Special - Saraswati Homa during Navaratri - 10, October

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भगवान श्रीकृष्ण का जन्म कारागार के अन्दर क्यों हुआ?

कारागार के अंदर भगवान कृष्ण के जन्म के पीछे की घटनाओं के बारे में जानें।

vasudev devaki

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भगवान श्रीकृष्ण का जन्म कारागार के अन्दर क्यों हुआ?

इसके पीछे की घटनाओं के क्रम को जरा देखते हैं।

उससे पहले -

भगवान श्रीहरि ने यदुकुल में अवतार क्यों लिया?

श्रीमद्देवीभागवत के अनुसाए इसके दो कारण हैं -

१ - महर्षि भृगु का श्राप।

२ - देवी योगमाया की इच्छा।

इन दोनों में प्रबल योगमाया की इच्छा ही है।

सभी प्रकार के लोग देवी की पूजा करते हैं - सुख या मोक्ष प्राप्त करने के लिए।

देवी महामाया की पूजा असाधारण है क्योंकि इसमें थोडी सी भक्ति की ही आवश्यकता होती है।

बदले में, माता आपको सब कुछ दे देती हैं।

जब आप किसी समस्या में हो, डरे हुए या निराशा महसूस कर रहे हो, तो बस एक बार पुकारें - माँ, मुझे बचा लो।

बच्चे की सुरक्षा माँ की जिम्मेदारी है।

मां शब्द सुनने पर ही मां आपको सुरक्षा भी देगी, ऐश्वर्य भी दे देगी।

तो बाकी का क्या? मुझे बचा लो - इसका क्या?

माता आपकी ऋणी बन जाएगी।

सुनिश्चित रखेगी कि भविष्य में भी आपको कोई परेशानी न आयें।

पर देवी के बारे में एक बात जान लेना जरूरी है।

बन्धन में डालनेवाली भी देवी हैं और उद्धार करनेवाली भी देवी हैं।

जिसने जन्म लिया है उसे मरना ही है।

मरे हुए को फिर से जन्म लेना है।

यह प्रकृति का नियम है।

ब्रह्मा सहित सब की एक सीमित आयु होती है।

अगर विधि ने लिखकर रखा है कि किसी के हाथों किसी की मृत्यु होगी तो वह होगी ही होगी।

जन्म, मरण, बुढापा, रोग, सुख, दुख - जिसके लिए जो लिखा है, वह उसे भोगना ही पडेगा।

सूर्यदेव को देखिए, समस्त जगत को जलाने की शक्ति है उनमें, लेकिन उन्हें राहु पकड लेता है।

सबको अपनी चांदनी से सुख देनेवाले चंद्रदेव स्वयं कलंकी और क्षयरोगी हैं।

लेकिन भगवती की बात ही कुछ अलग है।

उनकी इच्छा से ही भगवान अवतार लेते हैं।

माता ही भगवान से लीलाएं कराती हैं।

यमुना के तट पर एक बडा वन था, मधुवन।

वहां लवणासुर नामक एक महाप्रतापी असुर रहता था।

वर प्राप्ति से उसका बडा घमंड हो गया था और वह सबको परेशान करता था।

श्रीराम जी का छोटा भाई शत्रुघ्न ने उसे मार डाला।

मधुवन के स्थान पर शत्रुघ्न ने वहीं मथुरा नामक सुंदर नगरी बसायी।

शत्रुघ्न के दो पुत्र मथुरा के शासक बन गये।

काल के अनुसार सूर्यवंशी चले गये और यादव कुल मथुरा के शासक बन गये।

जब उग्रसेन मथुरा के राजा बने, उनके मंत्री थे शूर॒सेन।

शूरसेन के पुत्र थे वसुदेव जी।

वसुदेव वैश्यों की वृत्ति करते थे।

उग्रसेन के भाई थे देवक।

उग्रसेन का पुत्र था कंस।

देवकी देवक की पुत्री थी।

देवक ने अपनी पुत्री का विवाह वसुदेव के साथ कराया।

देवकी के विदा होते समय एक आकाशवाणी सुनायी दी।

“कंस, इस देवकी का आठवां पुत्र तुम्हें मार डालेगा।”

कंस ने सोचा - अगर मैं देवकी को अभी इसी वक्त मार डालूंगा तो मैं मृत्यु से बच जाउंगा।

लेकिन देवक जी मेरे पिता के समान हैं।

देवकी मेरी बहन जैसी है।

उसे कैसे मारूं?

लेकिन बचना है तो मारना तो पडेगा।

बाद में कुछ प्रायश्चित्त करके पाप को भी धो देंगे।

कंस ने अपना तलवार निकाला और देवकी को बाल से पकड लिया।

जनता के बीच हाहाकार मचने लगा।

केवल एक आकाशवाणी के आधार पर कंस ऐसे क्यों कर सकता है?

शायद कोई शत्रु माया से आकाश में छिप कर ऐसे कर रहा हो।

कंस पीछे नहीं हट रहा था।

उस समय वसुदेव जी कंस को बोले, “देखो, देवकी के जितने बच्चे होंगे उन्हें मैं तुम्हें सौंप दूंगा, यह मेरा वादा है।”

कंस मान गया।

इस प्रकार देवकी कंस से बचकर वसुदेव जी के साथ रहने लगी।

दस महीनों बाद देवकी ने एक पुत्र को जन्म दिया।

वसुदेव जी उस बच्चे को लेकर कंस के पास जाने लगे और उन्होंने देवकी से कहा कि यह विधि का विधान है, इससे कोई बच नही सकता।

देवकी बोली, “अगर सब कुछ विधि का विधान है तो फिर धार्मिक अनुष्ठानों से क्या फायदा? प्रायश्चित्तों से क्या फायदा? ऋषि जनों के आप्तवाक्यों से क्या फायदा? हमें कुछ न कुछ उपाय सोचना चाहिए।”

उद्यम कर सकते हैं, पर फल मिलना भगवान की कृपा पर आश्रित है।

हर प्राणि के पास अनेक जन्मों से संचित कर्म रहता है।

इनमें से कुछ कर्म वर्तमान जन्म में अपने फल देने के लिए तैयार रहते हैं, इन्हें कहते हैं प्रारब्ध कर्म।

मृत्यु के बाद कर्मानुसार मानव स्वर्ग जैसे लोकों में सुख को पाता है या नरकों में यातनाओं को।

इसके बाद पुनर्जन्म लेकर वह फिर से भूमि पर चला आता है।

जितने पहले के शुभ और अशुभ कर्म हैं, शरीर से भोगने से ही वे समाप्त होते हैं।

जो कर्म वर्तमान जन्म में फल देना शुरू नहीं किया हो, उसे प्रायश्चित्त द्वारा नष्ट किया जा सकता है।

पर, जिसका फल आना शुरू हो गया है, वह किसी प्रकार रुकता नहीं है।

उसे भोगना ही पडेगा।

मैं ने कंस को वचन दिया है।

अगर मैं उसका पालन नहीं करता तो मैं झूठा कहलाऊंगा।

सर्वदा सच की रक्षा करनी चाहिए।

इसी में कल्याण है।

जगत सत्य के आधार पर ही स्थित है।

अगर हर कोई झूठ बोलता है, विश्वास तोडता है, चोरी करता है तो इस जगत का क्या होगा?

ऐसा कहकर वसुदेव जी ने कंस के पास जाकर बच्चे को सौंप दिया।

कंस प्रसन्न हो गया और बोला, “तुम बडे अच्छे भले हो, इसलिए अपने वचन का पालन किया।”

“यह बालक मेरी मृत्यु नहीं है।”

“इसे घर ले जाओ।”

“देवकी के आठवें पुत्र को मेरे पास ला दो।”

उस अमय नारद जी वहां चले आये।

नारद जी ने कहा, “कंस यह तुम क्या कर रहे हो? आकाशवाणी का तुमने गलत अर्थ निकाल लिया है।”

“इस बच्चे का जन्म पहले जरूर हुआ होगा, लेकिन अंत से पीछे की तरफ गिना जाएं तो यह आठवां भी हो सकता है।”

“संख्यानां वामतो गतिः इस प्रमाण के अनुसार किसी भी शब्द संबन्धित अंतिम अक्षर उसके संख्या रूप में सबसे पहले आता है, यह तो तुम्हें पता ही होगा।”

“तुम्हारे प्राण की बात है, उपेक्षा नहीं करना चाहिए।”

इस बात को सुनकर कंस ने उस बच्चे को पत्थर पर पटककर मार दिया।

अब वह जरा भी जोखिम नहीं उठाना चाहता था।

इसलिए वसुदेव जी और देवकी जी को कारागर में बंद कर दिया।

यही है भगवान श्रीकृष्ण के कारागार में जन्म होने के पीछे का रहस्य।

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भगवान कृष्ण का दिव्य निकास: महाप्रस्थान की व्याख्या

भगवान कृष्ण के प्रस्थान, जिसे महाप्रस्थान के नाम से जाना जाता है, का वर्णन महाभारत में किया गया है। पृथ्वी पर अपने दिव्य कार्य को पूरा करने के बाद - पांडवों का मार्गदर्शन करना और भगवद गीता प्रदान करना - कृष्ण जाने के लिए तैयार हुए। वह एक पेड़ के नीचे ध्यान कर रहे थे तभी एक शिकारी ने गलती से उनके पैर को हिरण समझकर उन पर तीर चला दिया। अपनी गलती का एहसास करते हुए, शिकारी कृष्ण के पास गया, जिन्होंने उसे आश्वस्त किया और घाव स्वीकार कर लिया। कृष्ण ने शास्त्रीय भविष्यवाणियों को पूरा करने के लिए अपने सांसारिक जीवन को समाप्त करने के लिए यह तरीका चुना। तीर के घाव को स्वीकार करके, उन्होंने दुनिया की खामियों और घटनाओं को स्वीकार करने का प्रदर्शन किया। उनके प्रस्थान ने वैराग्य की शिक्षाओं और भौतिक शरीर की नश्वरता पर प्रकाश डाला, यह दर्शाते हुए कि आत्मा ही शाश्वत है। इसके अतिरिक्त, शिकारी की गलती पर कृष्ण की प्रतिक्रिया ने उनकी करुणा, क्षमा और दैवीय कृपा को प्रदर्शित किया। इस निकास ने उनके कार्य के पूरा होने और उनके दिव्य निवास, वैकुंठ में उनकी वापसी को चिह्नित किया।

श्री गंगाजी के दर्शन का फल

अग्निपुराण में कहा है जो गंगाजी का दर्शन, स्पर्श, जलपान या मात्र गंगा नाम का उच्चार करता है वह अपनी सैकडों हजारों पीढियों के लोगों को पवित्र कर देता है।

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एक राजा कुछ समय के लिये इन्द्र के पद पर नियुक्त किया गया था । उनका नाम क्या है ?
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