गर्भोपनिषत् १०८ उपनिषदों में से एक है।
इसके रचयिता पिप्पलाद महर्षि हैं।
गर्भोपनिषत् शारीरिक और आध्यात्मिक दोनों दृष्टिकोणों से भ्रूण का गर्भाधान और विकास से संबंधित है।
उपनिषत् का अंतिम उद्देश्य साधक में सांसारिक जीवन के प्रति वैराग्य उत्पन्न करके उसे मोक्ष की ओर ले जाना है।
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पंचभूतों से।
ये केवल स्वाद नहीं हैं।
शरीर की कार्यप्रणाली इन्हीं पर निर्भर करती है।
उदाहरण के लिए, शरीर में अधिक मिठास से मधुमेह होता है।
बहुत अधिक तीखापन छालों का कारण बन सकता है।
शरीर का पीएच मान ७.३५ - ७.४५ के बीच होना चाहिए जो काफी हद तक आंवला रस पर निर्भर करता है।
इसी के कारण शरीर को षडाश्रय - छ: पर आश्रित - कहा गया है।
वे शरीर के भीतर प्राण की गतिविधियों के केंद्र हैं।
राग और भक्ति जैसे गुण इन ध्वनियों के साथ मिल जाते हैं और बोली जाने वाली ध्वनि (भाषण) बन जाती है।
कुछ शब्द प्रिय होते हैं, कुछ अप्रिय।
पुरुष का शुक्र स्त्री के शोणित के साथ मिलकर भ्रूण बनता है।
यदि वीर्य अधिक शक्तिशाली हो तो लडके का जन्म होगा।
यदि शोणित अधिक शक्तिशाली हो तो लडकी का जन्म होगा।
यदि दोनों समान हो तो नपुंसक का जन्म होगा।
चूंकि स्त्री को मैथुन से अधिक आनंद मिलता है, इसलिए अधिक लडकियां पैदा होती हैं।
यदि मैथुन के समय माता-पिता को कोई चिंता या तनाव है तो दोषयुक्त बच्चे का जन्म होता है।
इसके उदाहरण महाभारत में मिलते हैं।
व्यास जी के साथ मैथुन के समय अंबिका ने डर के मारे अपनी आँखें बंद कर ली थी; उसका पुत्र धृतराष्ट्र अंधा पैदा हुआ।
अंबालिका भय से पीली पड़ गई थी; उसका पुत्र पांडु रक्तहीन और बीमार बन गया।
निषिद्ध समय, जैसे ग्रहण के दौरान मैथुन करने से दोषपूर्ण बच्चों का जन्म होगा।
यदि मैथुन सुखद और आनंदमय है तो बच्चे को पिता के सभी अच्छे गुण मिल जाएंगे।
मैथुन का स्थान, समय, क्रिया और आनंद बच्चे के स्वभाव को प्रभावित करते हैं।
शुक्र या शोणित के विभाजन से जुड़वा बच्चों का जन्म होता है।
यदि शुक्र और शोणित में से केवल एक ही विभाजित होता है, तो जुड़वा बच्चों का लिंग समान होगा।
यदि दोनों विभाजित हो जाते हैं, तो असमान लिंग के जुड़वाँ बच्चे पैदा होते हैं।
यदि शुक्र या शोणित दो से अधिक में विभाजित हो जाते हैं, तो उसके अनुसार अधिक संख्या में बच्चों का जन्म होगा।
पंचतत्वों से बना शरीर पूर्ण रूप से विकसित होता है।
संवेदी अंग तैयार हो जाते हैं।
इस अवस्था में भ्रूण में गहरी बुद्धि होती है।
वह अनादि और अनंत ओंकार का स्मरण करता है।
शरीर में आठों प्राकृतियां सक्रिय हो जाती हैं।
वे हैं: मूलप्रकृति, महत, अहंकार और पंचभूत।
शरीर में सोलह विकार सक्रिय हो जाते हैं।
वे हैं: पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां, पांच प्राण और अंतःकरण।
मां के रक्त के माध्यम से गर्भनाल द्वारा प्राण पूरी तरह से भ्रूण में प्रवेश कर जाता है।
तब वह पिछले जन्मों को याद करता है - किए गए और अपूर्ण रह गए कार्यों को।
वह किए गए सही और गलत के बीच विवेचन करता है।
मैंने हजारों कोख देखे हैं।
मैंने हजारों स्तनों का पान किया है।
मैंने हजारों अलग-अलग खाद्य पदार्थों का स्वाद चखा है।
मैंने दुनिया भर के स्थानों पर जन्म लिया है।
मैं दुनिया भर में कई जगहों पर मर चुका हूं।
मैं ८४ लाख विभिन्न योनियों में जन्म लेता रहा हूं।
मैं पुनर्जन्म के इस शाश्वत चक्र में फसा हूँ।
जन्म-मरण, जन्म-मरण, जन्म-मरण होते ही रहते हैं..
कोख के भीतर दुख है।
हर जन्म भी भ्रम और दुःख से भरा है।
बाल्यावस्था में दूसरों पर निर्भरता, अज्ञान, दु:ख, हितकारी काम न करना और हानिकारक काम करना ये सब होता है।
वयस्कता के दौरान, विषय सुखों से लगाव होता है, और तीन प्रकार के कष्ट होते हैं - बाहरी वस्तुओं और प्राणियों के कारण, आत्म-प्रवृत्त, और अलौकिक शक्तियों के कारण।
वृद्धावस्था में अधूरी इच्छाएं, मृत्यु का भय, चिंता, स्वतंत्रता का अभाव और क्रोध होता है।
जन्म लेना ही इन सबका आरंभ है।
मैं पुनर्जन्म के चक्र से बाहर नहीं आ पाया हूं।
मैंने ज्ञान और योग का शिक्षण प्राप्त नहीं किया है।
मैं इस दुख के सागर में डूब गया हूं।
मुझे नहीं पता कि इससे कैसे बाहर निकलूं।
मेरे अज्ञान पर धिक्कार है!
राग के कारण होने वाली परेशानियों पर धिक्कार है!
द्वेष से उत्पन्न परेशानियों पर धिक्कार है!
इस सांसारिक जीवन पर धिक्कार है।
मैं गुरु से ज्ञान प्राप्त करूंगा।
मैं सांख्य-योग का अभ्यास करूंगा।
वह मुझे सभी बंधनों से मुक्त कर देगा।
इससे मेरी सारी परेशानी समाप्त हो जाएगी।
जब मैं गर्भ से बाहर आऊंगा, तो मैं महेश्वर में शरण लूंगा।
वे मुझे जीवन के चार लक्ष्यों: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करने के साधन देंगे।
मैं जगत के स्वामी चिदात्मा की शरण में जाऊँगा।
वे सभी शक्तियों के मूल स्रोत हैं।
जो कुछ भी होता है उसके पीछे वे हैं।
जब मैं गर्भ से बाहर आ जाऊँगा तो मैं भार्ग की शरण में जाऊँगा।
वे जगत के प्रकाश हैं।
वे जीवित और निर्जीव सभी प्राणियों के स्वामी हैं।
वे रुद्र, महादेव और जगद्गुरु हैं।
जब मैं गर्भ से बाहर आ जाऊँगा तो मैं तपस्या करूँगा।
जब मैं गर्भ से बाहर आऊंगा, तो मैं विष्णु की पूजा करूंगा।
वे आनंद का अमृत प्रदान करते हैं।
वे च्युति से रहित नारायण हैं।
अब मैं इस गर्भ में फंस गया हूं।
जब मैं गर्भ से बाहर आऊंगा, तो मैं महान वासुदेव पर ध्यान केंद्रित करूंगा।
मैं अपना मन उनसे कभी नहीं हटाऊंगा।
जो मेरे पिछले कर्मों से लाभान्वित हुए हैं वे सब गायब हो गए हैं।
केवल मुझे अपने कर्मों का फल भुगतने के लिए छोड़ दिया गया है।
मैं एक अविश्वासी रहा हूँ।
मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे अपने कर्मों का परिणाम अकेले ही भुगतना पड़ेगा।
अब, मुझे पता है कि यह सच है।
भ्रूण की जीवात्मा ऐसे ही चिंतन करता रहता है।
वह अपनी इच्छाओं, अज्ञान और सांसारिक कार्यों से घृणित हो जाता है।
इस अवस्था में भ्रूण कोख के मुख में आता है।
वह बाहर आना चाहता है।
वहाँ उसे बहुत कष्ट होता है जब उसे कोख के गले से निकलना पडता है।
उसे प्रसूति-वायु पीड़ा देती है।
जैसे ही बच्चा बाहर आता है वह वैष्णवी-वायु के संपर्क में आता है।
वैष्णवी-वायु पिछले जन्मों की सभी यादों को मिटा देता है।
वह अपनी दूरदर्शिता खो देता है।
वह सच को देखने की क्षमता खो देता है।
जैसे ही वह पृथ्वी के संपर्क में आता है, बच्चा रोने के लिए तैयार हो जाता है।
पहले रोने के आंसू बाकी यादों को धो देते हैं।
सही और गलत में भेद करने की उसकी क्षमता समाप्त हो जाती है।
शरीर में वात, पित्त और कफ संतुलित अवस्था में होना चाहिए।
अन्यथा, वे रोग उत्पन्न करते हैं।
पित्त शरीर की अग्नि है।
पित्त सही मात्रा में होने पर ही कोई सही ढंग से सोच पाएगा।
पित्त अधिक होने पर मानसिक बीमारियां होती हैं।
शरीर को शरीर क्यों कहा जाता है?
क्योंकि उसमें तीन अग्नि जलती रहती हैं।
साक्षादग्नयो ह्यत्र श्रियन्ते ज्ञानाग्निर्दर्शनाग्निः कोष्ठाग्निरिति ।
शरीर में अग्नि तीन प्रकार की होती है।
ज्ञानाग्नि - मन और बुद्धि की प्रक्रियाओं के लिए जिम्मेदार ऊर्जा।
दर्शनाग्नि - ऊर्जा जो संवेदी अंगों के माध्यम से जानकारी प्राप्त करती है।
कोष्ठाग्नि - ऊर्जा जो भोजन को पचाती है।
शरीर की तुलना यागवेदी से की जा सकती है।
यागवेदी में तीन होम कुंड हैं; गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि।
इनमें गार्हपत्य उदर है, आहवनीय मुख है और दक्षिणाग्नि हृदय है।
पुरुष (जीवित प्राणी) स्वयं यजमान है।
उसकी पत्नी बुद्धि है।
संतोष वह व्रत है जिसका वह पालन करता है।
इंद्रियां और मन पात्र हैं।
शरीर में विद्यमान देव पुरोहित हैं।
ब्रह्मा मन है।
यजमान जहां भी जाता है, देव उसके साथ रहते हैं।
इच्छाएं अग्नि में चढ़ाए गए घी हैं।
लोभ, क्रोध आदि यज्ञ के पशु हैं।
यज्ञ की अवधि व्यक्ति का जीवन काल है।
हृदय का नाद साम है।
परा, पश्यंती और मध्यमा ऋचा हैं।
वैखरी यजुस है।
इस यज्ञ की परिणति मृत्यु है।
यह यज्ञ हर एक जीव के अंदर चलता रहता है।
देव उन्हें आशीर्वाद देते हैं।
खोपड़ी ४ हड्डियों से बनी होती है।
प्रत्येक पंक्ति में १६ दांत होते हैं।
१०७ मर्म हैं।
७२ नाड़ियाँ हैं।
उनमें से तीन सबसे महत्वपूर्ण हैं: इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना।
भोजन रस, मूत्र और मल में परिवर्तित हो जाता है।
वीर्य और शोणित का निर्माण भोजन से होता है।
रक्त परिसंचरण सहित शरीर के अंदर सभी गतिविधियां वात (वायु) की सहायता से होती हैं।
प्रारंभ में, भ्रूण का प्राण आज्ञा चक्र पर होता है।
जब वह प्रसव के लिए तैयार हो जाता है तब यह अनाहत चक्र में उतरकर स्थिर हो जाता है।
४.५ करोड बाल हैं।
दिल का वजन आठ पल होता है।
जीभ का वजन बारह पल होता है।
शरीर में पित्त का वजन एक प्रस्थ होता है।
कफ का वजन एक आढक होता है।
मज्जा का वजन दो प्रस्थ होता है।
वीर्य का वजन एक कुडव होता है।
यह सब जानकर वैराग्य उत्पन्न करके मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए।
यह है पिप्पलाद द्वारा दिया गया मोक्ष शास्त्र।
यद्गर्भोपनिषद्वेद्यं गर्भस्य स्वात्मबोधकम् ।
शरीरापह्नवात्सिद्धं स्वमात्रं कलये हरिम् ॥
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ॐ पञ्चात्मकं पञ्चसु वर्तमानं षडाश्रयं षड्गुणयोगयुक्तम् ।
तत्सप्तधातु त्रिमलं द्वियोनि चतुर्विधाहारमयं शरीरं भवति ॥
पञ्चात्मकमिति कस्मात् पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशमिति ।
अस्मिन्पञ्चात्मके शरीरे का पृथिवी का आपः किं तेजः को वायुः किमाकाशम् ।
तत्र यत्कठिनं सा पृथिवी यद्द्रवं ता आपो यदुष्णंतत्तेजो यत्सञ्चरति स वायुः यत्सुषिरं तदाकाशमित्युच्यते ॥
तत्र पृथिवी धारणे आपः पिण्डीकरणे तेजः प्रकाशनेवायुर्गमने आकाशमवकाशप्रदाने । पृथक् श्रोत्रे शब्दोपलब्धौ त्वक् स्पर्शे चक्षुषी रूपे जिह्वा रसने नासिकाऽऽघ्राणे उपस्थश्चानन्दनेऽपानमुत्सर्गे बुद्ध्या बुद्ध्यति मनसा सङ्कल्पयति वाचा वदति ।
षडाश्रयमिति कस्मात् मधुराम्ललवणतिक्तकटुकषायरसान्विन्दते ।
षड्जर्षभगान्धारमध्यमपञ्चमधैवतनिषादाश्चेति ।
इष्टानिष्टशब्दसंज्ञाः प्रतिविधाः सप्तविधा भवन्ति ॥ १॥
शुक्लो रक्तः कृष्णो धूम्रः पीतः कपिलः पाण्डुर इति ।
सप्तधातुमिति कस्मात् यदा देवदत्तस्य द्रव्यादिविषयाजायन्ते ॥
परस्परं सौम्यगुणत्वात् षड्विधो रसो रसाच्छोणितं शोणितान्मांसं मांसान्मेदो मेदसः
स्नावा स्नाव्नोऽस्थीन्यस्थिभ्यो मज्जा मज्ज्ञः शुक्रं शुक्रशोणितसंयोगादावर्तते गर्भो हृदि व्यवस्थां नयति ।
हृदयेऽन्तराग्निः अग्निस्थाने पित्तं पित्तस्थाने वायुः वायुस्थाने हृदयं प्राजापत्यात्क्रमात् ॥ २॥
ऋतुकाले सम्प्रयोगादेकरात्रोषितं कलिलं भवति सप्तरात्रोषितं बुद्बुदं भवति अर्धमासाभ्यन्तरेण पिण्डो भवति मासाभ्यन्तरेण कठिनो भवति मासद्वयेन शिरः
सम्पद्यते मासत्रयेण पादप्रवेशो भवति ।
अथ चतुर्थे मासे जठरकटिप्रदेशो भवति ।
पञ्चमे मासे पृष्ठवंशो भवति ।
षष्ठे मासे मुखनासिकाक्षिश्रोत्राणि भवन्ति ।
सप्तमे मासे जीवेन संयुक्तो भवति ।
अष्टमे मासे सर्वसम्पूर्णो भवति ।
पितुः रेतोऽतिरिक्तात् पुरुषो भवति ।
मातुः रेतोऽतिरिक्तात्स्त्रियो भवन्त्युभयोर्बीजतुल्यत्वान्नपुंसको भवति ।
व्याकुलितमनसोऽन्धाः खञ्जाः कुब्जा वामना भवन्ति ।
अन्योन्यवायुपरिपीडितशुक्रद्वैध्याद्द्विधा
तनुः स्यात्ततो युग्माः प्रजायन्ते ॥
पञ्चात्मकः समर्थः पञ्चात्मकतेजसेद्धरसश्च सम्यग्ज्ञानात् ध्यानात् अक्षरमोङ्कारं चिन्तयति ।
तदेतदेकाक्षरं ज्ञात्वाऽष्टौ प्रकृतयः षोडश विकाराः शरीरे तस्यैवे देहिनाम् ।
अथ मात्राऽशितपीतनाडीसूत्रगतेन प्राण आप्यायते ।
अथ नवमे मासि सर्वलक्षणसम्पूर्णो भवति पूर्वजातीः स्मरति कृताकृतं च कर्म विभाति
शुभाशुभं च कर्म विन्दति ॥ ३॥
नानायोनिसहस्राणि दृष्ट्वा चैव ततो मया ।
आहारा विविधा भुक्ताः पीताश्च विविधाः स्तनाः ॥
जातस्यैव मृतस्यैव जन्म चैव पुनः पुनः ।
अहो दुःखोदधौ मग्नः न पश्यामि प्रतिक्रियाम् ॥
यन्मया परिजनस्यार्थे कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
एकाकी तेन दह्यामि गतास्ते फलभोगिनः ॥
यदि योन्यां प्रमुञ्चामि सांख्यं योगं समाश्रये ।
अशुभक्षयकर्तारं फलमुक्तिप्रदायकम् ॥
यदि योन्यां प्रमुञ्चामि तं प्रपद्ये महेश्वरम् ।
अशुभक्षयकर्तारं फलमुक्तिप्रदायकम् ॥
यदि योन्यां प्रमुञ्चामि तं प्रपद्ये भगवन्तं नारायणं देवम् ।
अशुभक्षयकर्तारं फलमुक्तिप्रदायकम् ।
यदि योन्यां प्रमुञ्चामि ध्याये ब्रह्म सनातनम् ॥
अथ जन्तुः स्त्रीयोनिशतं योनिद्वारि सम्प्राप्तो यन्त्रेणापीड्यमानो महता दुःखेन जातमात्रस्तु
वैष्णवेन वायुना संस्पृश्यते तदा न स्मरति जन्ममरणं न च कर्म शुभाशुभम् ॥ ४॥
शरीरमिति कस्मात् साक्षादग्नयो ह्यत्र श्रियन्ते ज्ञानाग्निर्दर्शनाग्निः कोष्ठाग्निरिति ।
तत्र कोष्ठाग्निर्नामाशितपीतलेह्यचोष्यं पचतीति ।
दर्शनाग्नी रूपादीनां दर्शनं करोति । ज्ञानाग्निः शुभाशुभं च कर्म विन्दति ।
तत्र त्रीणि स्थानानि भवन्ति हृदये दक्षिणाग्निरुदरे गार्हपत्यं मुखमाहवनीयमात्मा यजमानो बुद्धिं पत्नीं निधाय मनो ब्रह्मा लोभादयः पशवो धृतिर्दीक्षा सन्तोषश्च बुद्धीन्द्रियाणि यज्ञपात्राणि कर्मेन्द्रियाणि हवींषि शिरः कपालं केशा दर्भा मुखमन्तर्वेदिः चतुष्कपालं शिरः षोडश पार्श्वदन्तोष्ठपटलानि सप्तोत्तरं मर्मशतं साशीतिकं सन्धिशतं सनवकं स्नायुशतं सप्त शिराशतानि पञ्च मज्जाशतानि अस्थीनि च ह वै त्रीणि शतानि षष्टिश्चार्धचतस्रो रोमाणि कोट्यो हृदयं पलान्यष्टौ द्वादश पलानि जिह्वा पित्तप्रस्थं कफस्याढकं शुक्लं कुडवं मेदः प्रस्थौ द्वावनियतं मूत्रपुरीषमाहारपरिमाणात् ।
पैप्पलादं मोक्षशास्त्रं परिसमाप्तं पैप्पलादं मोक्षशास्त्रं परिसमाप्तमिति ॥
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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