ब्रह्माण्ड पुराण - भाग २

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खिलाडी, जवान और पुलिस कर्मियों के लिए एक प्रार्थना

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श्री सूक्त - धन के लिए मंत्र

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हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्

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जगन्नाथ अष्टक स्तोत्र

जगन्नाथ अष्टक स्तोत्र

कदाचित् कालिन्दीतटविपिनसङ्गीतकवरो मुदा गोपीनारीवदनकमलास्वादमधुपः। रमाशंभुब्रह्मामरपतिगणेशार्चितपदो जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे। भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिञ्छं कटितटे दुकूलं नेत्रान्ते सहचरकटाक्षं च विदधत्। सदा श्रीमद्बृन्दावनवसतिलीलापरिचयो जगन्ना

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भवेतां ध्रुवमन्यच्च श्रूयतां वचनं मम ॥२७
पुत्रो भविष्यत्येकस्यामेकः सोऽनतिधार्मिकः ।
तथापि तस्य कल्पांत संभूतिश्च भविष्यति ।। २८

उन दोनों राजा की पत्नियों ने सदा ही अतन्द्रित होकर उस मुनि की विनय आचार और भक्ति से प्रीति को बड़ा दिया था ।२२। उस भक्ति और शुश्रूषा से मुनिवर बहुत ही अधिक सन्तुष्ट हो गये थे और फिर उन्होंने दोनों राजा को पत्नियों को अपने समीप में बुलाकर उन से यह वचन कहा था- आप दोनों ही हमसे किसी भी वरदान का वरण करो जो भी तुम्हारी इच्छा हो और तुमको अभीप्सित हो मैं उसी को तुम्हारे लिए दे दूँगाइसमें कुछ भी सन्देह नहीं है यद्यपि वह वरदान बहुत दुर्लभ भी क्यों न होवे ।२३-२४। इसके अनन्तर उन दोनों ने मस्तक टेक कर प्रणाम किया था और उन महामुनि से कहा था-हे भगवान्! हम दोनों हो आदर के साथ पुत्रों की कामना करती हैं । २५। इसके अनन्तर ओवं भगवान् ने कहा- आप दोनों के लिये राजा के प्रिय की कामना वाले मैंने यह अभीष्ट बरदान दे दिया है। २६॥ हे महाभाग बालियो ! मेरे प्रसाद से तुम दोनों ही पुत्रों वाली होबोगी और अन्य भी एक वचन परम ध्रुव है, उसका भी श्रवण कीजिए ।२७| एक पत्नी में एक ही पुत्र जन्म ग्रहण करेगा किन्तु यह अति धार्मिक नहीं होगा तो भी कल्प के अन्त में उनकी संभूति होगी |२८|
पष्टिः पुत्रसहस्राणामपरस्यां च जायते ।
अकृतार्थाच ते सर्वे विनश्यत्यचिरादिव ॥२६
एवं विधगुणोपेपी वरो दत्तो मया युवाम् ।
अभीप्सितं तु वचस्याः स्वेच्छ्या तत्प्रकीर्त्यताम् ॥३०
एवमुक्ते तु मुनिना वैदर्भ्यान्वयवर्द्धनम् ।
वरयामास तनयं पुत्रानन्यांस्तथा परा ।।३१
इति दत्त्वा वरं राज्ञे सगराय महामुनिः ।
सभार्यामनुमान्यैनं विससर्ज पुरीं प्रति ॥३२
मुनिना समनुज्ञातः कृतकृत्यो महीपतिः ।
रथमारुह्य वेगेन सप्रियः प्रययौ पुरीम् ।।३३
स प्रविश्य पूरी रम्या हृष्टपुष्टजनावृताम् ।
आनंदितः पौरजन रेमे परमया मुदा ॥३४
एतस्मिन्नेव काले तु राजपत्ल्यावुभे नृप ।
राजे प्रावोचतां गर्भ मुदा परमया युते ॥३५
और दूसरी गनी के गर्भ से साठ महस्र पुत्र समुत्पन्न होंगे । और वे भी सब अकृतार्थ अर्थात् असफल हो होकर थोड़े ही समय में विनष्ट हो जायगे ।२६। इस प्रकार के गुणों से समन्वित दो वरदान तुम दोनों को दे दिये हैं। इन दोनों में जिसका भी आप दोनों में जो भी अभीष्ट हो उसको मुझे बतला दो।३०। महामुनीन्द्र के द्वाग जब उन दोनों में इस तरह से कहा गया था जोकि वैदभ्य वंश का वर्धन करने वाला था तो वंदभी गे तो एक पुत्र प्राप्त करने का वरदान चाहा था और दूसरी ने अन्य साठ हजार पुत्रों के नाम ग्रहण करने के बरदान की याचना की थी।३१ उस महामुनि ने इस प्रकार से राजा सगर को वरदान देकर भार्याओं के सहित उसको आशा देकर अपनी नगरी की आर विदा कर दिया था।३२श मुनि के द्वारा आज्ञा प्राप्त करके राजा कृतकृत्य हो गया था और रथ पर समारूह होकर अपनी प्रियाओं के साथ बड़े वेग से पुरी की ओर चला गया था ।३३। उस नप ने अपनी नगरी में प्रवेश किया था, जो नगरी परम सुरम्य थी और हृष्ट-पुष्ट जनों से घिरी हुई थी। पुरवासी जनों के साथ हर्षोल्लास से युक्त होकर आनन्दित होते हुए प्रेम से रमण करने लगा था ।३४। इसी समय में है न प ! उन दोनों राजा की पत्नियों में परमाधिक प्रीति संयुत होकर राजा की सेवा में अपने-अपने गर्भो के धारण करने की सूचना दी थी।३५॥
ववृधे च तयोर्गर्भः शुक्लपक्षे यथोडुराट् ।
सह संतोषसंपत्त्या पित्रोः पौरजनस्य च ॥३६
संपूर्णे तु ततः काले महत्तै केशिनी शुभे ।
असुयताग्निगर्भाभ कुमारममिता तिम् ॥३७
जातकर्मादिकं तस्य कृत्वा चैव यथाविधि ।
असमंजस इत्येव नाम तस्याकरोन्नृपः ।।३८
सुतिश्चापि तत्काले गर्भालाबुमसूयत ।
संप्रसूतं तु तं त्यक्तु दृष्ट वा राजाऽकरोन्मनः ॥३६
तज्ज्ञात्वा भगवानोर्वस्तत्रागच्छ्यदृच्छया।
सम्यक् संभावितो राजा तमुवाच त्वरान्वितः ॥४०
गर्भालाबुरयं राजन्न त्यक्त भवताहति ।
पुत्राणां षष्टिसाहस्रबीजभूतो यतस्तव ॥४१
तस्मातत्सकलीकृत्य घृतकु भेषु यत्नतः ।
निःक्षिप्य सपिधानेषु रमणीयं पृथक्पृथक् ॥४२ ।
उन दोनों के गर्भ शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा के ही समान बढ़ गये थे। इससे माता-पिता को और पुरवासियों को भी बहुत अधिक सन्तोष हुआ था ।२६। इसके अनन्तर जब गर्भ का पूरा समय सम्प्राप्त हो गया तो परम शुभ मुहत्त में कोशिनी ने अपरिमित द्युति से सम्पन्न अग्नि के गर्भ की आभा वाले कुमार को जन्म ग्रहण कराया था।३७। उस कुमार का जातकर्म आदि संस्कार करके उसका विधि के साथ असमञ्जस नाम नृप ने रक्खा था।३। उसो समय में सुमति रानो ने भी एक गर्भ से अलाव को प्रसूत किया था । उसको प्रसूत हुआ देखकर उसका त्याग कर देने का विचार राजा के मन में हुआ था ।३९। किन्तु जब यह ज्ञात हुआ था कि राजा उस अलावू का त्याग करना चाहता है तो भगवान् और्व मुनि यहच्छा से ही वहाँ पर समागत हो गये थे। राजा सगर ने उनका भली भांति स्वागतसत्कार किया था। तब बहुत ही शीघ्रता से युक्त होकर मुनि ने राजा से कहा-४०। हे राजन् ! आप इस गर्भ से निःसृत अलावू का त्याग करने के योग्य नहीं हैं क्योंकि यह आपके साठ सहस्र पुत्रों का बीजभूत है।४१। इस कारण से इन सबको एकत्रित करके घृत के कलशों में यत्न पूर्वक ऊपर ढकना लगाकर अलग-२ इनको रक्षा करनी चाहिए।४२।
सम्यगेव कृते राजन्भवतो मत्प्रसादतः ।
यथोक्तसंख्या पुत्राणां भविष्यति न संशयः ।।४३
काले पूर्ण ततः कुम्भान्भित्त्वा निर्याति ते पृथक् ।
एवं ते षष्टिसाहस्र पुत्राणां जायते नृप ।।४४
इत्युक्त वा भगवानौर्वस्तवांतरधाद्विभुः ।
राजा च ततया चक्रे यथौर्वेण समीरितम् ॥४५
ततः संवत्सरे पूर्णे घृतकुभात्क्रमेण ते ।

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