Special - Saraswati Homa during Navaratri - 10, October

Pray for academic success by participating in Saraswati Homa on the auspicious occasion of Navaratri.

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प्रतिद्वंद्वियों की हार के लिए अथर्ववेद मंत्र

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आपके मंत्रों ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। 😊 -नेहा राठौड़

वेद पाठशालाओं और गौशालाओं के लिए आप जो कार्य कर रहे हैं उसे देखकर प्रसन्नता हुई। यह सभी के लिए प्रेरणा है....🙏🙏🙏🙏 -वर्षिणी

आपकी मेहनत से सनातन धर्म आगे बढ़ रहा है -प्रसून चौरसिया

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏 -मदन शर्मा

आपके मंत्रों से बहुत लाभ मिला है। 😊🙏🙏🙏 -मधुबाला

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गृह्यसूत्र

गृह्यसूत्र वेदों का एक हिस्सा है, जिसमें परिवार और घरेलू जीवन से संबंधित संस्कारों, अनुष्ठानों, और नियमों का विवरण होता है। यह वैदिक काल के सामाजिक और धार्मिक जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं को दर्शाता है। गृह्यसूत्रों में विभिन्न प्रकार के संस्कारों का वर्णन है, जैसे कि जन्म, नामकरण, अन्नप्राशन (पहली बार अन्न ग्रहण करना), उपनयन (यज्ञोपवीत संस्कार), विवाह, और अंत्येष्टि (अंतिम संस्कार) आदि। ये संस्कार जीवन के प्रत्येक महत्वपूर्ण चरण को चिह्नित करते हैं। प्रमुख गृह्यसूत्रों में आश्वलायन गृह्यसूत्र, पारस्कर गृह्यसूत्र, और आपस्तंब गृह्यसूत्र शामिल हैं। ये ग्रंथ विभिन्न ऋषियों द्वारा रचित हैं और विभिन्न वैदिक शाखाओं से संबंधित हैं।गृह्यसूत्रों का धार्मिक महत्व बहुत अधिक है क्योंकि ये न केवल व्यक्तिगत जीवन के संस्कारों का विवरण प्रदान करते हैं बल्कि समाज में धार्मिक और नैतिक मानकों की स्थापना भी करते हैं।

भक्ति-योग का लक्ष्य क्या है?

भक्ति-योग में लक्ष्य भगवान श्रीकृष्ण के साथ मिलन है, उनमें विलय है। कोई अन्य देवता नहीं, यहां तक कि भगवान के अन्य अवतार भी नहीं क्योंकि केवल कृष्ण ही सभी प्रकार से पूर्ण हैं।

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इस स्थान पर एक बालक ने माता पार्वती के पैर दबाकर सेवा की थी और माता वहीं पर एक शिला में समाविष्ट हो गयी । कौनसा है यह स्थान ?

अमूः पारे पृदाक्वस्त्रिषप्ता निर्जरायवः । तासां जरायुभिर्वयमक्ष्यावपि व्ययामस्यघायोः परिपन्थिनः ॥१॥ विषूच्येतु कृन्तती पिनाकमिव बिभ्रती । विष्वक्पुनर्भुवा मनोऽसमृद्धा अघायवः ॥२॥ न बहवः समशकन् नार्भका अभि दा....

अमूः पारे पृदाक्वस्त्रिषप्ता निर्जरायवः ।
तासां जरायुभिर्वयमक्ष्यावपि व्ययामस्यघायोः परिपन्थिनः ॥१॥
विषूच्येतु कृन्तती पिनाकमिव बिभ्रती ।
विष्वक्पुनर्भुवा मनोऽसमृद्धा अघायवः ॥२॥
न बहवः समशकन् नार्भका अभि दाधृषुः ।
वेणोरद्गा इवाभितोऽसमृद्धा अघायवः ॥३॥
प्रेतं पादौ प्र स्फुरतं वहतं पृणतो गृहान् ।
इन्द्राण्येतु प्रथमाजीतामुषिता पुरः ॥४॥

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