श्लोक - वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥
अक्षर, अर्थ-समूह, रस, छन्द और मङ्गल के करनेवाले सरस्वती और गणेश जी को मैं प्रणाम करता हूं।
भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरम्॥
श्रद्धा और विश्वासरूपी भवानी-श्ङ्कर की मैं वन्दना करता हूं जिनके बिना सिद्धजन अपने हृदय में स्थित ईश्वर को नहीं देखते।
बार बार पद और अर्थ को प्रवृति से 'पदार्थावृत्ति दीपक अलंकार' है। साधु कहने पर भी व्यक्ति से निन्दा प्रकट होता 'व्याज निन्दा अलंकार' है ।
दो०- होत प्रात सुनि बेष धरि, जोँ न राम बन जाहिँ । मोर मंरन राउर अजस, नृप सलुझिय मन माहिँ ॥३३॥
सवेरा होते ही मुनिवेश धारण करके यदि रामचन्द्र वन को न जायेंगे, ते हे राजन् ! मन में निश्चय समझिये कि मेरी मृत्यु और आप को कलङ्क होगी ॥३३॥ - अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी । मानहुँ रोष - तरङ्गिनि बाढी ॥ पाप-पहार प्रगट भइ सोई । भरी क्रोध - जल जाइ न जाई ॥१॥
ऐसा कह कर वह दुष्टा उठ कर खड़ी हो गई, ऐसा मालूम होता है मानों क्रोध की नदी पढ़ी हो। वह नदी पाप रूपी पहाड़ ले प्रकट हुई और क्रोध रूपी जल से भरी है जो देखी नहीं जाती (बड़ी भयावनी ) है ॥१॥
दोउ बर कूल कठिन हठ धारा । भँवर कूबरी - बचन प्रचारा ॥ ढोहत भूप-रूप- तरु मूला | चली बिपति-वारिधि अनुकूला ॥२॥
दोनों वर किनारे हैं और कठिन इठ धारा है, कूवरी के उत्तेजक चचम भँवर हैं। राजा का रूप वृक्ष है, उसे जड़ से ढहाते हुए विपत्ति रूपी समुद्र की ओर चली है ॥ २ ॥ लखी नरेस बात सथ साँची । तिय मिस मीच सीस पर नाँची ॥ गहि पद बिनय कीन्हि बैठारी । जनि दिनकर कुल हासि कुठारी ॥३॥
राजा ने देखा कि बात सब सच्ची है, स्त्री के बहाने मेरी मौत ही सिर पर नाच रही है। पाँव पकड़ कर विनती करके बैठाया और कहा -सूर्यकुल रूपी वृक्ष के लिए टॅगारी मत ||३||
राजा का यह कहना कि स्त्री के बहाने मेरी मौत सिर पर नाचती है 'कैतवा वहति अलंकार' है। राजपुर की प्रति में 'लबी नरेस बात फुरि सांची' पाठ है। उसका अर्थ होगा कि'राजा ने देखा कि बात सचमुच ठोक है'। परन्तु गुटका और सभा की प्रति में उपर्युक्त पाठ है, जिससे यह सम्भव जान पड़ता है कि काशी की प्रति में गोसांईजी ने इस पाठ का संशोधन किया है। क्योंकि पर्यायवाची शब्दों से पुनरुक्ति दोष आता है।' माँ माथ बहीँ देउँ तोही । राम- बिरह जनि मारसि मे ही ॥ राखु राम कहँ जेहि तेहि भाँती । नाहि ल जरिहि जनम भरि छाती ॥४॥ मेरा मस्तक माँग तो अभी मैं तुझे दे दूँ, पर रामचन्द्र के वियोग से मुझे मत मार । जिस किसी प्रकार से रामचन्द्र को रख ले, नहीं तो जन्म भर छाती जलेगी ॥ ४ ॥
दो०-देखी व्याधि असाधि नृप, परेउ धरनि धुनि माथ।
कहत परम आरत बचन, राम राम रघुनाथ ॥३४॥
राजा ने देखा कि रोग असाध्य है (यह छूट नहीं सकता, तब) अत्यन्त पीन वाणी से हो राम, हा राम, हाय रघुनाथ कहते हुए सिर पीट कर धरती पर गिर पड़े॥३४॥
राजा का मन रामचन्द्रजी के विरह की चिन्ता से विकल हो गया 'मोह सञ्चारीभाव है। चौ--व्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता।
कंठ सूख मुख आव न मानी। जन पाठीन दीन बिल पानी ॥२॥
च्याकुलता से राजा का सब अङ्ग ढोला पड़ गया, ऐसा मालूम होता है मानो हथिनी ने कल्पवृक्ष का नाश कर दिया हो । उनका गला सूख गया मुंह से घात नहीं निकलती है,
ऐसे जान पड़ते हैं मानों बिना पानी के पहिना मछली दुखी हो ॥१॥ पुनि कह कटु कठोर 'कैकेई । मनहुँ घाय महँ माहुर देई॥ जौँ अन्तह अस करतब रहेऊ । माँगु माँग तुबह केहि बल कहेऊ ॥२
फिर फेकयी कठिन कड़वी बातें कहने लगो, ऐसा मालूम होता है मानो घाव में विष दे रही हो । यदि तुम्हारे हृदय में ऐसा ही करतब था तो मांगो माँगो किस बल से तुमने कहा है ॥२॥
राजा और घाव, केकयी की कड़ी बात और जहर परस्पर उपमेय उपमान हैं । घाव में विष भरने से भयङ्कर कष्ट होता ही है । यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। अङ्कार
पूर्वक पति का अनादर करना 'विवोक हाय' है। दह कि होइ एक समय भुओला । हँसब ठठाइ फुलाउब गाला ॥ दानि कहोउब अरु कृपनाई। होइ कि षेम-कुसल रौताई ॥३॥
हे राजा | क्या एक साथ ठठा कर हँसना और गा फुलाना दोनों हो सकता हैदानी कहलाना और कब्जूसी भी करना पया शूरता में कुशल-चोम की चाद होती है?॥३॥
काकुले वाच्यसिद्धधाङ्गगुणीभूत व्यक्त है कि तुमने सर्वात के मत से मुझे छिपा कर रामचन्द्र को राजतिलक करना चाहा था । मुझ को और कौशल्या को बराबर प्रसन्न रखना चाहते हो तो यह न होगा। सत्यवादी की डीग हाँक कर अव किस मुख से रामचन्द्र को
घर रखने के लिए कहते हो ? बड़े शोक की बात है। छाड़ह बचन कि धीरज धरह । जनि अबला मिजि करुना करह ॥ तन तिय तनय धाम धन धरनी। सत्यसन्ध कह न सम बरनी ॥४॥
या तो बात छोड़ दो या धीरज धरो, स्त्रियों की तरह करुणा मत करो। शरीर, स्त्री, पुत्र, घर, सम्पत्ति और धरती सत्यवादी पुरुषों के लिए तिनके के समान कही ॥४॥
या ते। वचन छोड़ो या धैर्य धारण करो विकल्प प्रलंकार है।
दो-रम बचन सुनि राउ कह, कहु कछु दोष न तार ।
लागेउ ताहि पिसाच जिमि, काल कहावत मेरि ॥ ३५ ॥
इस तरह भेद भरी कठोर बातें सुन कर राजा कहते हैं कि चाहे जो कह, इसमें तेरा कुछ दोष नहीं है। जैसे तुझ को पिशोच लगा हो, बद्दी मेरा काल होकर कहलाता है ॥ ३५ ॥ काचा धर्म (कटु जल्पना) इसलिए निषेध किया कि वह धर्म अपने काल रूपी पिशाच में आरोपित करना अभीष्ट है। यह 'पर्यस्तापहुति [अलंकार' है।
भरत भूपतहि भारे । बिधि बस कुमति बसी उर तारे । सो सब मोर पाप परिनाम् । भयउ कुठाहर जेहि विधि बाम ||१||
भरत तो भूल कर भी राज-पद को नहीं चाहते, तो भी तेरे मन में कुबुद्धि होनहार के यश टिक गई है। वह सब मेरे पाप का फल है जिस से कुसमय में विधाता टेढ़े हुए हैं ॥१॥
सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई । सब गुन करिहहि भाइ सकल सेवकाई । होइहि तिहुँ पुर
धाम राम प्रभुताई ॥ राम बड़ाई ॥२॥
फिर भी अयोध्या स्वतन्त्र रूप से सुन्दर बलेगी और सब गुणों के धाम रामचन्द्र राजा होंगे। सब बन्धु-गए उनकी सेवा करेंगे और तीनों लोक में रामचना की बड़ाई होगी ॥ २ ॥ भविष्य में होनेवाली बातों को प्रत्यक्ष वर्णन करने में 'भाविक अलंकार' है। तर कलङ्क मोर पछिताऊ । मुयेहु न मिटिहि न जाइहि काऊ ॥ अब तोहि नीक लाग करु सोई । लोचन ओट बैठु मुँह गोई ॥३॥
बैठु तेरा कलङ्क र मेरा पश्चाताप मरने पर भी न मिटेगा और न कभी संसार से जायगा । अब जो तुझे अच्छा लगे वही कर, पर मेरी आँखों की आड़ में मुँह छिपा कर बैठ ॥ ३ ॥ जब लगि जिउँ कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी ॥ फिरि पछितैहसि अन्त अभागी | मारसि गाइ न हारू लागी ॥४॥ हाथ जोड़ कर कहता हूँ कि जब तक मैं जीता रहूँ, तब तक तू फिर कुछ मत कद अरी अभागिनी ! गाय मारने में तुझे पीड़ा नहीं लगती है ? फिर अन्त में (विधवापन और कलक लगने पर पछतायगी ॥ ४ ॥
अपने दुईठ के लिए पछतायगी। इस साधारण बात को विशेष उदाहरण से पुष्ट करना कि गाय मारने में दुःख नहीं लगता, गोहत्या सिर आने पर जान पड़ेगा 'अर्थान्तरन्यास अलंकार है। सभा की प्रति में नारुहि पाठ है और रामवक्स पाण्डेय ने नाहरू पाठ कर दिया है। उसी प्रकार सरह तरह के अर्थ भी गढ़े गये हैं। पर राजापुर की प्रति जो गोसाँईजी के हाथ की लिखी अब तक चल मान है, उसमें 'नाक' पाठ है। उस प्रति में शब्द विन्यास नहीं है, इससे 'न' अक्षर मिला-कर उच्चारण करने से 'नहारू' एक शब्द हो सकता है।
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