रावण जीवनवृत्त
इस खंड में सबसे पहले लंकाधिपति रावण के परिवारजन, पूर्वजों, उनके स्वयं के जन्म तथा जीवनवृत्त का उल्लेख किया गया है।
दशरथ पुत्र रामचन्द्र ने रावण के जीवनवृत्त के बारे में महर्षि अगस्त्य से प्रश्न किया था।
तब अगस्त्य जी ने उन्हें जो उत्तर दिया था उसी को य्हां पर प्रस्तुत किया जा रहा है।
रावण का कुल
अगस्त्य उवाच -
शृणु राम तथा वृत्तं तस्य तेजोबलं महत्।
जघान शत्रून् येनासौ न च वध्यः स शत्रुभिः॥
अगस्त्य जी ने कहा - हे राम! इन्द्रजीत के महान बल-साहस का तेज सुनो जिसके द्वारा वह अपने अत्रुओं को मार गिराता था और कोई शत्रु उसे नहीं मार पाता था।
शिवलिंग की स्थापना एवं लक्षण
भगवान शिव की आराधना हेतु महापण्डित रावण ने अपने गरुदेव शुक्राचार्य से शिवलिंग पूजन विधान का वर्णन करने को प्रार्थना की। अपने हृदय में भगवान् शिव के प्रति रावण का श्रद्धा भाव देख गुरु शुक्राचार्य प्रसन्न होकर बोले-हे रावण! मैं तुम्हें तीनों लोकों में सभी विद्याओं के स्वामी तथा सबके हितकारी परम दयालु भगवान शिव के पूजन एवं शिवलिंग स्थापना का विधान बताता हूं, ध्यान से सुनो
शुभ समय में योग-नक्षत्र इत्यादि देखकर किसी पवित्र स्थान या नदी तट पर अपनी रुचि के अनुसार शिवलिंग की स्थापना करनी चाहिए, जहां नित्य पूजन हो सके। पार्थिव द्रव्य से, जलमय द्रव्य से, जैजस पदार्थ से अथवा कल्पोक्त पदार्थ से उत्तम लक्षणों से युक्त शिवलिंग का निर्माण करके उसकी पूजा करने से उपासक को पूरा-पूरा फल प्राप्त होता है। यदि सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से युक्त शिवलिंग की पूजा की जाए तो वह तत्काल पूजा का फल देने वाला होता है। यदि चल प्रतिष्ठा करनी हो तो इसके लिए छोटा-सा शिवलिंग अथवा विग्रह श्रेष्ठ माना जाता है। यदि अचल प्रतिष्ठा करनी हो तो स्थूल शिवलिंग अथवा विग्रह अच्छा माना गया है।
उत्तम लक्षणों से युक्त शिवलिंग की पीठ सहित स्थापना करनी चाहिए। शिवलिंग का पीठ मण्डलाकार (गोल), चौकोर, त्रिकोण अथवा खाट के पाये की भांति ऊपर-नीचे मोटा और बीच में पतला होना चाहिए। ऐसा लिंग-पीठ महान फल देने वाला होता है। पहले मिट्टी से, प्रस्तर से अथवा लोहे आदि से शिवलिंग का निर्माण करना चाहिए। जिस द्रव्य से शिवलिंग का निर्माण हो, उसी से उसका पीठ भी बनाना चाहिए। यही स्थावर (अचल प्रतिष्ठा वाले) शिवलिंग की विशेष बात है। चर (चल प्रतिष्ठा वाले) शिवलिंग में भी लिंग और पीठ का एक ही उपादान होना चाहिए। किन्तु बाणलिंग के लिए यह नियम नहीं है। लिंग की लम्बाई निर्माणकर्ता या स्थापना करने वाले यजमान के बारह अंगुल के बराबर होनी चाहिए। ऐसे ही शिवलिंग को उत्तम कहा गया है। यदि इससे कम लम्बाई हो तो फल में कमी आ जाती है। अधिक हो तो कोई दोष की बात नहीं है।
शुक्राचार्य अपनी बात को जारी रखते हुए बोले-चर लिंग में भी वैसा ही नियम है। उसकी लम्बाई कम से कम कर्ता के एक अंगल के बराबर होनी चाहिए। उससे छोटा होने पर अल्प फल मिलता है। किंतु उससे अधिक होना दोष की बात नहीं है। यजमान को चाहिए कि वह पहले शिल्पशास्त्र के अनुसार एक विमान या देवालय बनवाए, जो देवगणों की मूर्तियों से अलंकृत हो। उसका गर्भगृह बहुत ही सुन्दर, सुदृढ़ और दर्पण के समान स्वच्छ हो। उसे नौ प्रकार के रत्नों से विभूषित किया गया हो। उसके पूर्व और पश्चिम दिशा में दो मुख्य द्वार हों। अब ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः । भवे भवेनातिभवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः । ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मथाय नमः आदि वैदिक मंत्रों द्वारा शिवलिंग का पांच स्थानों में क्रमशः पूजन करके अग्नि में हविष्य की अनेक आहुतियां दें। फिर परिवार सहित मेरी पूजा करके गुरुस्वरूप आचार्य को धन से तथा भाई-बन्धुओं को जड़ (सुवर्ण, गृह एवं भू-सम्पत्ति) एवं चेतन (गौ आदि) वैभव प्रदान करें।
तत्पश्चात् स्थावर-जंगम सभी जीवों को यत्नपूर्वक संतुष्ट करके एक गड्ढे में सुवर्ण तथा नौ प्रकार के रत्न भरकर सद्योजातादि वैदिक मंत्रों का उच्चारण करके परम कल्याणकारी महादेवजी का ध्यान करें। फिर नादघोष से युक्त महामंत्र ओंकार (ॐ) का उच्चारण करके उक्त गड्ढे में शिवलिंग की स्थापना करके उसे पीठ से संयुक्त करें। लिंग की स्थापना करके नित्य लेप (दीर्घकाल तक टिके रहने वाले मसाले) से जोड़कर स्थिर करें। इसी प्रकार वहां परम सुन्दर वेर (मूर्ति) प्रतिष्ठा के लिए भी समझनी चाहिए। अन्तर इतना ही है कि लिंग प्रतिष्ठा के लिए प्रणव मंत्र के उच्चारण का विधान है। परंतु वेर की प्रतिष्ठा पंचाक्षर मंत्र से करनी चाहिए। जहां लिंग की प्रतिष्ठा हुई है, वहां भी उत्सव के लिए बाहर सवारी निकालने आदि के निमित्त वेर (मूर्ति) को रखना आवश्यक है। वेर को बाहर से भी लिया जा सकता है। उसे गुरुजनों से ग्रहण करें। बाह्य वेर वही लेने योग्य है, जो साधु-पुरुषों द्वारा पूजित हो। इस प्रकार लिंग और वेर में भी की हुई महादेवजी की पूजा शिवपद प्रदान करने वाली होती है।
स्थावर और जंगम के भेद से लिंग भी दो प्रकार का कहा गया है। वृक्ष, लता आदि को स्थावर लिंग कहते हैं और कृमि-कीट आदि को जंगम लिंग । स्थावर लिंग की सींचने आदि के द्वारा सेवा करनी चाहिए और जंगम लिंग को आहार एवं जल आदि देकर तृप्त करना उचित है। उन स्थावर-जंगम जीवों को सुख पहुंचाने में अनुरक्त होना भगवान् शिव का पूजन है, ऐसा विद्वान पुरुष मानते हैं। यों चराचर जीवों को ही भगवान् शंकर का प्रतीक मानकर उनका पूजन करना चाहिए।
पूजन विधि तथा शिवपद की प्राप्ति
महालिंग की स्थापना करके विविध उपचारों द्वारा उसका पूजन करें। अपनी शक्ति के अनुसार नित्य पूजा 'करनी चाहिए तथा देवालय के पास ध्वजारोपण आदि करना चाहिए। शिवलिंग साक्षात् शिव का पद प्रदान करने वाला है। चर लिंग में षोडशोपचारों द्वारा यथोचित रीति से क्रमशः पूजन करें। यह पूजन भी शिवपद प्रदान करने वाला है। आह्वान, आसन, अर्घ्य, पाद्य, पाद्यांग आचमन, अभ्यंगपूर्वक स्नान, वस्त्र एवं यज्ञोपवीत, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल - समर्पण, नीराजन, नमस्कार और विसर्जन - ये सोलह उपचार हैं अथवा अर्ध्य से लेकर नैवेद्य तक विधिवत् पूजन करें। अभिषेक, नैवेद्य, नमस्कार और तर्पण - ये सब यथाशक्ति नित्य करें। इस तरह किया हुआ शिव का पूजन शिवपद की प्राप्ति कराने वाला होता है।
किसी मनुष्य के द्वारा स्थापित शिवलिंग, ऋषियों द्वारा स्थापित शिवलिंग, देवताओं द्वारा स्थापित शिवलिंग, अपने आप प्रकट हुए स्वयंभूलिंग तथा अपने द्वारा नूतन स्थापित शिवलिंग का उपचारपूर्वक पूजन करने या पूजा की सामग्री देने से भी मनुष्य को उपरोक्त फल प्राप्त होता है । क्रमशः परिक्रमा और नमस्कार करने से भी शिवलिंग शिवप्रद की प्राप्ति कराने वाला होता है। यदि नियमपूर्वक शिवलिंग का दर्शनमात्र कर लिया जाए तो वह भी कल्याणप्रद होता है। मिट्टी, आटा, गाय के गोबर, फूल, कनेर पुष्प, फल, गुड़, मक्खन, भस्म अथवा अन्न से भी अपनी रुचि के अनुसार शिवलिंग बनाकर तदनुसार उसका पूजन करें या प्रतिदिन दस हजार प्रणव मंत्र का जप करें अथवा दोनों संध्याओं के समय एक-एक सहस्र प्रणव का जप करें। यह क्रम भी शिवपद की प्राप्ति कराने वाला है, ऐसा जानना चाहिए।
जपकाल में मकरान्त प्रणव का उच्चारण मन की शुद्धि करने वाला होता है। समाधि में मानसिक जप का विधान है, लेकिन अन्य सभी समय उपांशु जप ही करना चाहिए। नाद और बिन्दु से युक्त ओंकार के उच्चारण को विद्वान पुरुष 'समानप्रणव' कहते हैं । यदि प्रतिदिन आदरपूर्वक दस हजार पंचाक्षर मंत्र का जप किया जाए अथवा दोनों संध्याओं के समय एक-एक सहस्र का ही जप किया जाए तो उसे शिवपद की प्राप्ति कराने वाला समझना चाहिए। ब्राह्मणों के लिए आदि में प्रणव से युक्त पंचाक्षर मंत्र अच्छा बताया गया है।
कलश से किया हुआ स्नान, मंत्र की दीक्षा, मातृकाओं का न्यास, सत्य से पवित्र अन्तःकरण वाला ब्राह्मण तथा ज्ञानी गुरु-इन सबको उत्तम माना गया है। द्विजों के लिए नमः शिवाय के उच्चारण का विधान है। द्विजेतरों के लिए अन्त में नमः पद के प्रयोग की विधि है अर्थात् वे शिवाय नमः मंत्र का उच्चारण करें। स्त्रियों के लिए भी कहीं-कहीं विधिपूर्वक नमोऽन्त उच्चारण काही विधान है अर्थात् वे भी शिवाय नमः का ही जप करें। कोई-कोई ऋषि ब्राह्मण स्त्रियों के लिए नमःपूर्वक शिवाय के जप की अनुमति देते हैं अर्थात् वे नमः शिवाय का जप करें।
पंचाक्षर मंत्र का पांच करोड़ जप करके मनुष्य भगवान् सदाशिव के समान हो जाता है। एक, दो, तीन अथवा चार करोड़ का जप करने से क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा महेश्वर का पद प्राप्त होता है या मंत्र में जितने अक्षर हैं, उनका पृथक-पृथक एक-एक लाख जप करें अथवा समस्त अक्षरों का एक साथ ही जितने अक्षर हों, उतने लाख जप करें। इस तरह के जप को शिवपद की प्राप्ति कराने वाला समझना चाहिए। यदि एक हजार दिनों में प्रतिदिन एक सहस्र जप के क्रम से पंचाक्षर मंत्र का दस लाख जप पूरा कर लिया जाए और प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन कराया जाए तो उस मंत्र से अभीष्ट कार्य की सिद्धि होने लगती है । ब्राह्मणों को चाहिए कि
प्रतिदिन प्रातःकाल एक हजार आठ बार गायत्री का जप करें। ऐसा करने पर गायत्री क्रमशः शिवपद प्रदान करने वाली होती हैं। वेदमंत्रों और वैदिक सूक्तों का भी नियमपूर्वक जप करना चाहिए। वेदों का पारायण भी शिवपद की प्राप्ति कराने वाला है, ऐसा जानना चाहिए।
अन्यान्य जो बहुत से मंत्र हैं, उनके जितने अक्षर हों, उतने लाख जप करें। इस प्रकार जो यथाशक्ति जप करता है, वह क्रमशः शिवपद (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है। अपनी रुचि के अनुसार किसी एक मंत्र को अपनाकर मृत्युपर्यन्त प्रतिदिन उसका जप करना चाहिए अथवा 'ओम्' (ॐ) मंत्र का प्रतिदिन एक सहस्र जप करना चाहिए। ऐसा करने पर भगवान् शिव की आज्ञा से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है।
पुण्य कार्य
जो मनुष्य भगवान् शिव के लिए फुलवाड़ी या बगीचे आदि लगाता है तथा शिव के सेवाकार्य के लिए मन्दिर में झाड़ने- बुहारने आदि की व्यवस्था करता है, वह शिवपद प्राप्त कर लेता है। भगवान् शिव के जो काशी आदि क्षेत्र हैं, वहां भक्तिपूर्वक निवास करें। वह जड़ एवं चेतन - सभी at भोग और मोक्ष देने वाला है। अतः विद्वान पुरुष को भगवान् शिव के क्षेत्र में आमरण निवास करना चाहिए। पुण्य क्षेत्र में स्थित बावड़ी, कुआं और पोखरे आदि को शिवगंगा समझना चाहिए - भगवान् शिव का ऐसा ही वचन है। वहां स्नान, दान और जप करके मनुष्य भगवान् शिव को प्राप्त कर लेता है। अतः मृत्युपर्यन्त शिव के क्षेत्र का आश्रय लेकर रहना चाहिए।
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