगियों, संत-महात्माओं ने गोरखनाथजी की सबदियों, पर्दों तथा अन्यान्य उपदेशों को श्रद्धापूर्वक संग्रह करते रहने का जो प्रयास किया है, उसी का सफल रूप डा0 पीताम्बरदत्त. बड़थ्वाल द्वारा संग्रहीत और सम्पादित तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा प्रकाशित 'गोरख बानी' है । विभिन्न प्राचीन प्रामाणिक प्रतियों के पाठ के अनुरूप स्वनामधन्य डा0 बड़थ्वाल ने जिस निष्ठा और श्रद्धा से 'गोरख बानी' का प्रस्तुतीकरण किया, वह एक महती प्रेरणा और तपोमयी शोधवृत्ति का परिचायक है । डा0 पीताम्बरदत्त ने इस दिशा में अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य किया । उन्होंने गोरखनाथजी की लोकवाणी और नाथसिद्धों के पदों, सबदियों आदि को जोगेसुरी बानी के रूप में प्रकाशित करने का संयोजन किया था । 'गोरख बानी', जोगेसुरी बानी के प्रथम भाग के रूप में हिन्दी - साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से उनके जीवन कालम में ही सम्बत् 1999 वि0 में प्रकाशित हुई और अन्य नाथसिद्धों की बानी का वे प्रकाशन नहीं कर सके । इस जोगेसुरी बानी, द्वितीय भाग का सम्पादन पण्डित हजारीप्रसाद द्विवेदी ने किया औरनागरी-प्रचारिणी सभा, काशी से सम्वत् 2014 वि0 में उसका प्रकाशन और मुद्रण सम्पन्न हुआ ।

'गोरख बानी' अद्भुत योगवाड, मय है । इसकी निरन्तर माँग बढ़ती देखकर गोरक्षपीठाधीश्वर महन्त अवैद्यनाथजी महाराज ने नाथयोग - प्रचार के सन्दर्भ में इच्छा व्यक्त की कि 'गोरख बानी का एक परिमार्जित संस्करण प्रकाशित किया जाय तथा उसका विशद भाष्य भी प्रस्तुत किया जाय, जिससे लोक - मानस को योगेश्वर गोरखनाथ की योग- पद्धति, महायोगज्ञान आदि समझने में विशेष सुविधा हो । ऐसे तो गोरखनाथ मंदिर से प्रकाशित 'योगवाणी' मासिक पत्र में अपने सम्पादकत्व में उसके पहले वर्ष के दूसरे अंक से ही ''मैंने 'गोरख बानी' से प्रत्येक अंक में 'गोरखवाणी' स्तम्भ के अन्तर्गत अपने भाष्यसहित सबदियों को देने का मांगलिक क्रम आरम्भ कर दिया था, पर हन्त श्रीअवेद्यनाथजी महाराज की इच्छा से मुझे 'गोरख बानी' को संशोधित और परिमार्जित रूप में सम्पादित तथा उसके अधिकांश अंशों पर अपना भाष्य प्रस्तुत करने की विशेष प्रेरणा मिली और भगवान् शिवगोरक्ष की विभूति के रूप में 'गोरख बानी' का यह नया कलेवर प्रकाशित हो सका । 'गोरख बानी' के संग्रह और सम्पादन में डा० बड़थ्वाल ने मध्यकाल की जिन हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग किया, उनमें पौड़ी गढ़वाल के पण्डित तारादत्त गैरोला को जयपुर से प्राप्त प्रति 'पौड़ी हस्तलेख', जोधपुर दरबार पुस्तकालय की प्रति, जोधपुर के श्रीशुभकरण चारण से प्राप्त सम्वत् 1825 की प्रति, मंदिर बाबा हरिदास, नारनौल, पटियाला की सम्वत् 1794 की प्रति, पुरोहित हरिनारायण, जयपुर से प्राप्त सम्वत् 1715 वि० की प्रति आदि प्रमुख हैं । पौड़ी हस्तलेख का चौथा भाग संत रज्जब द्वारा संकलित सर्वांगी है, जिसमें गोरखनाथजी से लेकर संत तुलसीदास तक अनेक प्रसिद्ध संत-महात्माओं की वाणी उपलब्ध है । साथ ही साथ डा० बड़थ्वाल ने योगियों की रचनाओं के एक संस्कृत हस्तलिखित अनुवाद की भी सहायता ली थी, जो मध्यकाल की है तथा काशी के सरस्वती भवन में सुरक्षित है । 'गोरख बानी' के इस नये कलेवर का मूल पाठ डा0 बड़थ्वाल की 'गोरख बानी' पर आधारित है, यद्यपि कही-कहीं मुझे पाठान्तर भी स्वीकार करना पड़ा है और उपर्युक्त प्रतियों के पाठ के आधार पर ही पाठ संशोधित है, पर यह अल्पांश ही है । सबदी, पदों तथा अन्य संग्रहीत रचनाओं का भाष्य मैंने स्वयं किया है और यथाशक्ति उसे विस्तृत करने का भी प्रयास किया है, पर यह स्वीकार करने में आपत्ति नहीं है कि डा0 बड़थ्वाल के भाष्य से मेरे कार्य में बड़ी सुविधा हुई है । अनेक रचनाओं का भाष्य उपलब्ध नहीं था, उसका भी मैंने भाष्य दे दिया है, किन्ही - किन्हीं का सारांश ही देकर काम चलाया है ।

'गोरखवानी' के इस नये कलेवर से गोरखनाथजी के नाम से प्रचलित प्रसिद्ध कृति 'ग्यान चौतीसा' के, जो अप्राप्त कहीं जाती रही है, सम्बन्ध में विद्वानों और शोध -जगत् में व्याप्त भ्रक का निवारण हो गया । वह कृति तो संग्रह के रूप में डा0 बड़थ्वाल द्वारा संग्रहीत 'गोरख बानी' में ही उपलब्ध हैं, पर इसका पता डा0 बड़थ्वाल को भी नहीं था, उन्हें भी अपने संग्रह की भूमिका में स्वीकार करना पड़ा था 'इनमें से ग्यान चौतीसा' 'च' प्रति में है और 'छ' तथा 'अ' में उसका समर्थन हो जाता है । परन्तु उसको मैं समय पर प्राप्त करने में समर्थ न रहा । फिर भी आशा है कि शीघ्र ही वह भी अवश्य साहित्यिकों को उपलब्ध हो जायेगा ।' डा0 बड़थ्वाल की इस स्वीकृति से लोगों के मन में 'ग्यान चौंतीसा' के प्रति उत्सकुकता का भाव जागना स्वाभाविक ही है । जनवरी 1977 में 'योगवाणी' का 'गोरख विशेषांक' प्रकाशित हुआ, उसके पृष्ठ 85 पर अगरचन्द नाहटाजी ने अपने लेख में मत अभिव्यक्त किया कि राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जयपुर के संग्रह में पुरोहित हरिनारायणजी का संग्रह सुरक्षित है, उसकी सूची विद्याभूषणग्रन्थ-सूची' के नाम से प्रकाशित हुई है । उसके अनुसार 'गोरख बानी' में प्रकाशित ग्रन्थों के अतिरिक्त गोरखनाथजी की अप्रकाशित बारह रचनाओं के नाम और भी हैं, नौ के नाम 'गोरख बानी' की भूमिका में आ चुके हैं, यद्यपि वे उस ग्रन्थ में प्रकाशित नहीं है, पर वे सम्पादक की जानकारी में आ चुकी थीं । इनमें से 'ग्यान चौंतीसा'. को मैंने 'सप्तसिन्धु' मासिक में प्रकाशित करा दिया था । मैंने 'गोरख बानी' के इस नये कलेवर के सम्पादन में 'ग्यान चौतीसा का उपयोग करना चाहा, नाहटाजी को पत्र लिखा ।

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