योग एक अनुभूति है जो समाधि के द्वारा प्राप्त होती है।
यह अनुभूति सबको मिल सकती है क्या?
नहीं, कहता है योगशास्त्र।
हम यहां जिस योग के बारे में बात कर रहे हैं, वह व्यायाम वाला योग नहीं है। जो रोगनाशक योग है, वह नहीं है। यह वह योग है जो पातञ्जल योगशास्त्र सिखाता है।
योग दो प्रकार के हैं — हठयोग और राजयोग।
पातञ्जल योगशास्त्र में बताया गया संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात योग के बारे में हम आगे देखेंगे।
'हठेन बलात्कारेण योगः हठयोगः' — इसमें आसन, प्राणायाम और धौति जैसे क्रियामात्र हैं।
हठयोग का कहना है कि केवल क्रियामात्र से, निरंतर अभ्यास से, योगावस्था की प्राप्ति हो सकती है। इसके लिए आस्तिक बुद्धि की भी आवश्यकता नहीं है। रोगी व्यक्ति भी कर सकता है।
पर महर्षि पतञ्जलि जिस योगाभ्यास की बात कर रहे हैं, वह राजयोग है।
राजयोग में भावना मुख्य है। आसन और प्राणायाम — ये दोनों राजयोग के सिर्फ दो अंग हैं।
'हठं विना राजयोगः राजयोगं विना हठः।। न सिध्यति ततो युग्ममानिष्पत्तेः समभ्यसेत्।'
हठयोगप्रदीपिका में ही बताया है — हठयोग के बिना राजयोग की सिद्धि नहीं होती। राजयोग के बिना हठयोग की भी सिद्धि नहीं होती।
आसन, प्राणायाम स्वरूपी हठयोग पातञ्जल योगशास्त्र के अंतर्गत है, पर राजयोग में बताई गई भावना के बिना हठयोग कैसे सिद्ध होगा — यह सोचने वाली बात है।
खैर, योग की अनुभूति सबको मिल सकती है क्या?
इसे समझने से पहले मन के बारे में समझना होगा।
पांच प्रकार के मन हैं — मूढ, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध।
हर एक व्यक्ति का मन इनमें से किसी एक प्रकार का होता है।
अगर आपका मन एकाग्र या निरुद्ध प्रकार का हो, तभी आपमें योग की अनुभूति प्राप्त करने की संभावना रहेगी।
मूढ मन क्या है?
'मूढं तमसा निद्रादि वृत्तितम्' — ऐसा मन तमोगुण प्रधान है। ऐसे मन में आलस्य, नींद इत्यादि ही रहेंगे। कुछ करने की इच्छा नहीं रहेगी। बहुत से लोग हैं ऐसे — जिन्दगी सोकर बर्बाद करने वाले। खाना मिला, आराम करने की जगह मिली — बहुत है। ऐसे लोगों को कभी योग की अनुभूति नहीं मिलेगी।
क्षिप्त मन क्या है?
'रजसा विषयेष्वेव वृत्तिमत्' — यह रजोगुण वाला मन है।
ऐसे मन में कुछ न कुछ पाने की इच्छा होती रहती है — योगाभ्यास द्वारा मुझे सिद्धियां मिलेंगी, नाम कमाऊंगा, मान-सम्मान मिलेगा, लोग मुझे योगर्षि कहेंगे, मेरे बहुत सारे शिष्य होंगे, मेरा बड़ा आश्रम होगा, दुनिया भर में उसकी शाखाएं होंगी।
यह है रजोगुण।
न केवल यह — जिसका मन बंगला, गाड़ी, धन-दौलत, सुख-सुविधा, नौकरी में तरक्की, प्रमोशन, व्यापार में बढ़ोतरी, खूबसूरत पत्नी/पति, बुद्धिमान बच्चे — इन सब चीजों में लगा रहता है, ऐसे लोग कभी योग को अनुभव नहीं कर पाएंगे।
ऐसे लोग योगाभ्यास को व्यायाम के स्तर पर ही सीमित रखें — तो ही अच्छा है।
मूढ मन कभी योग करने के बारे में सोचेगा ही नहीं।
तीसरा — विक्षिप्त मन
विक्षिप्त मन, क्षिप्त मन से थोड़ा बेहतर है। ऐसे मन में थोड़े समय के लिए कभी-कभी समाधि लग भी सकती है, पर ऐसे लोगों में जो रजोगुण है, वह इस समाधि को टिकने नहीं देगा।
मन अन्य विषयों की तरफ दौड़ता रहेगा। ऐसा मन भी योग के लिए योग्य नहीं है।
ऐसे मन में जो बीच-बीच में समाधि लगती है — उसे योग नहीं मानते।
चौथा — एकाग्र मन
एकाग्र मन वाले, अपने मन में जो रजोगुण और तमोगुण हैं, उन दोनों को दबाकर किसी एक वस्तु के ऊपर अपने मन को एकाग्र कर पाते हैं।
ऐसा मन सत्त्वगुण प्रधान होता है — जिसमें न किसी विषय, वस्तु या व्यक्ति से न राग है, न द्वेष।
जब तक चाहें, ऐसे लोग एक ही विषय पर अपने मन को एकाग्र रख सकते हैं।
जैसे दीप की ज्वाला जहां हवा नहीं चलती, उस जगह पर जैसे दीप अचंचल रहता है — वैसे ही ऐसे लोग अपने मन को एकाग्र रख पाते हैं।
पांचवां — निरुद्ध मन
निरुद्ध मन में रजोगुण, तमोगुण और सत्त्वगुण — तीनों ही नहीं रहेंगे।
कोई चिंतन या विचार नहीं रहेगा।
मन एक खाली बर्तन जैसा रहेगा — सद्विचार भी नहीं रहेंगे निरुद्ध मन में।
इन पांचों में से केवल एकाग्र और निरुद्ध, इन दोनों प्रकार के मन में ही योग की अनुभूति हो सकती है — मूढ, क्षिप्त और विक्षिप्त में नहीं।
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