वेङ्कटेश सुप्रभातम् की रचना ईसवी सन १४२० और १४३२ के बीच में हुई थी।
हैदराबाद से २१५ कि.मी. दूरी पर श्रीशैल पर्वत पर मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग स्थित है।
शिव पुराण से एक कहानी सुनाना चाहता हूं जिसमें से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। भगवान ही विश्व को कार्यान्वित करते हैं, उनकी माया शक्ति के माध्यम से घटनाएँ होती हैं। भगवान अपनी माया शक्ति के माध्यम से विश्व को बनाते हैं और नियं....
शिव पुराण से एक कहानी सुनाना चाहता हूं जिसमें से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।
भगवान ही विश्व को कार्यान्वित करते हैं, उनकी माया शक्ति के माध्यम से घटनाएँ होती हैं।
भगवान अपनी माया शक्ति के माध्यम से विश्व को बनाते हैं और नियंत्रित करते हैं।
माया छुटकारा पाने लायक कोई नकारात्मक गुण नहीं है।
माया ही विश्व के अस्तित्व का कारण है।
इसीलिए दुर्गा सप्तशती कहती है -
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥
ज्ञानियों को भी कभी-कभी इस माया के प्रभाव में आना पड़ता है।
उनके लिए भी इससे बचना कठिन है।
माया उन्हें भी अपने मूल स्वभाव के विपरीत कभी-कभी व्यवहार करने में मजबूर कर देती है।
ऐसा ही नारद जी के साथ हुआ।
नारद देवर्षि हैं , ब्रह्मचारी हैं, ब्रह्मज्ञानी हैं।
लेकिन वे एक बार माया के वश में आकर संसारी इच्छाओं और दिखावटों में आसक्त हो गए।
वे एक साधारण मानव की तरह आचरण करने लगे।
हमारे विश्वास और आस्था कितने भी मजबूत हों, हमारा ज्ञान कितना भी गहरा हो, हम माया के प्रभाव में कभी भी आ सकते हैं।
एक बार नारद जी वह यात्रा कर रहे थे, तो राजा शीलनिधि के राजधानी में पहुंचे।
राजकुमारी के स्वयंवर के लिए तैयारियाँ चल रही थीं।
जब उन्होंने राजकुमारी को देखा, तो नारद जी मोहित हो गए, पूरी तरह से मोहित हो गए।
उन्होंने उसे अपनाना चाहा, उससे विवाह करना चाहा।
यह माया की शक्ति है।
यह बिना किसी उद्देश्य का नहीं था।
नारद ने उन सब राजाओं को देखा जो स्वयंवर के लिए आए थे।
वे सभी राजशील वस्त्र पहने हुए थे, बहुत ही उत्तम मणि गहनों को पहने हुए थे, सुन्दर थे।
और फिर उन्होंने अपने आप को देखा।
मैं इन सभी को कैसे पार करूंगा और राजकुमारी को मैं कैसे पसन्द आऊंगा, इन सबके सामने?
नारद जी को एक विचार आया।
जल्दी से वैकुंठ की ओर दौडे।
नारद भगवान विष्णु के सबसे विशिष्ट भक्तों में से एक हैं।
उन्होंने भगवान से कहा - क्या आप मुझे आपके समान शरीर दे सकते हैं।
जो आप ही की तरह दिखता हो।
जो भगवान की तरह दिखता है, उसे कौन लडकी पसन्द नहीं करेगी ?
भगवान मुस्कुराए और बोले - तथास्तु।
नारद जी स्वयंवर वेदी पर वापस गए और राजाओं के बीच बैठे।
राजकुमारी अपनी सखियों के साथ एक राजा से दूसरे राजा के पास गई।
उसे उस राजा या राजकुमार के गले में हार पहनाना था जो उसे पसन्द आये ।
नारद के पास आकर उसने अपना चेहरा फेर लिया और दूसरे ओर चल दिया।
नारद जी हैरान हो गये कि राजकुमारी मुँह फेर कर चली गई।
यह क्या हो गया ?
जो हुआ, नारद को वह मानना कठिन था। राजकुमारी ने सचमुच न कहा ?
जिसने भी नारद को देखा, वे सब हस रहे थे । नारद ने उनमें से एक से पूछा, तुम क्यों हंस रहे हो? उसने कहा - क्या तुम्हें नहीं पता? जाकर दर्पण पर देखो । नारद ने वह किया। उन्हें दर्पण पर एक बंदर का चेहरा नजर आया। वे समझ नहीं पा रहे थे कि उनके प्यारे भगवान ने उसके साथ ऐसा क्यों किया। फिर से वे वैकुंठ की ओर धावित हुए, इस बार गुस्से के साथ और भगवान का सामना किये। भगवान एक मुस्कान के साथ बोले - मैंने क्या गलती की है? तुमने मुझसे मेरे समान एक शरीर मांगा, मैंने तुम्हें वह दिया। तुमने कभी मेरे समान चेहरा मांगा ही नहीं। नारद अपने चेहरे को नहीं देख सकते थे। उन्हें सिर्फ उनका भगवान जैसा शरीर दिखाई दिया और उन्होंने यह मान लिया कि उनका चेहरा भी भगवान जैसा ही होगा।
उनका अनुभव एक साधारण व्यक्ति के समान हो गया।
लेकिन कहानी यहां समाप्त नहीं होती है ।
नारद ने भगवान को शाप दिया - आपकी वजह से मुझे वह आकर्षक राजकुमारी नहीं मिली। आप पृथ्वी पर जन्म लेंगे और अपनी प्रिय पत्नी से अलग होने की पीड़ा सहेंगे। सिर्फ मेरे जैसे बंदर ही आपकी मदद के लिए आएंगे। वे आपको अपनी पत्नी के साथ पुनः मिलवाने में मदद करेंगे।
नारद के शाप का सहारा लेकर ही भगवान पृथ्वी पर जन्म श्रीरान जी के रूप में अवतरित हुए ।
यह किसी कारण के बिना हो नहीं सकता।
नारद का शाप वह कारण बन गया।
यह माया शक्ति है।
हमें समय-समय पर अपने विचारों और धारणाओं पर विचार करना चाहिए।
हमें अपनी मान्यताओं और पूर्वाग्रहों पर सवाल उठाना चाहिए।
हमें अपने अनुभव की सीमाओं को समझना चाहिए।
इस प्रकार की पैस्थितियों का सामना करने का एक तरीका अंतर्निहित संतोष का विकास करना है।
नारद के कार्य - लड़की के प्रति उसकी लालसा और भगवान को शाप देना - बहुत ही आवेगशील थे।
अगर उन्होंने इस पर विचार किया होता, तो वे पहचान लेते कि माया शक्ति उन पर खेल रही है।
आवेगशील निर्णयों से बचें।
उनमें अधिकांश अनपेक्षित परिणाम की ओर ले जाते हैं।
अस्थायी आनंदों की पूर्ति की खोज में, हम सनातन सत्यों को भूल जाते हैं ।
केवल हमारी भगवान के साथ का संबंध हमें हमेशा आनंद और संतोष दे सकता है।
नारद जी की गलती से इसे सीखें।
एक और बात ध्यान में रखना है कि भगवान ने मुस्कुराकर ही श्राप को स्वीकार किया।
क्योंकि उन्हें पता था कि यह एक बड़े खेल का हिस्सा है।
उसी तरह, हमें भी यह स्वीकार करना चाहिए कि, हमारे जीवन खि समस्याएं भी एक बडी दैवी योजना का हिस्सा हो सकता है।
समझें कि ये योजनाएं हमें उन्नति देने के लिए हैं, हमें हानि पहुंचाने के लिए नहीं।
वैसे, आपने श्रीराम जी के जन्म के एक अन्य संस्करण के बारे में सुना होगा, जिसमें भगवान ने शुक्राचार्य के श्राप का लाभ उठाया था और पृथ्वी पर जन्म लिया था।
वह भी सही है। ये घटनाएं हर कल्प में छोटी छोटी भिन्नताओं के साथ फिर बार बार होती रहती हैं।
नारद का श्राप और शुक्राचार्य का श्राप दो अलग-अलग कल्पों में हुआ रहेगा ।
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