विनयपत्रिका ब्रजभाषा में लिखी हुई है।
विनय पत्रिका का मूल भाव भक्ति है। विनय पत्रिका देवी देवताओं के २७९ पदों का एक संग्रह है। ये सब रामभक्ति बढाने की प्रार्थनायें हैं।
पढ़ाई में सफलता के लिए हयग्रीव मंत्र
उद्गिरत्प्रणवोद्गीथ सर्ववागीश्वरेश्वर । सर्ववेदमयाऽ....
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शंकर गुरु स्तोत्र
वेदधर्मपरप्रतिष्ठितिकारणं यतिपुङ्गवं केरलेभ्य उपस्थि....
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विनय-पत्रिका
राग बिलावल
श्रीगणेश स्तुति
गाइये गनपति जगवंदन। संकर सुवन भवानी -नंदन ॥१ ॥
सिद्धि-सदन, गज-बदन, बिनायक। कृपासिंधु, सुंदर, सब- लायक २ ॥॥
मोदक- प्रिय, मुद-मंगल-दाता। विद्यावारिधि, बुद्धि- विधाता ॥ ३ ॥
माँगत तुलसिदास कर जोरे बसहिं रामसिय मानस मोरे ॥ ४ ॥
भावार्थ- सम्पूर्ण जगत्के वन्दनीय, गणोंके स्वामी श्रीगणेशजीका गुणगान कीजिये, जो शिव-पार्वतीके पुत्र और उनको प्रसन्न करनेवाले हैं ॥ १ ॥ जो सिद्धियोंके स्थान हैं, जिनका हाथीका सा मुख है, जो समस्त विघ्नोंके नायक हैं यानी विघ्नोंको हटानेवाले हैं, कृपाके समुद्र हैं, सुन्दर हैं, सब प्रकारसे योग्य हैं ॥ २ ॥ जिन्हें लड्डू बहुत प्रिय है, जो आनन्द और कल्याणको देनेवाले हैं, विद्याके अथाह सागर हैं, बुद्धिके विधाता हैं ॥ ३ ॥ ऐसे श्रीगणेशजीसे यह तुलसीदास हाथ जोड़कर केवल यही वर माँगता है। कि मेरे मनमन्दिर में श्रीसीतारामजी सदा निवास करें ॥ ४ ॥
सूर्य-स्तुति
दीन दयालु दिवाकर देवा । कर मुनि, मनुज, सुरासुर सेवा ॥ १॥
हिम-तम- करि केहरि करमाली । दहन दोष दुख- दुरित- रुजाली ॥ २ ॥
कोक- कोकनद-लोक-प्रकासी। तेज प्रताप रूप-रस-रासी ॥ ३ ॥
सारथि - पंगु, दिव्य रथ-गामी। हरि-संकर-बिधि-मूरति स्वामी ॥ ४ ॥
बेद पुरान प्रगट जस जागै। तुलसी राम भगति बर माँगे ॥ ५ ॥
भावार्थ- हे दीनदयालु भगवान् सूर्य ! मुनि, मनुष्य, देवता और राक्षस सभी आपकी सेवा करते हैं ॥ १ ॥ आप पाले और अन्धकाररूपी हाथियोंको मारनेवाले वनराज सिंह हैं; किरणोंकी माला पहने रहते हैं; दोष, दुःख, दुराचार और रोगोंको भस्म कर डालते हैं ॥ २ ॥ रातके बिछुड़े हुए चकवा- चकवियोंको मिलाकर प्रसन्न करनेवाले, कमलको खिलानेवाले तथा समस्त लोकोंको प्रकाशित करनेवाले हैं। तेज प्रताप रूप और रसकी आप खानि हैं ॥ ३ ॥ आप दिव्य रथपर चलते हैं, आपका सारथी (अरुण) लूला है। हे स्वामी! आप विष्णु, शिव और ब्रह्माके ही रूप हैं ॥ ४ ॥ वेद-पुराणोंमें आपकी कीर्ति जगमगा रही है। तुलसीदास आपसे श्रीराम- भक्तिका वर माँगता है ॥ ५ ॥
शिव-स्तुति
को जाँचिये संभु तजि आन ।
दीनदयालु भगत - आरति हर, सब प्रकार समरथ भगवान ॥ १ ॥
कालकूट जुर जरत सुरासुर, निज पन लागि किये बिष पान ।
दारुन दनुज, जगत- दुखदायक, मारेउ त्रिपुर एक ही बान ॥ २ ॥
जो गति अगम महामुनि दुर्लभ, कहत संत, श्रुति, सकल पुरान।
सो गति मरन-काल अपने पुर, देत सदासिव सबहिं समान ॥ ३ ॥
सेवत सुलभ, उदार कलपतरु, पारबती-पति परम सुजान ।
देहु काम - रिपु राम - चरन रति, तुलसिदास कहँ कृपानिधान ॥ ४ ॥
भावार्थ - भगवान् शिवजीको छोड़कर और किससे याचना की जाय ? आप दीनोंपर दया करनेवाले, भक्तोंके कष्ट हरनेवाले और सब प्रकारसे समर्थ ईश्वर हैं ॥ १ ॥ समुद्र मन्थनके समय जब कालकूट विषकी ज्वालासे सब देवता और राक्षस जल उठे, तब आप अपने दीनोंपर दया करनेके प्रणकी रक्षाके लिये तुरंत उस विषको पी गये। जब दारुण दानव त्रिपुरासुर जगत्को बहुत दुःख देने लगा, तब आपने उसको एक ही बाणसे मार डाला ॥ २ ॥ जिस परम गतिको संत-महात्मा, वेद और सब पुराण महान् मुनियोंके लिये भी दुर्लभ बताते हैं, हे सदाशिव ! वही परम गति काशीमें मरनेपर आप सभीको समानभावसे देते हैं ॥ ३ ॥ हे पार्वतीपति! हे परम सुजान !! सेवा करनेपर आप सहज में ही प्राप्त हो जाते हैं, आप कल्पवृक्षके समान मुँहमाँगा फल देनेवाले उदार हैं, आप कामदेवके शत्रु हैं। अतएव, हे कृपानिधान! तुलसीदासको श्रीरामके चरणोंकी प्रीति दीजिये ॥ ४ ॥
राग धनाश्री
दानी कहुँ संकर-सम नाहीं ।
दीन दयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं ॥ १॥
मारिकै मार थप्यौ जगमें, जाकी प्रथम रेख भट माहीं ।
ता ठाकुरकौ रीझि निवाजिब, कह्यौ क्यों परत मो पाहीं ॥ २ ॥
जोग कोटि करि जो गति हरिसों, मुनि माँगत सकुचाहीं ।
बेद - बिदित तेहि पद पुरारि-पुर, कीट पतंग समाहीं ॥ ३ ॥
ईस उदार उमापति परिहरि, अनत जे जाचन जाहीं ।
तुलसिदास ते मूढ़ माँगने, कबहुँ न पेट अघाहीं ॥ ४ ॥
भावार्थ - शंकर के समान दानी कहीं नहीं है। वे दीनदयालु हैं, देना ही उनके मन भाता है, माँगनेवाले उन्हें सदा सुहाते हैं ॥ १ ॥ वीरोंमें अग्रणी कामदेवको भस्म करके फिर बिना ही शरीर जगत्में उसे रहने दिया, ऐसे प्रभुका प्रसन्न होकर कृपा करना मुझसे करोड़ों प्रकारसे योगकी साधना करके क्योंकर कहा जा सकता है ?
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