प्रातः करदर्शनः – धन, ज्ञान और भक्ति से सफलता की ओर प्रेरित करने वाला सरल अनुष्ठान।
प्रातःकाल अपने हाथों की हथेली को देखकर फिर उसे चूमने और मस्तक पर लगाने की विधि सनातन धर्म में प्राचीन समय से प्रचलित है। इस विधि के पीछे एक विशेष श्लोक है:
कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती।
करमूले तु गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्॥
अर्थात, हाथ के अग्र भाग में लक्ष्मी, मध्य में सरस्वती, और मूल में गोविन्द निवास करते हैं। इस श्लोक के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि प्रातःकाल उठते ही अपने हाथों का दर्शन करना चाहिए क्योंकि हाथों के माध्यम से ही हम कर्म करके जीवन में सफलता प्राप्त करते हैं।
इस श्लोक के पीछे एक गहरा संदेश छुपा है:
लक्ष्मी: हाथों के अग्र भाग में लक्ष्मी का निवास हमें यह सिखाता है कि पुरुषार्थ के द्वारा धन, संपत्ति, और समृद्धि प्राप्त होती है। मेहनत और परिश्रम से हम अपने जीवन में भौतिक साधनों को अर्जित करते हैं।
सरस्वती: हाथ के मध्य में सरस्वती का निवास यह बताता है कि विद्या, ज्ञान, और बुद्धि का अर्जन हमारे हाथों से ही होता है। हम अपने हाथों से लिखते हैं, पढ़ते हैं और नई-नई बातें सीखते हैं जिससे हमें विद्या और ज्ञान की प्राप्ति होती है।
गोविन्द: हाथों के मूल में गोविन्द (भगवान विष्णु) का निवास यह दर्शाता है कि ईश्वर की भक्ति, उपासना और ध्यान करने का साधन भी हमारे हाथ ही हैं। भक्ति के माध्यम से हम आध्यात्मिक शांति और मोक्ष की ओर अग्रसर होते हैं।
करदर्शन का यह अनुष्ठान यह प्रेरणा देता है कि हमें अपने हाथों का सही उपयोग करना चाहिए। हाथों के माध्यम से धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष की प्राप्ति होती है। अपने कर्मों से हम लक्ष्मी (धन), सरस्वती (ज्ञान), और गोविन्द (ईश्वर) को प्राप्त कर सकते हैं।
इस प्रकार, प्रातःकाल करदर्शन से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मेहनत, विद्या, और भक्ति के समन्वय से हम अपने जीवन के चारों पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। यह एक सुंदर और प्रेरणादायक विधि है जो हमें हमारी क्षमता और आध्यात्मिकता का स्मरण कराती है।
कोई भी अनुभव बिना कारण का नहीं होता। श्रीराम जी मानते थे कि कौसल्या माता ने पूर्व जन्म में किसी माता के अपने पुत्र से वियोग करवाया होगा। इसलिए उनको इस जन्म में पुत्र वियोग सहना पडा।
श्रीराम जी न तो कहीं जाते हैं, न कहीं ठहरते हैं, न किसी के लिए शोक करते हैं, न किसी वस्तु की आकांक्षा करते हैं, न किसी का परित्याग करते हैं, न कोई कर्म करते हैं। वे तो अचल आनन्दमूर्ति और परिणामहीन हैं, अर्थात उनमें कोई परिवर्तन नहीं होता। केवल माया के गुणों के संबंध से उनमें ये बातें होती हुई प्रतीत होती हैं। श्रीराम जी परमात्मा, पुराणपुरुषोत्तम, नित्य उदय वाले, परम सुख से सम्पन्न और निरीह अर्थात् चेष्टा से रहित हैं। फिर भी माया के गुणों से सम्बद्ध होने के कारण उन्हें बुद्धिहीन लोग सुखी अथवा दुखी समझ लेते हैं।
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