जो लौकिक और आध्यात्मिक भोग को देती है वह है पूजा।
संस्कृत में - पूर्जायते ह्यनेन इति पूजा।
पूः को प्रदान करती है पूजा।
पूः - लौकिक और आध्यात्मिक भोग।
लौकिक भोग हैं - धन-संपत्ति, घर, वाहन, स्वास्थ्य,
मंगलमय पारिवारिक जीवन।
आध्यात्मिक भोग हैं - ज्ञान, शांति, उत्तम लोकों की प्राप्ति, मोक्ष की प्राप्ति, शिव पद की प्राप्ति।
ये सारे मिल जाएंगे पूजा करने से।सकाम पूजा करो तो लौकिक सुख भोग। निष्काम पूजा करो तो आध्यात्मिक प्रगति, आध्यात्मिक भोग।
पूजा, आराधना मुख्यतया चार प्रकार के होते हैं।
१. नित्य - जो हर दिन की जाती है - नित्य पूजा, संध्या-वंदन।
२. नैमित्तिक - जो विशेष दिनों में की जाती हैं - जैसे शिवरात्रि की पूजा, नवरात्र की पूजा।
नित्य और नैमित्तिक पूजा का फल दीर्घावधि में मिलता है। पर यह बहुत ही बलवान और घनिष्ठ रहता है। एक किले कि तरह यह आपकी रक्षा करता रहता है,
आपको पता भी नही होगा।
मान लो आप ध्यान न देते हुए सडक पार कर रहे हैं। एक गाडी अति वेग से आपकी ओर आ रही है। आखिरी क्षण में ड्रायवर आपको देख लेता है, आप बच जाते हैं। यह आप की पूजा का बल है। उस पूजा की शक्ति ने ही ड्रायवर के ध्यान को आपकी ओर आकर्षित किया। यही है नित्य नैमित्तिक पूजा का महत्त्व।
आपने देखा होगा जो श्रद्धा से नित्य पूजा करते हैं वे कम बीमार पडते हैं, उनको समस्यायें कम होती हैं।
३. काम्य पूजा वह है जो किसी विशेष फल के लिए की जाती है। जैसे कोई बीमार है, उनके लिए मृत्युञ्जय का अनुष्ठान किया। यह हम इस आशा से करते हैं कि तुरंत फल मिल जायें। पर वह इस पर भी निर्भर है कि वह व्यक्ति कितना शुद्ध है, पवित्र है और कितनी श्रद्धा से और सही रूप से पूजा किया। भगवान ये सब देखकर ही फल देते हैं।
४. पूजा करने का एक और तरीका है - १०० दिनों के लिए निरंतर, १००० दिनों के लिए, कोई लक्ष परिक्रमा का संकल्प करके करता है, कोई लक्ष नमस्कार का।
गणेश जी की पूजा के लिए शुक्रवार अच्छा होता है। श्रावण और भाद्रपद के शुक्ल पक्ष चतुर्थी भी, धनुर्मास का शतभिषा नक्षत्र भी। कृष्ण पक्ष चतुर्थी को गणेश पूजन करने से गये पन्द्रह दिनों के सारे पाप नष्ट हो जाएंगे। अगले पन्द्रह दिनों मे सफलता और सुख भोग मिलेंगे। चैत्र की चतुर्थी में गणेश पूजन करने से एक महीना मंगलमय रहेगा। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को जो विश्व प्रसिद्ध विनायक चतुर्थी है उस दिन गणेश पूजन करने पूरा साल सुख से पूर्ण और मंगलप्रद रहेगा।
आदित्यहृदय स्तोत्र के प्रथम दो श्लोकों की प्रायः गलत व्याख्या की गई है। यह चित्रित किया जाता है कि श्रीराम जी युद्ध के मैदान पर थके हुए और चिंतित थे और उस समय अगस्त्य जी ने उन्हें आदित्य हृदय का उपदेश दिया था। अगस्त्य जी अन्य देवताओं के साथ राम रावण युध्द देखने के लिए युद्ध के मैदान में आए थे। उन्होंने क्या देखा? युद्धपरिश्रान्तं रावणं - रावण को जो पूरी तरह से थका हुआ था। समरे चिन्तया स्थितं रावणं - रावण को जो चिंतित था। उसके पास चिंतित होने का पर्याप्त कारण था क्योंकि तब तक उसकी हार निश्चित हो गई थी। यह स्पष्ट है क्योंकि इससे ठीक पहले, रावण का सारथी उसे श्रीराम जी से बचाने के लिए युद्ध के मैदान से दूर ले गया था। तब रावण ने कहा कि उसे अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए युद्ध के मैदान में वापस ले जाया जाएं।
श्रीकृष्ण के संग पाने के लिए श्री राधारानी की सेवा, वृन्दावन की सेवा और भगवान के भक्तों की सेवा अत्यन्त आवश्यक हैं। इनको किए बिना श्री राधामाधव को पाना केवल दुराशा मात्र है।
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