भारत देश अनेक देवालयों, पुण्य तीर्थों, महिमान्वित नदियों, पवित्र स्थलों, महात्माओं, ऋषि पुंगवों, मुनियों, महर्षियों, देवियों, देवों आदि का उद्गम स्थल है। जब-जब धर्म की हानी हुई, अधर्म का प्रकोप बढ़ गया, पाप के बोझ से भू देवी दब गयी, तब-तब भगवान् अवतार लेकर इस पृथ्वी पर आये और उन्होने शांति की स्थापना की। साथ साथ परमेश्वर ने मुनियों द्वारा लोगों को धर्म लाभ पाप-क्षय एवं उनसे प्राप्त स्थान, फल आदि के बारे में बताकर भारत- वासिमों को कृतकृत्य किया ।
इसी श्रृंखला में पुरी जगन्नाथ की महिमा के जिज्ञासु मुनियों को जैमिनी महर्षि ने अनेक विषयों की जानकारी दी। महर्षि ने बताया कि, जगन्नाथ क्षेत्र और पुरूषोत्तम क्षेत्र दोनों एक ही है । यह विषय परम गोपनीय है फिर भी मैं आप लोगों का कुतूहल देखकर स्पष्ट करता हूँ। पुरी नगरी में जगन्नाथ मनुष्य लीला से काष्ठ तन धारण कर निवास करते हैं । अतः यहाँ रहनेवाले सभी लोग पापरहित हैं । इस पुण्य क्षेत्र का क्षेत्रफल दस योजन है। इस के मध्य में नीलाचल है। पहले भगवान् ने वराह रूप धारण कर पृथ्वी का उद्धार किया और पृथ्वी समतल होकर पर्वतों से सुस्थिर हो गयी है ।
ब्रह्मा की प्रार्थना से श्री हरि प्रत्यक्ष होकर बोले कि दक्षिण सागर के उत्तर में महानदी के दक्षिणी भाग में स्थित वह पुरी प्रदेश सर्वतोर्थफलप्रद है । मैं सर्वसंग परित्यागी होकर वहाँ देहधारी बनकर निवास करता हूँ। मेरे पुरूषोत्तम क्षेत्र में सृष्टि, स्थिति एवं लय के लिये स्थान नहीं है । नोलाद्रि के अंतर्भाग में कल्पवट वृक्ष है । इसके पश्चिमी कोने में रोहिण नामक एक कुंड है। भगवान ने कहा कि तट के निवासी जो अपनी चर्मचक्षुओं से मुझे देखते हैं, उस कुंड के जल की महिमा से वे पापरहित होकर मेरे सायुज्य को प्राप्त करते हैं | व्रतों के आचरण एवं तीथों में परिशुद्ध आत्माओं को प्राप्त होने वाले पुण्य जो बताए गये हैं वे सभी पुण्य उस पुरुषोत्तम क्षेत्र में एक सुबह बिताने से प्राप्त होगे । वहीं कम-से-कम एक निःश्वास समय तक रहने से भी उन्हें अश्वमेघ याग के फल को प्राप्ति होगी ।
उस परमेश्वर के दर्शन से ब्रह्मा फूले न समाये और वे उनकी स्तुति करने लगे। उसी समय एक कौआ वहाँ के कुंड में डुबको लगाकर, कृपानिधि माधव को देखकर, पृथ्वी को परिक्रमा करते हुये, अपने कौआ का शरीर तज कर, शंकचक्रगदापाणि की बगल में आकर रह गया। हरि के दर्शन से कौए को मोक्ष प्राप्त हो गया। यह जगन्नाथ क्षेत्र अज्ञान को दूर करनेवाला है। इस क्षेत्र की महिमा अपार है।
कौआ, माधव को अद्भुत मूर्ति का ध्यान करते समय यमराज ने अपनी विधि एवं स्वधर्म की पूर्ति के लिए नीलाद्रि पर स्थित मोधव को साष्टांग दंडवत् प्रणाम किया तथा उस जगन्नाथ की प्रशंसा एवं महिमा का गान किया। फिर यमराज ने उनके वक्षस्थल पर स्थित लक्ष्मी देवी को भी प्रणाम किया। विष्णु के नयनों से आज्ञा पाकर लक्ष्मी देवी ने यमराज से कहा कि इस जगन्नाथ क्षेत्र पर ब्रह्मादि देवताओं का अधिकार नहीं होगा। इस पुण्य क्षेत्र में कर्म का परिपक्व होनेवाले पुनः कभी जन्म नहीं लेंगे। इस पुरूषोत्तम क्षेत्र में साक्षात् शरीरधारी भगवान नारायण के दर्शन कर लोग कर्म बंधनों से मुक्त हो रहे हैं। यहाँ त्रे मुमुक्षु होकर निवास कर रहे हैं । सृष्टि करनेवाले यही पुरूषोत्तम हैं।
जीव जीवन्मुक्त हैं, नरक एवं स्वर्ग की फिर यमराज ने लक्ष्मी देवो से मरनेवालों को मुक्ति का विधान इस क्षेत्र का क्षेत्र- फन, यहाँ निवास करने पर प्राप्त फल, यहाँ के अन्य तीर्थों को महिमा, अन्य गोपनीय विषय आदि विषयों के बारे में बताने का आग्रह किया ।
लक्ष्मी देवी ने यमराज से कहा कि हे रविनन्दन ! मैं इस क्षेत्र की अद्भुत महिमा बताती हूँ, सुनो। प्रलय के समय यह विश्व लीन होते समय मैं और यह क्षेत्र मात्र थे । तब मृकुंड़ के पुत्र मार्कंडेय मुनि सात कल्पों तक आयु क्षम होने पर भी प्रलय के समय स्थावर, जंगम नाश होने पर वे भोगये थे । गये थे। जल में इधर-उधर डुबकी लगाते हुए पुरूषोत्तम क्षेत्र के समान उन्होंने एक वटवृक्ष को देखा। उस वृक्ष पर चढ़ते समय उन्होंने एक बच्चे के वचनों को सुना ।
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