अंजना देवी छोटे हनुमानजी को रामचरित सुनाती थीं। वे भगवान की महानता का वर्णन करती थीं, कि कैसे उनके पास हनुमान नामक एक महान भक्त था जो उनकी सेवा करता था, और कैसे भगवान ने दुष्ट राक्षस राजा रावण का विनाश किया। यह पिछले कल्प की बात थी।
सभी कल्पों में होने वाली घटनाएँ एक जैसी होती हैं; वे बस दोहराई जाती हैं। हर कल्प में, भगवान राम अवतार लेते हैं, एक रावण होता है, और उसका नाश होता है। ये शाश्वत हैं; वे बस दोहराई जाती रहती हैं। अंजना देवी छोटे हनुमान जी को बता रही हैं कि पिछले कल्प में यह सब कैसे हुआ, और उन्होंने उनसे कहा, 'इस बार तुम 'हनुमान' बनने जा रहे हो।'
हनुमान जी उत्साहित हो गए । उन्होंने अयोध्या जाकर अपने स्वामी से मिलना चाहा।। अंजना देवी ने कहा, 'लेकिन इसके लिए, भगवान राम ने जन्म भी नहीं लिया है। तुम्हें इंतजार करना होगा। लेकिन भगवान राम की सेवा करने के लिए क्या तुमने क्षमता प्राप्त की है? क्या तुमने कुछ सीखा है? तुम तो बस अपना समय बरबाद करते रहते हो, खेलते रहते हो और ऋषियों को परेशान करते रहते हो।'
‘नहीं, मैं सीखना चाहता हूँ। मुझे गुरुकुल भेज दो। मेरा उपनयन संस्कार करवा दो,' हनुमानजी ने कहा। वे, वह हनुमान बनना चाहते थे, जिनके बारे में उन्होंने अपनी माँ की कहानियों में सुना था।
भगवान का उपनयन संस्कार हो रहा था, उन्होंने उनका उपनयन संस्कार करने वाले महात्मा से पूछा- ‘आप सबका गुरु कौन है?'
महात्मा ने उत्तर दिया, 'सारा ज्ञान प्रजापति ब्रह्मा से आता है।'
‘लेकिन उन्होंने किससे सीखा? ब्रह्मा को किसने सिखाया?' हनुमान जी ने पूछा।
‘नारायण ब्रह्मा के गुरु हैं।'
‘नारायण के गुरु कौन हैं?'
‘नारायण का कोई गुरु नहीं है। वे स्वयं ही सारा ज्ञान हैं।'
‘मैं उन्हें कहाँ पा सकता हूँ? उनका गुरुकुल कहाँ है?' हनुमान जी ने उत्सुकता से पूछा।
महात्मा ने आकाश में सूर्य की ओर इशारा किया। 'वह है नारायण, सूर्य नारायण। उनकी करोड़ों किरणों में से प्रत्येक ज्ञान है। जब कोई ऋषि अपने भीतर ऐसी एक किरण को देख लेता है, जब ऐसी एक किरण किसी ऋषि के लिए प्रकट होती है, तो उसे हम मंत्र कहते हैं। और सूर्य नारायण में ऐसी करोड़ों किरणें हैं।'
हनुमान जी आकाश में उछल पड़े और सूर्य देव के पास पहुँचे।
'मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ। कृपया मुझे स्वीकार करें,' उन्होंने सूर्य देव के सामने दंडवत किया।
सूर्य देव ने कहा, 'ठीक है। मैं सीखने के लिए तुम्हारी उत्सुकता को समझता हूँ; उग्र गर्मी का सामना करके तुम मेरे पास आये हो। लेकिन मैं तुम्हें कैसे सिखाऊँगा? मैं हमेशा यात्रा करता रहता हूँ। मुझे एक पल के लिए भी रुकने की अनुमति नहीं है। और मेरे सारथी अरुण को देखो। भले ही उसे मेरे रथ का प्रभारी माना जाता है, लेकिन उसके हाथ या पैर नहीं हैं। वह इन घोड़ों को नियंत्रित नहीं कर सकता। वह बस वहाँ बैठा रहता है जैसे कि वह नियंत्रण में है, लेकिन वास्तव में, वह भी इस रथ को एक पल के लिए भी नहीं रोक सकता। अगर यह रुक जाता है, तो समय रुक जाता है, और सब कुछ समाप्त हो जाएगा। यह सारा प्रपंच समाप्त हो जाएगा। और देखो, यहाँ इतनी कम जगह है। हम दो लोगों के लिए यह पर्याप्त नहीं है; मैं यहाँ मुश्किल बैठ पाता हूँ।'
हनुमान जी ने कुछ देर सोचा। 'चिंता मत कीजिए, मैं आपके पीछे पीछे चलता हूँ, और मुझे सिखाते जाइए।'
इस बार सूर्यदेव के पास कोई बहाना नहीं था। हनुमान जी सूर्यदेव के रथ के पीछे चलने लगे और उनसे सब कुछ सीखने लगे - वेद, वेदांग, उपवेद, शास्त्र, पुराण - सब कुछ। उन्होंने अपने आपको श्रीरामजी के लिए योग्य सेवक के रूप में तैयार किया।
शिक्षा समाप्त होने के बाद, हनुमानजी ने विनम्रतापूर्वक सूर्यदेव से अनुरोध किया, 'आप पूरे ब्रह्मांड के लिए जीवनदाता हैं। कोई आपको क्या दे सकता है? लेकिन एक शिष्य के रूप में, मेरा कर्तव्य है कि मैं आपको गुरु दक्षिणा दूँ। मैं क्या दूँ?'
सूर्यदेव ने कहा, 'कुछ ही समय में पृथ्वी पर मेरा अपना अंशावतार होगा। उसका नाम सुग्रीव होगा। जब जरूरत हो तो तुम उसकी मदद करना। यही मेरे लिए तुम्हारी गुरु दक्षिणा होगी।'
देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते । देवताभ्यो हि पूर्वं पितॄणामाप्यायनं वरम्॥ (हेमाद्रिमें वायु तथा ब्रह्मवैवर्तका वचन) - देवकार्य की अपेक्षा पितृकार्य की विशेषता मानी गयी है। अतः देवकार्य से पूर्व पितरों को तृप्त करना चाहिये।
गरुड के भाई हैं सूर्य का सारथी अरुण। अरुण के पुत्र हैं जटायु और सम्पाति जिनके बारे में रामायण में उल्लेख है। उनकी मां थी श्येनी।
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