धर्म वेदों द्वारा स्थापित है, और अधर्म उसका विपरीत है। वेदों को श्री हरि का प्रत्यक्ष प्रकट रूप माना जाता है, और भगवान ने ही सबसे पहले उन्हें उद्घोषित किया। इसलिए, वेदों को समझने वाले विद्वान कहते हैं कि वेद श्री हरि के सार का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह वेदों की दिव्य उत्पत्ति और अधिकारिता में विश्वास को रेखांकित करता है, जो मानवता को धार्मिकता की ओर मार्गदर्शन करने में उनकी भूमिका को उजागर करता है।
व्रत करने से देवी देवता प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं। जीवन में सफलता की प्राप्ति होती है। मन और इन्द्रियों को संयम में रखने की क्षमता आती है।
देवी महामाया त्रिदेव को रक्षा की वचन देती हैं
व्यापार बंधन खोलने के उपाय
ॐ दक्षिण भैरवाय भूत-प्रेत बन्ध, तन्त्र- बन्ध, निग्रहनी, सर....
Click here to know more..नवग्रह अष्टोत्तर शतनामावलि
ॐ भानवे नमः । हंसाय । भास्कराय । सूर्याय । सूराय । तमोहराय....
Click here to know more..मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद के मन्त्रभाग के अन्तर्गत है । इसमें तीन मुण्डक हैं और एक-एक मुण्डकके दो-दो खण्ड हैं । ग्रन्थके आरम्भमें ग्रन्थोक्त विद्याकी आचार्यपरम्परा दी गयी है । वहाँ बतलाया है कि यह विद्या ब्रह्माजीसे अथर्वाको प्राप्त हुई और अथर्वासे क्रमशः अङ्गी और भारद्वाजके द्वारा अङ्गिराको प्राप्त हुई । उन अङ्गिरा मुनिके पास महागृहस्थ शौनकने विधिवत् आकर पूछा कि 'भगवन् ! ऐसी कौन-सी वस्तु है जिस एकके जान लेनेपर सब कुछ जान लिया जाता है ?' महर्षि शौनकका यह प्रश्न प्राणिमात्रके लिये बड़ा कुतूहलजनक है, क्योंकि सभी जीव अधिक-से-अधिक वस्तुओंका ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं ।
इसके उत्तरमें महर्षि अङ्गिराने परा और अपरा नामक दो विद्याओं- का निरूपण किया है । जिसके द्वारा ऐहिक और आमुष्मिक अनात्म पदार्थोंका ज्ञान होता है उसे अपरा विद्या कहा है, तथा जिससे अखण्ड, अविनाशी एवं निष्प्रपञ्च परमार्थतत्त्वका बोध होता है उसे परा विद्या कहा गया है । सारा संसार अपरा विद्याका विषय है तथा संसारी पुरुषोंकी प्रवृत्ति भी उसीकी ओर है । उसीके द्वारा ऐसे किसी एक ही अखण्ड तत्त्वका ज्ञान नहीं हो सकता जो सम्पूर्ण ज्ञानोंका अधिष्टान हो, क्योंकि उसके विषयभूत जितने पदार्थ हैं वे सब-के-सब परिच्छिन्न ही हैं। अपरा विद्या वस्तुतः अविद्या ही है; व्यवहारमें उपयोगी होनेके कारण ही उसे विद्या कहा जाता है । अखण्ड और अव्यय तत्त्वके जिज्ञासुके लिये वह त्याज्य ही है । इसीलिये आचार्य अङ्गिराने यहाँ उसका उल्लेख किया है ।
इस प्रकार विद्याके दो भेद कर फिर सम्पूर्ण ग्रन्थमें उन्होंका सविस्तर वर्णन किया गया है । ग्रन्थका पूर्वार्ध प्रधानतया अपरा विद्याका निरूपण करता है और उत्तरार्ध में मुख्यतया परा विद्या और उसकी प्राप्तिके साधनों का विवेचन है । इस उपनिषद्की वर्णनशैली बड़ी ही उदात्त एवं हृदयहारिणी है, जिससे स्वभावतः ही जिज्ञासुओंका हृदय इसकी ओर आकर्षित हो जाता है ।
उपनिपदोंका जो प्रचलित क्रम है उसके अनुसार इसका अध्ययन प्रश्नोपनिपदके पश्चात् किया जाता है । परन्तु प्रस्तुत पुस्तकके पृष्ट ९४ पर भगवान् शङ्कराचार्य लिखते हैं— 'वक्ष्यति च 'न येषु जिह्ममनृतं न माया च' इति' अर्थात् 'जैसा कि आगे ( प्रश्नोपनिप में ) 'जिन पुरुषों में अकुटिलता, अनृत और माया नहीं है' इत्यादि वाक्यद्वारा कहेंगे भी ।' इस प्रकार प्रश्नोपनिषद् के प्रथम प्रश्नके अन्तिम मन्त्रका भविष्यकालिक उल्लेख करके आचार्य सूचित करते हैं कि पहले मुण्डकका अध्ययन करना चाहिये और उसके पश्चात् प्रश्नका । प्रश्नोपनिषद्का भाष्य आरम्भ करते हुए तो उन्होंने इसका स्पष्टतया उल्लेख किया है । अतः शाङ्करसम्प्रदाय के वेदान्तविद्यार्थियोंको उपनिषद्भाष्यका इसी क्रमसे अध्ययन करना चाहिये । अस्तु, भगवान् से प्रार्थना है कि इस ग्रन्थके अनुशीलनद्वारा हमें ऐसी योग्यता प्रदान करें जिससे हम उनके सर्वा- विष्टानभूत परात्पर स्वरूपका रहस्य हृदयङ्गम कर सकें ।
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