त्वं वाङ्मयस्त्वं ... विज्ञानमयोऽसि
त्वं वाङ्मयः - वाणी आप ही का एक रूप है।
त्वं चिन्मयः – 'चित्' क्या है? सभी प्राणियों के अंदर जो बोध है, जो ज्ञान है, जो संवेदन शक्ति है, जिसके द्वारा पदार्थों को पहचाना जाता है, वह है 'चित्'।
वह चित् श्री गणेश ही हैं।
त्वं आनन्दमयः – योगीजन समाधि द्वारा जिस अनश्वर परमानन्द को पाते हैं – वह आप ही हैं।
त्वं ब्रह्ममयः – सत्यं, ज्ञानं, अनन्तं ब्रह्म।
जो परम सत्य है, जो परम ज्ञान है – ब्रह्म – जो अनन्त है – वह आप ही हैं।
त्वं सच्चिदानन्दाद्द्वितीयोऽसि – सच्चिदानन्द: सत्, चित्, और आनन्द।
सत् क्या है? जो अनश्वर है, जो शाश्वत है, वह है सत्।
जैसे मिट्टी और मूर्ति – मिट्टी से मूर्ति बनती है और बाद में मिट्टी में ही विलीन हो जाती है।
मूर्ति को असत् कह सकते हैं क्योंकि वह थोड़े समय के लिए ही रहती है, और मिट्टी सत् है।
यह व्याख्या केवल समझाने के लिए है।
शास्त्र कहते हैं कि सारा जगत् असत् है और केवल ब्रह्म ही सत् है, शाश्वत है।
जगत् को असत् इसलिए कहते हैं कि वह प्रलय के समय नष्ट हो जाता है।
जैसे मिट्टी से मूर्ति बनती है वैसे ही ब्रह्म से जगत् बनता है, और वह ब्रह्म श्री गणेश हैं।
श्री गणेश ही बोध – चित् बनकर प्राणियों के अंदर रहते हैं।
ये सब जानने के बाद योगीजन जिस आनन्द को पाते हैं, वह आनन्द भी श्री गणेश हैं।
गणेशजी इस सच्चिदानन्द में अद्वितीय हैं।
त्वं सच्चिदानन्दाद्द्वितीयोऽसि
त्वं ज्ञानमयोऽसि – ज्ञान का स्वरूप आप ही हैं।
त्वं विज्ञानमयोऽसि – विज्ञान, लौकिक ज्ञान, न केवल आध्यात्मिक ज्ञान, लौकिक ज्ञान भी आप ही हैं।
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते
यह सारा जगत आप से ही उत्पन्न होता है।
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति
यह सारा जगत आप ही का सहारा है; आप ही इसे चलाते हैं, इसका पालन करते हैं।
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति – यह जगत प्रलय के समय आप में ही विलीन हो जाता है।
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति
यहाँ दो प्रकार के प्रलय का उल्लेख है –
कल्पान्त प्रलय – चार दशमलव तीन दो अरब वर्षों को एक कल्प कहते हैं – यह ब्रह्मा का एक दिन होता है।
जब ब्रह्मा हर दिन सोकर उठते हैं, तो जगत का सृजन करते हैं। यह जगत ४.३२ अरब वर्षों तक रहता है।
शाम होते ही इसका संहार हो जाता है। इस काल को – ४.३२ अरब वर्षों को – एक कल्प कहते हैं। कल्पान्त में जब प्रलय होता है, तो सब कुछ श्री गणेश में ही विलीन होता है।
ब्रह्मा जब सोते हैं, वह भी ४.३२ अरब वर्षों के लिए – तब जगत नहीं है, कुछ भी नहीं है, केवल ब्रह्म, केवल गणेशजी हैं।
फिर सुबह उठकर ब्रह्माजी सृष्टि करते हैं। ब्रह्मा की आयु है सौ वर्ष – हमारा नहीं, उनका सौ वर्ष।
उसके बाद ब्रह्मा बदल जाते हैं, दूसरे ब्रह्मा आते हैं। एक ब्रह्मा की आयु के अंत में जो प्रलय होता है, उसे प्राकृतिक प्रलय कहते हैं।
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति का मतलब है – कल्पान्त प्रलय में, यानी ब्रह्मा के एक दिन के अंत में जो प्रलय होता है, उसमें सब कुछ आप में ही विलीन होता है।
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति का मतलब है – ब्रह्मा की आयु के अंत में जो प्राकृतिक प्रलय है, उसमें भी सारा जगत आप में ही विलीन होता है।
त्वं भूमिरापोनलोनिलोनभः
भूमिः – आपः (जल), अनलः (अग्नि), अनिलः (वायु), नभः (आकाश)।
पाँच महाभूत – ये आप ही के रूपांतर हैं।
त्वं चत्वारि वाक पदानि
वाणी कहाँ से आती है?
हम बात कैसे कर पाते हैं?
वाणी मूलाधार से उत्पन्न होती है – एक स्पंदन के रूप में – और यह स्पंदन है ॐकार – इसे 'परा' कहते हैं।
मूलाधार से उगकर जब यह नाभि तक पहुँचती है, तो इसे 'पश्यन्ती' कहते हैं।
'परा' और 'पश्यन्ती' इन दोनों को केवल योगीजन महसूस कर पाते हैं।
यह केवल स्पंदन है – इसमें कोई शब्द या अर्थ नहीं जुड़ा होता है।
'परा' ही उगकर 'पश्यन्ती' बनती है।
जब यह स्पंदन हृदय के स्तर पर पहुँचता है, तो इसमें शब्द जुड़ जाते हैं।
जो ध्वनि बोलना चाहते हैं, वह इसमें जुड़ जाती है। ये शब्द लिफाफे की तरह उस स्पंदन को अपने भीतर ले लेते हैं।
तब भी यह बाहर सुनाई नहीं देता – यह अंदर की आवाज है, जिसे केवल स्वयं सुन पाते हैं।
जैसे जब हम मन में कोई पाठ दोहराते हैं, तो वह शब्द केवल अपने भीतर होता है; दूसरा व्यक्ति इसे नहीं सुन सकता।
इसे कहते हैं – 'मध्यमा'।
जब यह स्पंदन और इसके साथ जुड़े शब्द गले की स्वर तंत्री से होकर श्वास-कोश के वायु के माध्यम से बाहर आते हैं, तो यह सुनाई देती है। इस सुनाई देने वाली वाणी को 'वैखरी' कहते हैं।
वाणी की ये चार अवस्थाएँ – परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी – ये चारों आप ही हैं।
त्वं चत्वारि वाक्पदानि
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