जगन्नाथ धाम

jagannath dham

जगन्नाथ धाम को पुरुषोत्तम क्षेत्र भी कहते हैं।

यहीं भगवान पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हैं।

यह मन्दिर ओडिशा राज्य के पुरी शहर में स्थित है।

यह चार धाम नाम से प्रसिद्ध पुण्य क्षेत्रों में एक है।

जगन्नाथ धाम के नाम लेने से या स्मरण मात्र से मानव मोक्ष का अधिकारी बन जाता है।

 

सबसे पहले भगवान ने ही  यहां नीलमणि की मूर्ति की स्थापना की थी।

इसे नील माधव जी कहते हैं।

इस मूर्ति के दर्शन मात्र से लोगों को मुक्ति प्राप्त होती थी।

किसी कारण से उस मूर्ति का  दर्शन दुर्लभ हो गया ।

 

वर्तमान में २८वां महायुग चल रहा है।

दूसरे महायुग के अन्तर्गत सतयुग में राजा इन्द्रद्युम्न ने पुनः उस मूर्ति की स्थापना करने का प्रयास किया। 

राजा इन्द्रद्युम्न उज्जैन (अवन्ती) के राजा थे। 

बे धार्मिक, गुणवान और पराक्रमी थे।

उन्हें मुक्ति पाने की इच्छा हुई।

वे तीर्थयात्रा पर निकले।

उज्जैन के सारे जन भी उनके साथ निकले।

वे सब बंगाल की खाड़ी के तट पर आ पहुंचे।

उन्होंने वहां एक विशाल वट वृक्ष को देखा।

इन्द्रद्युम्न समझ गया कि वह पुरुषोत्तम क्षेत्र है।

 

उन्होंने वहां नीलमणि की मूर्ति के लिए बहुत ढूंढा पर वह नही मिला।

राजा ने भगवान को प्रसन्न करने के लिए अश्वमेध यज्ञ करने का निर्णय लिया।

साथ ही साथ भगवान के लिए एक भव्य मन्दिर का निर्माण कार्य भी प्रारंभ हुआ।

 

मन्दिर का निर्माण संपन्न होने पर यह नहीं तय हो पा रहा था कि मन्दिर के लिए मूर्ति किस वस्तु से बनाएं - पत्थर, धातु या लकडी से।

भगवान राजा के सपने में आकर बोले - कल सूर्योदय पर समुद्र के तट पर चले जाओ।

वहां तुम्हें एक विशाल वृक्ष मिलेगा।

उसका कुछ भाग पानी में और कुछ भाग स्थल पर रहेगा।

कुल्हाड़ी से उसे काटना शुरू करो।

उस समय वहाँ एक अद्भुत घटना घटेगी।

उसकी प्रतीक्षा करो।

 

अगले दिन राजा समुद्र तट पर अकेले गये।

उस समय वहां श्रीमन्नारायण और विश्वकर्मा ब्राह्मणों के वेश में प्रकट हुए।

भगवान ने इन्द्रद्युम्न से कहा - मेरे साथी समर्थ शिल्पकार हैं।

ये मन्दिर के लिए मूर्तियां बनाएंगे।

भगवान और राजा के देखते देखते ही विश्वकर्मा ने उस लकडी से कुछ ही समय में तीन मूर्तियां बनायी - श्रीकृष्ण, बलराम, और सुभद्रा की।

 

इन्द्रद्युम्न ने हाथ जोड़कर कहा - आप दोनों मानव दिखते जरूर हैं, पर सच सच बताइए, कौन हैं आप लोग?

भगवान ने कहा - मैं नारायण हूं और ये मेरे साथ विश्वकर्मा है।

मैं तुम्हारी भक्ति और श्रद्धा से प्रसन्न हूं।

जो चाहे वर मांगो।

राजा ने कहा - मैं आपके परम पद को प्राप्त करना चाहता हूं।

भगवान ने कहा - अभी तुम दस हजार नौ सौ वर्षों तक राज्य करो।

उसके बाद तुम जो चाहते हो वह मिल जाएगा।

विश्व भर में तुम्हारी कीर्ति फैलेगी।

तुम्हारे अश्वमेध यज्ञ में दान की गयी गायों के खुरों से बना तालाब तुम्हारे नाम से प्रसिद्ध होगा।

जो उसमें स्नान करेगा उसे इन्द्रलोक प्राप्त होगा।

उसके तट पर किया हुआ पिण्डदान इक्कीस पीढियों का उद्धार करेगा।

इतना कहकर भगवान और विश्वकर्मा अन्तर्धान हो गये।

 

बडे बडे रथों में मूर्तियां वाद्यघोष के साथ मन्दिर ले जायी गयी।

वहां उनकी स्थापना विधिवत हुई।

यह है जगन्नाथ धाम की मूर्तियों का रहस्य।

 

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